सुलभ स्वच्छ भारत - वर्ष-2 - (अंक 15)

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ट्रंप गांव

स्वच्छता

पुस्तक अंश

परिवारों की खुशी उनकी ही जुबानी

भूख से जूझते कांगो में स्वच्छता की चुनौती

नरेंद्र मोदी की रैलियां

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महिला तरक्की का ‘फाउंडेशन’

न्यूजमेकर

sulabhswachhbharat.com

हरियाणा के मरोड़ा गांव के ‘ट्रंप विलेज’ बनने की कहानी

आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597

यह कहानी है हरियाणा के मेवात जिले में स्थित छोटे से गांव मरोड़ा की, स्वच्छता के लिए उसके ‘ट्रंप विलेज’ बनने की, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के नाम पर रखे गए इस गांव को अमेरिका की तरह ही स्वच्छ बनाने की। कहानी उस गांव की जिसने अशिक्षा की बेड़ियां तोड़ स्वच्छता को अपना मुकाम बनाया

वर्ष-2 | अंक-15 | 26 मार्च - 01 अप्रैल 2018


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आवरण कथा

26 मार्च - 01 अप्रैल 2018

‘ट्रंप’ नाम देने के पीछे उद्देश्य मरोड़ा को वैश्विक पहचान दिलाना और देश में भी विदेशों की तरह स्वच्छता के प्रति जागरूकता लाना था

जा

अयोध्या प्रसाद सिंह

के पैर न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई। यह कहावत बहुत पुरानी है, लेकिन भारत के गांवों की समस्याओं के संदर्भ में बिल्कुल सटीक है। शहरी विकास के आवरण में लिपटे देश के बहुत सारे लोगों ने यदि गांवों को नहीं देखा है, तो शायद ही उनको पता हो कि बहुत से गांव आज भी मूलभूत सुविधाओं से महरूम हैं। ऐसा ही एक गांव हरियाणा के मेवात जिले में स्थित है। दिल्ली से 150 किलोमीटर दूर स्थित मरोड़ा गांव 'ट्रंप गांव' के नाम से प्रसिद्ध है। शौचालय और स्वच्छता को एक आंदोलन का रूप देने वाले सुलभ इंटरनेशनल ने मरोड़ा को वैश्विक पहचान देने और यहां स्वच्छता के प्रति

खास बातें

दिल्ली से 150 किमी की दुरी पर है मरोड़ा यानी ट्रंप गांव 23 जून, 2017 को डॉ. पाठक ने गांव में बदलाव की नींव रखी आज ट्रंप गांव स्वच्छता और स्वावलंबन की मिसाल है

अलख जगाने के लिए इस गांव का नाम अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के नाम पर ‘ट्रंप विलेज’ रखा। लेकिन इस गांव में बदलाव की बयार लाना इतना आसान नहीं था। गांव की अधिकतर आबादी मजदूरों की है। लोग सुबह काम पर निकलते थे और देर शाम मजदूरी कर वापस लौटते थे। ऐसे में उन्हें स्वच्छता और शौचालय के मायने समझाना बिल्कुल भी आसान नहीं था। घोर अशिक्षा के माहौल में जिंदगी की मूलभूत सुविधाओं की कमी तो थी ही, साथ ही ऐसी समस्याएं भी थीं, जिनपर अपना कोई वश नहीं। इन्हीं समस्याओं में था खुले में शौच के लिए जाना। यह महिलाओं के लिए

वह दर्द था जिसको शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। इसके साथ ही गांव में गंदगी का आलम यह था कि नालियां शौच से भरी रहती थीं और उनसे फैली गंदगी गांव के हर व्यक्ति को बीमार बना रही थी।

सुलभ की टीम का गांव पहुंचना

आखिरकार इस गांव के भी दिन बहुरे, मासूम कोपलों को फूटने का मौका मिला, पंखों को उड़ने के लिए खुला आसमान मिला। आखिर वह दिन आया जब सुलभ इंटरनेशनल की टीम इस गांव में पहुंची और उसने इस बदहाल गांव को संवारने के

लिए गोद लेने का फैसला किया। अपनी वैज्ञानिक और सस्ती तकनीक से 2 करोड़ से ज्यादा टॉयलेट बना चुके सुलभ के इस फैसले के बाद खुशियों ने लगभग 2000 की आबादी वाले इस गांव के दरवाजे पर दस्तक देनी शुरू कर दी। रमजान के पाक महीने में 18 जून को जब सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक यहां आए तो उन्होंने यहां की महिलाओं को ईद से पहले ही ईदी देते हुए शौचालयों के निर्माण की बात कही। साथ ही उनके कौशल को निखारकर बेहतर जीवनयापन का अवसर उपलब्ध कराने का वादा भी किया। लेकिन यह सफर आसान नहीं था, शिक्षा से कोसों दूर इस गांव के लोगों को स्वच्छता के मायने बताना बेहद कठिन काम था। लेकिन कहते हैं न कि यदि ठान लो तो कुछ भी मुमकिन है। सुलभ की टीम ने जन-जागरूकता कार्यक्रम चलाए। लोगों की सोच बदलने के लिए कई कार्यक्रम किए गए। गांव के पूर्व सरपंच शौकत अली के साथ मिलकर लोगों को स्वच्छता का मतलब समझाया गया। इसके बाद विख्यात समाज सुधारक और गांधीवादी डॉ. पाठक ने रिपब्लिकन पार्टी के एशिया-प्रशांत सलाहकार समिति के सदस्य पुनीत अहलूवालिया के साथ मिलकर इस गांव को वैश्विक पहचान दिलाने और एक मानक स्थापित करने के लिए इस गांव को ट्रंप विलेज का नाम दिया। फिर शुरू हुआ स्वच्छता, स्वरोजगार और ग्राम-स्वावलंबन के विकास का वह सुनहला दौर जो आज भी बदस्तूर जारी है। 23 जून, 2017 को गांव में एक बड़ा कार्यक्रम आयोजित किया गया, जिसमें डॉ. पाठक ने गांव के बदलाव की नींव रखी और और गांव के लिए अपनी कई योजनाओं के बारे में बताया।


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एक महीने में गांव की तस्वीर बदलने लगी

सिर्फ एक महीने बाद ही डॉ. पाठक दूसरी बार यहां आए और उन्होंने पांच नवनिर्मित शौचालयों को गांव को समर्पित किया और जल्द ही अन्य के पूरा होने की उम्मीद जताई। इसके बाद सिर्फ डेढ़ महीने में ही सुलभ के समर्पित कार्यकर्ताओं ने 95 सुलभ शौचालयों का निर्माण कर 165 परिवार वाले इस गांव को नायाब तोहफा दिया। साथ ही गांव में रोजगार के लिए ट्रेनिंग सेंटर भी खोला। इस सिलाई केंद्र में 7 सिलाई मशीने हैं, जिसमें र कई लड़कियां अभी प्रशिक्षण ले रही रही हैं। गांव की कुछ बच्चियों को रात में बिजली न आने की वजह से पढ़ने में दिक्कत होती थी। इसको देखते हुए सुलभ ने गांव के 165 परिवारों को सोलर लैंप भी उपलब्ध करवाया। अब एक तरफ जहां महिलाएं अपने स्वास्थ्य के प्रति जागरूक हो रही हैं और कई समस्याओं से निजात पा चुकी हैं, वहीं दूसरी तरफ गांव की लड़कियां सिलाई सेंटर में स्व-रोजगार के गुण सीख रही हैं। इसके साथ ही अशिक्षा के अंधकार से निकालकर शिक्षा की रौशनी दिखाने के लिए सुलभ, नई दिशा संस्था के माध्यम से लोगों को साक्षर बना रही है। इसका सरार खर्च नई दिशा स्वयं ही वहन करती है। सुलभ ने अपने अथक प्रयासों से बेहद कम समय में यहां के लोगों को मुख्यधारा से जोड़ा है। महिलाएं जहां साक्षर बन रही हैं वही लड़कियां अब स्वाबलंबी बनने की तरफ अग्रसर हैं। गांव के लोग भी खुले दिल से स्वीकार करते हैं कि सुलभ ने कैसे उनके जीवन में खुशियों के रंग घोले हैं।

सुलभ ने मनाया शौचालय दिवस

गांव में स्वच्छता की महत्ता को ध्यान में रखते हुए और पूरे देश में एक संदेश देने के लिए सुलभ ने 19 नवंबर को विश्व शौचालय दिवस इस गांव में ही मनाया। इस अवसर पर सुलभ ने गांव में ही दुनिया के सबसे बड़े शौचालय पाट मॉडल का अनावरण भी किया। इसकी लंबाई 20 फुट व चौड़ाई 10 फुट है। साथ ही इस अवसर पर शंख ध्वनि के बीच 6 नए शौचालयों और गांव के स्कूल के प्रांगण में ही एक वीवीआईपी शौचालय का भी

अनावरण किया गया। डॉ. पाठक कहते हैं कि कहा कि पहली बार विश्व शौचालय दिवस गांव में मनाया जा रहा है। इससे पहले हमेशा ऐसे आयोजन शहरों तक ही सीमित थे। उन्होंने गांववासियों को भरोसा देते हुए कहा कि हम इस गांव को ऐसा बनाएंगे कि सब कहेंगे ट्रंप के नाम पर और गांव भी होने चाहिए। ट्रंप गांव सिर्फ गांव नहीं तीर्थस्थल बनेगा। डॉ. पाठक कहते हैं कि जिस शौचालय तकनीक का आविष्कार हमने किया उससे खुले में शौच की प्रथा समाप्त हो रही है और मैला ढोने की प्रथा भी खत्म हो रही है।

गांव में बदलाव से ही बदलेगा भारत

डॉ. पाठक बताते हैं कि विश्व में 2 अरब 40 करोड़ लोगों के पास शौचालय नहीं है, इसीलिए धनी लोगों का काम है कि वे इनकी मदद करें। डॉ. पाठक ने लोगों से आह्वान करते हुए कहा कि भारत में 650 के आस-पास जिले और करीब 6

लाख 35 हजार गांव हैं, इन सभी जगहों पर लोग आगे आएं और शौचालय बनवाएं, ताकि 2019 में गांधी की 150 वीं जन्मशती पर देश को खुले में शौच से मुक्त घोषित किया जा सके। उन्होंने कहा कि मैं 50 साल से लोगों की सेवा कर रहा हूं, मैंने सुलभ को समस्या का समाधान करने वाला बनाया है, न की सवाल उठाने वाला। सुलभ ने पूरे देश में अब तक 2 करोड़ शौचालयों का निर्माण कराया है। जबकि सुलभ तकनीक और डिजाईन पर आधारित 5 करोड़ 40 लाख शौचालय बनाए जा चुके हैं। साथ ही 8500 से अधिक सुलभ सार्वजनिक शौचालयों एवं स्नानघरों का निर्माण भी सुलभ ने कराया है।

एनआरआई स्वच्छता के लिए करें काम

अमेरिका में सत्ताधारी रिपब्लिकन पार्टी के सदस्य पुनीत अहलूवालिया कहते हैं कि इस तरह की पहल से जनता को सफाई की तरफ बड़े स्तर पर प्रेरित करने में मदद मिलेगी। वे भरोसा दिलाते हैं कि अमेरिका में रह रहे भारतीयों से कहेंगे वे हिंदुस्तान में स्वच्छता के लिए काम करें और शौचालय बनवाएं। वे कहते हैं कि भारत में जो अमेरिकी कंपनियां काम कर रही हैं वो भी अपनी सामाजिक जिम्मेदारी निभाते हुए अपना सीएसआर भारत में स्वच्छता के लिए दें, इसके लिए भी वह प्रयास करेंगे। ट्रंप विलेज को मॉडल विलेज बताते हुए वे कहते हैं कि यह सुलभ के प्रयासों की वजह से ही संभव हो पाया है। अहलूवालिया कहते हैं कि डॉ. पाठक और उनकी टीम, शौचालयों का निर्माण कराकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सपने को पूरा कर रही है। भारत और अमेरिका की दोस्ती का जिक्र करते हुए अहलूवालिया कहते हैं कि गांव को ट्रंप का नाम

जिस शौचालय तकनीक का आविष्कार हमने किया उससे खुले में शौच की प्रथा समाप्त हो रही है और मैला ढोने की प्रथा भी खत्म हो रही है - डॉ. पाठक देकर डॉ. पाठक ने जो सामाजिक और सांस्कृतिक पुल बनाया है, मैं चाहता हूं कि वो ऐसे ही चलता रहे।

सुलभ तकनीक का इस्तेमाल हो हर जगह

सुलभ की शौचालय बनाने की टू पिट पोर फ्लश तकनीक का जिक्र करते हुए अहलूवालिया कहते हैं कि यह तकनीक सिर्फ अमेरिका ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में लगाई जानी चाहिए। क्योंकि यह जैविक है और बहुत आसानी से पूरे परिवार को सुरक्षा देती है। साथ ही वे कहते हैं कि अमेरिका के पिछड़े इलाकों में भी इस तकनीक का इस्तेमाल होने जा रहा है।

टू पिट पोर फ्लश तकनीक

टू पिट पोर फ्लश तकनीक में दो गड्ढों का प्रयोग होता है, जिसमें एक गड्ढे का इस्तेमाल होता है और दूसरा बंद रहता है। एक के भर जाने के बाद दूसरे को खोल दिया जाता है। दो साल में पहले वाले गड्ढे का मल मिट्टी हो जाता है। मल खाद में परिवर्तित हो जाता है। एक आदमी के मल से 1 साल में 40 किलोग्राम खाद बनती है। इस खाद में नाइट्रोजन, पोटेशियम, फास्फोरस और कैल्शियम होता है। यदि चूना मिला दिया जाए तो अति उत्तम खाद बनती है। इसका इस्तेमाल जब खेतों में करते


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आवरण कथा

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कुछ महीने पहले जो गांव स्वच्छता से पूरी तरह अनभिज्ञ था, वह आज खुले में शौच से पूरी तरह मुक्त होकर स्वच्छता के नए मानक स्थापित कर रहा है हैं तो मिट्टी की उर्वरा शक्ति बढ़ती है। ये खाद कृषि के लिए बहुत उपयोगी है। इस खाद में कोई बदबू नहीं होती और इसे आसानी से प्रयोग में लाया जा सकता है। शौचालय से जो पानी निकलता है। उसको भी साफ करके इस्तेमाल में लाया जा सकता है। पानी में भी नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटेशियम होता है। इस पानी को खेतों में भी प्रयोग में लाया जा सकता है। नदियों में छोड़ा जा सकता है, क्योंकि इससे कोई प्रदूषण नहीं होगा।

सरपंच ने सुलभ को दिया श्रेय

4 महीने पहले जो गांव स्वच्छता से पूरी तरह अनभिज्ञ था वह आज खुले में शौच से पूरी तरह मुक्त होकर स्वच्छता के नए मानक स्थापित कर रहा है। गांव के लोग भी इसका पूरा श्रेय सुलभ को देते हैं। सरपंच अब्दुल जब्बार कहते हैं कि गांव में इस बदलाव का श्रेय पूरी तरह सुलभ और डॉ. पाठक को जाता है। जब्बार कहते हैं कि सुलभ से हमने जब अपने गांव के बारे बात की तो उन्होंने हमारी हर समस्या पर ध्यान दिया और उसे बदलने के लिए तैयार हो गए। जब्बार कहते हैं कि खुले में शौच जाने की वजह से सबसे अधिक परेशानी गांव की औरतों और लड़कियों को होती थी, वे जब बाहर अंधेरे में निकलती थीं तो उनके साथ छेड़छाड़ होती थी। लेकिन अब शौचालय बनने के बाद ऐसी समस्याएं खत्म हो चुकी हैं। जब्बार बताते हैं कि शौचालय निर्माण के साथ गांव में रोजगार के लिए ट्रेनिंग सेंटर का खोला जाना बहुत बड़ी बात है। अब हमारे गांव के बच्चे और यहां तक महिलाएं भी रोजगार पा सकती हैं।

टू

टू पिट पोर फ्लश तकनीक

पिट पोर फ्लश तकनीक में दो गड्ढों का प्रयोग होता है, जिसमें एक गड्ढे का इस्तेमाल होता है और दूसरा बंद रहता है।एक के भर जाने के बाद दूसरे को खोल दिया जाता है। दो साल में पहले वाले गड्ढे का मल मिट्टी हो जाता है। मल खाद में परिवर्तित हो जाता है। एक आदमी के मल से 1 साल में 40 किलोग्राम खाद बनती है। इस खाद में नाइट्रोजन, पोटेशियम, फास्फोरस और कैल्शियम होता है। यदि चूना मिला दिया जाए तो अति उत्तम खाद बनती है। इसका इस्तेमाल जब खेतों में करते हैं तो मिट्टी की उर्वरा शक्ति बढ़ती है। ये खाद कृषि के लिए बहुत उपयोगी है। इस खाद में कोई बदबू नहीं होती और इसे आसानी से प्रयोग में लाया जा सकता है। शौचालय से जो पानी निकलता है। उसको भी साफ करके इस्तेमाल में लाया जा सकता है। पानी में भी नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटेशियम होता है। इस पानी को खेतों में भी प्रयोग में लाया जा सकता है। नदियों में छोड़ा जा सकता है, क्योंकि इससे कोई प्रदूषण नहीं होगा।

गांव की बेटी का दर्द हुआ खत्म

गांव में ही रहने वाली रूबीना कहती हैं कि खुले में शौच के लिए जाने वाली गांव की सबसे बड़ी

समस्या अब सुलझ गई है। इससे पहले, बरसात के मौसम में हमें रात के वक्त शौचालय जाने के लिए हमें सौ बार सोंचना पड़ता था, लेकिन अब ऐसा नहीं है। रूबीना कहती है कि मैं इस गांव की बेटी हूं और बचपन से ही, मैंने अपने गांव को देखा है, इससे पहले हमें शौचालय के लिए घर से बहुत दूर जाना पड़ता था। बरसात के मौसम में हमें बच्चों को शौचालय के लिए बाहर ले जाना होता था, जो कि बहुत खतरनाक था। क्योंकि जंगल घर से दूर थे, इसीलिए हमें बच्चों को खेतों में ले जाना पड़ता था। खेतों के मालिक शिकायत करते थे कि वहां अनाज उगाए जाते हैं, तुम शौच के लिए इसका इस्तेमाल नहीं कर सकती, यह हमारे लिए बहुत मुश्किल परिस्थिति होती थी। सुलभ शौचालयों के निर्माण अब हमे ऐसी शर्मिंदगी और समस्याओं से बच गए हैं, जिसके लिए हम डॉ. पाठक के आभारी हैं।

साबरून के चेहरे की खुशी

गांव में सबसे ज्यादा खुश महिलाएं और लड़कियां हैं। गांव की मासूम सी दिखने वाली 15 साल की लड़की साबरून की आंखें नम हो जाती हैं, जब वह पहले के दिनों को याद करती है। साबरून कहती हैं कि कई बार जब हम बाहर जंगल या खेतों में शौच के लिए जाते थे तो सांप या बिच्छू जैसे जंतु काट लेते थे। जब हम बेवक्त शौच के लिए बाहर निकलते थे तो हमें लड़के छेड़ते थे और गंदी-गंदी बातें कहते थे। लेकिन यह एक बड़ा बदलाव है, जो हमारी जिंदगी में आया है। साथ ही अब हमें रोजगार के लिए ट्रेनिंग भी दी जा रही है, अब हम खुद पैसे भी कमा सकते हैं।

शिक्षा की ‘आरती’

आरती गांव की महिलाओं और लड़कियों को कंप्यूटर के माध्यम से पढ़ना और लिखना सिखाती हैं। आरती का कहना है कि वह बच्चों को आंगनवाड़ी ले जाती थीं। एक दिन उन्हें 'नई दिशा' और 'पीपुल टू पीपल इंडिया कंपनी' के बारे में पता चला। दोनों ही संगठन हरियाणा के 21 जिलों में महिलाओं को शिक्षित करने के लिए मिलकर काम कर रहे हैं। आरती बताती हैं कि आंगनबाड़ी में वह इस संस्था के प्रबंधक से मिली थी। उन्होंने आरती से पूछा कि क्या वह अपने गांव की महिलाओं को शिक्षित कर सकती हैं। आरती ने कहा कि वह 10 वीं कक्षा तक पढ़ी हैं और गांव के लोगों को पढ़ने और लिखने में मदद कर सकती हैं। आरती कहती हैं कि पहले मुझे कंप्यूटर का प्रशिक्षण दिया गया। उसके बाद, उन्होंने मुझे 50 महिलाओं को पढ़ाने की जिम्मेदारी दी। अब मैंने यह भी निर्णय लिया है कि मैं अपने गांव की महिलाओं को मदद करूंगी।


26 मार्च - 01 अप्रैल 2018 आरती सुलभ को धन्यवाद देते हुए कहती हैं कि मैं सुलभ के लिए बहुत आभारी हूं कि उन्होंने हमारे गांव में शौचालय बनाए हैं, साथ ही लोगों को आजीविका कमाने के लिए ट्रेनिंग भी दी है।

गांव होने लगा है शिक्षित

सुलभ के प्रयासों से इस गांव के हर शख्स के जीवन में परिवर्तन आया है, चाहे वे बच्चे हों या बड़े। पांचवी क्लास में पढने वाले अब्दुल और

एनआरआई स्वच्छता के लिए करें काम

छाया बिना रुके अंग्रेजी बोलते हैं तो 12 वीं की छात्रा राबिया अंग्रेजी में ही ट्रंप का परिचय देते हैं। लड़कियां अब खुलकर बात करती हैं। गांव में शिक्षा का स्तर बढ़ रहा है। रोजगार के लिए ट्रेनिंग सेंटर पर लड़कियां पढ़ने और सीखने जाती हैं।

'ट्रंप' नाम देने का उद्देश्य हो रहा पूरा दुनिया भर में स्वच्छता और शौचालय निर्माण के

मेरिका में सत्ताधारी रिपब्लिकन पार्टी के सदस्य पुनीत अहलूवालिया कहते हैं कि इस तरह की पहल से जनता को सफाई की तरफ बड़े स्तर पर प्रेरित करने में मदद मिलेगी। वे भरोसा दिलाते हैं कि अमेरिका में रह रहे भारतीयों से कहेंगे वे हिंदुस्तान में स्वच्छता के लिए काम करें और शौचालय बनवाएं। वे कहते हैं कि भारत में जो अमेरिकी

'ट्रंप' नाम देने का उद्देश्य हो रहा है पूरा

दु

निया भर में स्वच्छता और शौचालय निर्माण के लिए प्रसिद्ध हो चुके गांधीवादी डॉ. पाठक का कहना है कि भारत-अमेरिका संबंधों को बढ़ावा देने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति के नाम पर इस गांव का नाम ‘ट्रंप गांव’ रखा। हर किसी को अपने विचारों और कार्यों से आश्चर्यचकित करने वाले डॉ. पाठक कहते हैं कि गांव को ट्रंप नाम देने के पीछे मुख्य उद्देश्य व्यापारियों को प्रोत्साहित करना था जिससे कि समाज के विकास के लिए वे गांवों को अपनाकर गोद ले सकें। इससे राष्ट्रीय स्तर पर स्वच्छता के लिए माहौल बनेगा और दशकों से चली आ रही समस्या का अंत भी जल्द हो जाएगा। डॉ. पाठक कहते हैं कि इसके पीछे एक और वजह यह भी थी कि वैश्विक स्तर पर लोग स्वच्छता का महत्व समझें और इस गांव को भी एक नई पहचान मिले। साथ ही मरोड़ा को भी वैश्विक पहचान मिले और देश में भी विदेशों की तरह स्वच्छता के प्रति जागरूकता आए। डॉ. पाठक ने भारत-अमेरिकी समुदाय से आग्रह किया कि वे भारत में स्वच्छता और स्वच्छता के लक्ष्य को समझते हुए मदद के लिए आगे आएं। मरोड़ा गांव को 'ट्रंप विलेज' के रूप में स्थापित करने के पीछे प्रधानमंत्री मोदी का वह विजन भी है जिसमें वह 2019 में महात्मा गांधी की 150 वीं जयंती पर देश को खुले में शौच से मुक्त घोषित करना चाहते हैं। डॉ. पाठक और

उनकी सुलभ टीम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस प्रमुख अभियान में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है और इसे पूरा करने के लिए हरसंभव प्रयास कर रही है। डॉ. पाठक कहते हैं कि विदेशों में रहने वाले भारतीयों को कम से कम एक गांव, ब्लॉक या जिले को अपनाकर गोद लेना चाहिए और स्वच्छता व विकास के लिए काम करना चाहिए। डॉ. पाठक कहते हैं, “मैं गांधी का अनुयायी हूं, लेकिन मोदी का भक्त हूं, क्योंकि वह गांधी के बाद पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने स्वच्छता और साफ़-सफाई को इतना महत्व दिया, साथ ही वह भारत को खुले में शौच से मुक्त (ओडीएफ) बनाने की कोशिश कर रहे हैं।” शौचालय और स्वच्छता को एक आंदोलन का रूप देने वाले डॉ. पाठक कहते हैं कि गांव में स्वच्छता के प्रति लोगों को जिम्मेदारी का अहसास है और एक बदलाव आ रहा है। साथ ही पूरे देश में अब पहले की अपेक्षा स्वच्छता के लिए लोग ज्यादा मुखर हैं। ऐसा लगता है कि जिस उद्देश्य के साथ हमने ट्रंप विलेज में काम शुरू किया था वह पूरा हो रहा है। बदलाव को बताते हुए वे कहते हैं, “गांव की ही 2 महिलाओं के मायके पक्ष से लोगों ने कहा है कि आपके यहां शौचालय बन गए हैं। अब हमारे यहां की कुछ लड़कियों की शादी अपने गांव में करा दो।” डॉ. पाठक कहते हैं कि जब ऐसी बातें होती हैं तो लगता है कि सच में बदलाव की मीठी बयार बहने लगी है।

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आवरण कथा

लिए प्रसिद्ध हो चुके गांधीवादी डॉ. पाठक का कहना है कि भारत-अमेरिका संबंधों को बढ़ावा देने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति के नाम पर इस गांव का नाम ‘ट्रंप गांव’ रखा। हर किसी को अपने विचारों और कार्यों से आश्चर्यचकित करने वाले डॉ. पाठक कहते हैं कि गांव को ट्रंप नाम देने के पीछे मुख्य उद्देश्य व्यापारियों को प्रोत्साहित करना था जिससे कि समाज के विकास के लिए वे गांवों को अपनाकर गोद ले सकें। इससे राष्ट्रीय स्तर पर स्वच्छता के लिए माहौल बनेगा और दशकों से चली आ रही समस्या का अंत भी जल्द हो जाएगा। डॉ. पाठक कहते हैं कि इसके पीछे एक और वजह यह भी थी कि वैश्विक स्तर पर लोग स्वच्छता का महत्व समझें और इस गांव को भी एक नई पहचान मिले। साथ ही मरोड़ा को भी वैश्विक पहचान मिले और देश में भी विदेशों की तरह स्वच्छता के प्रति जागरूकता आए। डॉ. पाठक ने भारत-अमेरिकी समुदाय से आग्रह किया कि वे भारत में स्वच्छता और स्वच्छता के लक्ष्य को समझते हुए मदद के लिए आगे आएं। मरोड़ा गांव को 'ट्रंप विलेज' के रूप में स्थापित करने के पीछे प्रधानमंत्री मोदी का वह विजन भी है जिसमें वह 2019 में महात्मा गांधी की 150 वीं जयंती पर देश को खुले में शौच से मुक्त घोषित करना चाहते हैं। डॉ. पाठक और उनकी सुलभ टीम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस प्रमुख अभियान में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है और इसे पूरा करने के लिए हरसंभव प्रयास कर रही है। डॉ. पाठक कहते हैं कि विदेशों में रहने वाले भारतीयों को कम से कम एक गांव, ब्लॉक या जिले को अपनाकर गोद लेना चाहिए और स्वच्छता व विकास के लिए काम करना चाहिए। डॉ. पाठक कहते हैं, “मैं गांधी का अनुयायी हूं, लेकिन मोदी का भक्त हूं, क्योंकि वह गांधी के बाद पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने स्वच्छता और साफ़-सफाई को इतना महत्व दिया, साथ ही वह भारत को खुले में शौच से मुक्त (ओडीएफ) बनाने की कोशिश कर रहे

कंपनियां काम कर रही हैं वो भी अपनी सामाजिक जिम्मेदारी निभाते हुए अपना सीएसआर भारत में स्वच्छता के लिए दें, इसके लिए भी वह प्रयास करेंगे। ट्रंप विलेज को मॉडल विलेज बताते हुए वे कहते हैं कि यह सुलभ के प्रयासों की वजह से ही संभव हो पाया है। अहलूवालिया कहते हैं कि डॉ. पाठक और उनकी टीम, शौचालयों का निर्माण कराकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सपने को पूरा कर रही है। भारत और अमेरिका की दोस्ती का जिक्र करते हुए अहलुवालिया कहते हैं कि गांव को ट्रंप का नाम देकर डॉ. पाठक ने जो सामाजिक और सांस्कृतिक पुल बनाया है, मैं चाहता हूं कि वो ऐसे ही चलता रहे।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सपना है कि देश 2019 तक खुले में शौच से पूरी तरह मुक्त हो। सुलभ संस्था इस सपने को साकार करने के लिए अपने अनवरत प्रयासों के माध्यम से काम कर रही है हैं।” शौचालय और स्वच्छता को एक आंदोलन का रूप देने वाले डॉ. पाठक कहते हैं कि गांव में स्वच्छता के प्रति लोगों को जिम्मेदारी का अहसास है और एक बदलाव आ रहा है। साथ ही पूरे देश में अब पहले की अपेक्षा स्वच्छता के लिए लोग ज्यादा मुखर हैं। ऐसा लगता है कि जिस उद्देश्य के साथ हमने ट्रंप विलेज में काम शुरू किया था वह पूरा हो रहा है। बदलाव को बताते हुए वे कहते हैं, “गांव की ही 2 महिलाओं के मायके पक्ष से लोगों ने कहा है कि आपके यहां शौचालय बन गए हैं। अब हमारे यहां की कुछ लड़कियों की शादी अपने गांव में करा दो।” डॉ. पाठक कहते हैं कि जब ऐसी बातें होती हैं तो लगता है कि सच में बदलाव की मीठी बयार बहने लगी है।

गांव की कहानी पर किताब

गांव में स्वच्छता और विकास की कहानियां कहती 'सुलभ मैजिक टॉयलेट' और 'डोनाल्ड ट्रंप विलेज' नाम की दो किताबों का भी लोकार्पण किया गया है। 'सुलभ मैजिक टॉयलेट' में जहां सुलभ शौचालयों की रोचक कहानी और उनकी यात्रा के बारे में है, वहीं 'डोनाल्ड ट्रंप विलेज' किताब में ट्रंप गांव के उन 95 परिवारों की कहानी है जिनके यहां सुलभ ने शौचालय बनवाए हैं। किताब में गांव के एक सदस्य का कहना है कि उनका शौचालय ताजमहल जैसा सुंदर है। एक दूसरे सदस्य ने बताया कि इतनी सुविधा उन्हें पहले कभी नहीं मिली।


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आवरण कथा

26 मार्च - 01 अप्रैल 2018

पहले मरोड़ा अब ट्रंप गांव

परिवारों की खुशी उनकी ही जुबानी अरसे बाद स्वच्छता और स्वावलंबन की नई हवा में सांस ले रहे ट्रंप गांव के लोगों ने सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक के प्रति जताया आभार

सुलभ मैजिक टॉयलेट

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कुछ तो है मेरे नाम से

नसरी इस बात को लेकर खुश है कि कुछ तो है, जो उनके नाम से है। सुलभ द्वारा निर्मित शौचालय पर अपना नाम गर्व से दिखाती और कहती है, ‘आज तक मैंने अपना नाम सिर्फ सुना था, पढ़ा नहीं था।’ पति पहलु का निधन हो गया है। अब वह अपने बेटे-बहू के साथ रहती हैं। शौचालय बन जाने के लाभ के बारे में पूछने पर बताती हैं, ‘कोई एक लाभ हो तो बताऊं! और यह कोई मेरा व्यक्तिगत लाभ नहीं है। पूरे गांव को ही लाभ पहुंचा है। लगता ही नहीं, यह मेरा वही गांव है, जिसकी गलियां कभी शौच से पटी रहती थीं। और यह देखिए, किस तरह मेरे घर से भी सुंदर है यह शौचालय। जिसके बारे में हम कभी सोच भी नहीं सकते थे, वह आज मेरे पास है। जीवन में इतनी बड़ी सौगात मिलेगी, कभी सोचा नहीं था। सुलभ को इसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।’ इस घर के कुल 6 सदस्य शौचालय का इस्तेमाल करते हैं।

सुलभ मैजिक टॉयलेट

सुलभ मैजिक टॉयलेट घर से भी प्यारा है मेरा शौचालय

शादी से पहले अर्शिदा के मायके में शौचालय था। ‘5 साल तक मैंने शौचालय का इस्तेमाल किया है। इससे पहले बाहर ही जाती थी।’ खुर्शीद, जो फेरी लगाकर सूई, बटन और धागा बेचते हैं, से विवाह कर जब अर्शिदा मरोड़ा गांव आईं, तब पता चला कि यहां घर में शौचालय नहीं है। शादी से पहले घर में जब शौचालय बना था तो सोचा था कि चलो, एक बला तो टली, लेकिन क्या पता था, 5 साल बाद फिर वही नरक वाली जिंदगी जीनी पड़ेगी। खुर्शीद से कई बार कहा कि घर में एक शौचालय बना दो, लेकिन हमारे यहां के मर्द तो हम औरतों की कुछ सुनते ही नहीं। जब बच्चे हुए, उस समय की पीड़ा क्या सुनाऊं, लेकिन दुख के वे बादल छंट गए और सुलभ के सौजन्य से मुझे मेरा शौचालय मिल गया, जो मुझे अपने घर से भी प्यारा है।’सुलभ को इसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।’ इस घर के कुल 6 सदस्य शौचालय का इस्तेमाल करते हैं।

सुलभ मैजिक टॉयलेट

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चैन से सो रही है बिटिया

हारूनी, जो अपने शौचालय की मालकिन हैं, के बेटी हुई है। आंगन में खाट के नीचे बने झूले पर दो माह की उनकी बेटी सो रही है। घर पर उनकी मां, जो जच्चा-बच्चा की देखरेख के लिए आई हैं, और हारूनी के अलावा कोई नहीं था। पति लियाकत मजदूर हैं और काम पर गए हैं और बच्चे गांव में खेलने। हारूनी बताती हैं, ‘एक-दो दिन में मां चली जाएगी, फिर तो मैं घर पर अकेली ही रहूंगी। ऐसे में अगर शौच जाने की जरूरत महसूस होती तो बाहर ही जाना पड़ता। बेटी को किस पर छोड़कर जाती? लेकिन आज इस बात की चिंता नहीं है। अब हमारे घर में शौचालय है। इसके रोने की आवाज सुनकर अंदर से भी आ सकती हूं। देखिए, कितने चैन से सो रही है मेरी बिटिया।’

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पहली बार बारिश के मौसम का आनंद ले पाईं

साहुन मजदूर हैं और काम से बाहर गए हैं। पत्नी मिसकिना जंगल से जलावन की लकड़ी और भैंस का चारा लाने गई हैं। पांचवीं कक्षा की छात्र बेटी बिलकिस जो अपना शौचालय दिखाया। बिलकिस से उसकी पढ़ाई की बात हो ही रही थी कि मिसकिना लौट आती हैं। सिर से चारे का गट्ठर नीचे रखती हैं और थोड़ी लंबी सांस लेते हुए हमें बैठने को कहती हैं। बताती हैं, ‘ऐसा पहली बार हुआ कि बरसात के दिनों में घर से बाहर शौच के लिए नहीं जाना पड़ा। पहले तो बारिश के नाम से जी सिहर उठता था। इस बार बारिश का आनंद लिया।’ पति-पत्नी के अलावा घर में चार बच्चे हैं, जो स्कूल भी जाते हैं और अपने घर के शौचालय में भी।

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कभी अपना ही शौच कड़ाही में रखकर फेंका है

शकील पेशे से दर्जी हैं और गांव से दो किलोमीटर दूर नूंह में एक टेलर की दुकान पर कपड़े सिलते हैं, पुरूषों के भी और महिलाओं के भी। वस्त्र से वे औरों का तन ढंककर उसकी इज्जत का सम्मान तो करते हैं, लेकिन चाहकर भी अपनी पत्नी शबाना की अस्मिता के लिए शौचालय नहीं बना सके। शबाना के तीन बच्चे हैं। कहती हैं, ‘जब भी बच्चों का जन्म होता था, 15 से 20 दिन तो अपना ही शौच कड़ाही में लेकर फेंकने जाना पड़ता था। ऐसा नहीं कि शकील घर में शौचालय बनाना नहीं चाहते थे, लेकिन पैसे जुट नहीं पा रहे थे।’ शौचालय बन जाने की खुशी शबाना के चेहरे पर स्पष्ट थी।

सुलभ मैजिक टॉयलेट सुलभ का शुक्रिया

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आज रेहाना की छोटी बेटी को दस्त हो रहा है। सुबह से 2 बजे तक 8 बजे बार उसने टॉयलेट का इस्तेमाल किया। हंसकर कहती है, ‘शौचालय बन जाने का इससे बड़ा लाभ और क्या हो सकता है। मेरा तो पूरा दिन इसको खेतों में डोलाते (आते-जाते) बीतता।’ रेहाना के पति अलताब की चाय की दुकान है। 4 बच्चों का भरणपोषण हो जा रहा है, अल्लाह को इसके लिए शुक्रिया और घर की इज्जत बचाने के लिए सुलभ को शुक्रिया कहते हुए रेहाना अपने नाम में मशगूल हो गईं। रेहाना से मिलकर अच्छा लगा।


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टॉयलेट साफ करने को लेकर घर में होती है बहस

नसरी इस बात को युसूफ के 11 बच्चे हैं, जिनमें 5 की शादी हो गई है। युसूफ, उनकी पत्नी रजीना सहित कुल 8 सदस्य सुलभ शौचालय का इस्तेमाल करते हैं। युसूफ के दो बेटे हैं, जिनकी शादी हो गई है और उनका अपना-अपना शौचालय है। अगर युसूफ के घर वालों को जल्दी होती थी तो वे बड़े भाई के शौचालय का इस्तेमाल कर लेते हैं। परिवार के भरण-पोषण के लिए युसूफ और उनके दो बेटे मजदूरी करते हैं। पानी के लिए टॉयलेट में एक बड़ा-सा डिब्बा रखा है। रजीना कहती हैं, ‘डिब्बा में पानी भरने को लेकर बच्चों में कभी-कभी बहस होती है। लेकिन उनका वह झगड़ा भी अच्छा लगता है कि चलो, टॉयलेट साफ रखने के लिए ही तो झगड़ रहे हैं।’

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तबस्सुम के चेहरे पर मुस्कान है। वे सुलभ के कार्य और गतिविधियों से परिचित है। सुलभ संस्थापक का पूरा नाम तो याद नहीं, हां ‘पाठक साहेब’ को जानती हैं, ‘हमने उनको राखी बांधी है। उन्होंने ही हमारे गांव का नाम ‘ट्रंप गांव’ रखा है।’ तबस्सुम यह भी जानती हैं कि ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति हैं। ‘ट्रंप नाम से ही हमारे गांव में सफाई गलियों में शौच से बचकर निकलना पड़ता था।’ तबस्सुम के पति जबैर मजदूर हैं और उनके शौचालय का उपयोग 6 सदस्य करते हैं।

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शरीफ और उनकी पत्नी कुछ दिनों के लिए अपने रिश्तेदार के घर गए हैं। उनके बच्चों को संभालने शरीफ की बहन मुबीना आई हैं। उन्होंने बताया कि वे शादीशुदा हैं और अपने ससुराल से यहां आई हैं। मुबीना के ससुराल में शौचालय है। ‘पहले भी जब भाभी का बच्चा होने वाला था, तब आई थी कुछ दिनों के लिए। विवश होकर मुझे भी बाहर ही जाना होता था शौच के लिए। बंदर के डर से बच्चे घर के बाहर ही या आंगन में ही बैठ जाते थे। लगता था, अब उल्टी होगी कि तब। अब तो लगा ही नहीं, इसी गांव में आई हूं। गांव में अगर कुछ नजर आ रहा है तो वह है शौचालय।’ कुल 6 सदस्य इस शौचालय का इस्तेमाल करते हैं।

खेतिहर मजदूर रूद्दार की पत्नी मकीना की उम्र 75 साल है। कहती हैं, ‘शौचालय में पहला कदम रखा तो अपने इसी शौचालय में।’ मकीना सांप की दंश झेल चुकी हैं और कई दिन चारपाई से उतर नहीं पाई थीं। तब से खेत वाले लाख गाली देते रहें, वे खेत में ही जाती थीं, झाड़ियों में नहीं गईं। शौचालय बन जाने के बाद का एक वाकाया सुनाती हैं, एक दिन जब मैं शौच के लिए गई तो ना जाने किधर से एक छिपकली आ गई। लगा, मेरे सिर पर ही कूद जाएगी, तब से पहले तसल्ली कर लेती हूं कि छिपकली है या नहीं। और क्या बताऊं, बुढ़ापे में शौचालय का आनंद ले रही हूं।’

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घर में शौचालय इस तरह खड़ा है मानो कासम

बसीरी के पति कासम का निधन होने के बाद बसीरी उन्हें याद करती रहीं। कासम की याद तब और महसूस होती, जब रात में कभी उन्हें शौच के लिए जाना पड़ता था। कहती हैं, ‘कासम जब तक जिंदा थे, रात में शौच लगने पर वही टॉर्च लेकर मेरे साथ सड़क तक आते थे। बहू-बेटी से कभी कहने की जरूरत ही नहीं पड़ी। आज घर में शौचालय इस तरह खड़ा है मानो कासम हो।’ बसीरी अपना टॉयलेट खुद साफ करती हैं। शौचालय दिखाते वक्त अपना टूटा ब्रश देखकर थोड़ा संकोच से कहती हैं, ‘कल खरीद कर लेते आऊंगी।’ बसीरी के टॉयलेट का इस्तेमाल 5 सदस्य करते हैं।

अब खेतों पर पहरे की जरूरत नहीं

होठों पर मुस्कान के साथ था सुलभ, पाठक साहेब और ट्रंप का नाम

शरीफ की बहन मुबीना की जुबानी

सांप का दंश भोग चुकी है मकीना

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घर में ताहिर और उनकी पत्नी सरजिना ही अपना शौचालय साफ करते हैं। कुल 7 सदस्य शौचालय का इस्तेमाल करते हैं। ताहिर मजदूर हैं और जब उनके घर में शौचालय बन रहा था, तब उन्होंने भी कुछ मिट्टी गड्ढे से निकाली थी। बताते हैं, ‘खेतों में जब फसल होती थी, तब परेशानी बढ़ जाती थी। खेत वाले सुबह और शाम पहरेदार की तरह घूमते रहते थे और जो कोई चुपके से खेतों में बैठा होता, उसे पत्थर मारकर भागते थे। उनकी भी विवशता थी और हमारी उनसे भी अधिक। कुछ तो पत्थर खाते रहते, लेकिन बैठे रहते। क्या करते? आज हमारा अपना शौचालय भी है और उनकी फसल भी लहलहा रही है।’ खेत वालों को अब अपने खेतों पर पहरा देने की जरूरत नहीं।

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मेरे भाई के अखबार में मरोड़ा का नाम छपा

शहीद की पत्नी बसगरी का भाई आस मोहम्मद यहां के स्थानीय अखबार में पत्रकार हैं। इस गांव में जब सुलभ द्वारा आयोजन हुआ था तो वह भी आए थे। तब उन्होंने बसगरी से कहा था कि अखबार में मरोड़ा गांव की कभी चर्चा नहीं सुनी। ‘कुछ तो होता,जो खबर बनती और देखो, आज तुम्हारे गांव का नाम मेरे अखबार में है।’ शहीद बेलदार हैं और 6 बच्चे हैं। बसगरी बताती हैं कि रात में मैं शौच जाने के लिए सास को परेशान ना करूं, इसीलिए वे मुझे शाम को ही जाने की जिद करती थीं। मैं जाती तो थी, मगर बिना शौच किए लौट आती थी और तब रात को जरूर शौच लगती। सास कहती, यह सिर्फ मुझे परेशान करने का तरीका है। बसगरी अपना फोटो नहीं चाहती।

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सबसे साफ घर और सबसे साफ शौचालय

पूरे गांव में अगर सबसे साफ-सुथरा घर है तो बेझिझक वह ओमप्रकाश और उनकी पत्नी असरफी का है। गोबर और मिट्टी से लिपा घर। आंगन में धूप में सूख रहे चमकदार बर्तन और उससे भी साफ उनका शौचालय। ओमप्रकाश वाल्मीकि समुदाय से आते हैं। एक समय था, जब दोनों गांव के घर में मवेशियों का गोबर हटाने और नाली साफ करने का काम करते थे। बदले में दो जून की रोटी मिल जाती थी। ओमप्रकाश अभी एक पेट्रोल पंप पर सफाई का काम करते हैं और असरफी से अब गांव की सफाई का काम नहीं होता। कहती हैं, ‘अब अपना घर साफ रख लेती हूं, इतना ही काफी है।’


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गलियां साफ हो गईं

साबिर की पत्नी अलिमन बताती हैं कि किस तरह उनकी गली बच्चों के शौच से भरी रहती थी। ‘मेरी क्या, गांव की सभी गलियों का यही हाल था। और कौन किसको मना करता, सबके घर में छोटे-छोटे बच्चे हैं। शौच तो शौच है, क्या बड़ों का, क्या छोटों का। हवा चलती तो नाक बदबू से भर जाती। शौचालय बन जाने से सबसे बड़ा कायाकल्प तो हमारे गांव की गलियों का हुआ है। अब अंधेरे में भी कहीं आ-जा सकते हैं, बिना यह सोचे कि पैर में शौच न लग जाए। शौचालय क्या होता है, कैसा होता है, यह मैं जानती तक नहीं थी। खेत और जंगल ही तो हमारा शौचालय था। हम तो इतने गंदे थे कि बिना पानी के भी शौच हो आते थे।’ साबिर के तीन बच्चे हैं और कुल 5 सदस्य इसका उपयोग करते हैं।

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हसीना का शौचालय जब बन रहा था, उसी दौरान जब वे एक दिन शौच के लिए जा रही थीं, एक दुर्घटना हो गई। बारिश का मौसम था और खेत तक जाने का रास्ता कीचड़ से भरा था। फिसलकर गिर गईं और हाथ टूट गया। उन बुरे दिनों को झटकती हुई कहती हैं, ‘धन्यवाद देती हूं सुलभ को कि उसने मेरा ईलाज कराया। और अब मुझे और परिवार को कितनी बड़ी राहत है, कैसे बयां करूं! वैसे इस तरह की घटना इस गांव के लिए कोई नहीं तो है नहीं। अब तो नहीं, पहले इस गांव में आते तो एक-दो लोग ऐसे जरूर दिख जाते, जिनका हाथ-पैर टूटा है। और यह रात-विरात शौच जाने के कारण’ हसीना के पति रिक्शा चलाते हैं। घर में 4 सदस्य हैं। लड़का नूंह में एक सेंटर पर कंप्यूटर सीख रहा है और लड़की सुलभ के ट्रेनिंग सेंटर में सिलाई का काम सीखती है।

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दो साल की नजमा भी शौचालय में जाती है

असमा की दो बेटियां हैं। एक दो साल की और दूसरी छह माह की। कहती हैं, ‘हम बड़े तो क्या, गांव के छोटे-छोटे बच्चे भी शौचालय जाने लगे हैं। अब मेरी दो साल की बेटी नजमा को ही ले लीजिए, अभी दो साल की है और खुद से शौचालय में जाती है। छोटी बेटी का शौच भी शौचालय में ही साफ करती हूं। पति इरफान मजदूर हैं। कभी काम मिलता है, कभी नहीं। बामुश्किल तो घर चलता है। शौचालय की कमी तो खलती थी, लेकिन घर में अपना शौचालय होगा, यह तो ख्वाब में भी नहीं सोचा था। मायके से भाई आया था मिलने। शौचालय देखकर चकित होकर बोला, ‘शौचालय भी कहीं इतना सुंदर होता है!’

काश! नगमा जिंदा होती

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इशार रिक्शा चलाते हैं और बेटा शौकीन घर में डेंटिंग-पेंटिंग का काम करता है। पत्नी का निधन हो गया। आग में जलकर मौत हुई थी उसकी। आज उन्हें सिर्फ इस बात का मलाल है कि ‘पत्नी नगमा को अपना शौचालय नहीं दिखा सका। उसे वह सुविधा नहीं दे सका, जिसकी वह हकदार थी।’ बेटा शौकीन के लिए घर में शौचालय का होना एक सरप्राइज की तरह था। जब घर में शौचालय बनने की बात हो रही थी, वह फरीदाबाद के एक अपार्टमेंट में काम करने चला गया था। तीन महीने बाद जब वह लौटा तो देखा कि उसके घर में शौचालय बनकर तैयार है। उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा कि उसके नहीं रहने पर भी घर में इतना सुंदर और मजबूर शौचालय बन गया।

इस्लामी का कमोड

खेतिहर मजदूर रजमान की 70 वर्षीया पत्नी इस्लामी पहले कभी खेत, जंगल और सड़क किनारे शौच के लिए जाती थीं, आज सुलभ द्वारा निर्मित शौचालय का प्रयोग कर रही हैं। पथरी का ऑपरेशन हुआ है। टॉयलेट में बैठ नहीं पा रही हैं, सो बेटों ने प्लॉस्टिक की एक कुर्सी का सीट गोलाकार काटकर उसे कमोड का रूप दे दिया। चार बहुएं हैं, जो पास में ही रहती हैं। उनमें से कोई न कोई कुर्सी को टॉयलेट सीट पर रख देता है और इस्लामी को उस पर बिठा देता है। ऑपरेशन की पीड़ा तो चेहरे पर है, लेकिन कहती हैं, ‘अगर यह शौचालय नहीं होता तो कैसे जाती सड़क पर, जहां बार-बार उठना-बैठना पड़ता था।’

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घर का कलह बंद हो गया

हाथ-पैर टूटना आम बात थी

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आराम भोगने वालों के सामने अगर कष्ट आता है तो वह दोगुना हो जाता है बाबू। मेरे मायके में शौचालय था। करम की जली थी, जो ऐसे घर में शादी हुई, जहां शौचालय नहीं था। खूब झगड़ी थी अपने अब्बू और भाइयों से। यहां भी उनसे शुरू में झगड़ा हो ही जाता था। सुबह-सुबह ही उनको अपना सैलून खोलना होता था। दिन के लिए रोटी बनाने में जब देर होती तो उधर वे चिल्लाते और इधर मैं। कहती, ‘तुम तो मर्द हो, कहीं बैठ जाओगे, हमें तो दूर जाना होता है।’ गुस्सा बच्चों पर भी उतरता था। लेकिन सारा फसाद ही बंद हो गया बस एक शौचालय बन जाने से।’ ये हैं साजिद की पत्नी साजिदा, जो एक सांस में अपना दुख सुख दोनों बयां कर गईं।

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पानी का बोतल एक साथ में लेकर नहीं जाती थी

‘झाड़ियों में, सड़क पर जब मैं बैठी होती तो लगता, आसपास से गुजरने वाले सारे मर्द मुझे ही देख रहे हैं, जबकि ऐसा नहीं भी होता था। घर से जब भी शौच के लिए निकलती तो लगता, सब मेरे पीछे-पीछे आ रहे हैं। इसीलिए मैंने पानी का बोतल भी साथ ले जाना छोड़ दिया। बच्चे जब छोटे थे तो उनका साथ ले जाती थी, ताकि लोग यह समझे कि मैं बच्चे को शौच कराने ले जा रही हूं।’ यह व्यथा है अनिशा की, जो मुबारिक की पत्नी हैं। अनिशा 5वीं पास हैं। उनके 4 बच्चे हैं। कहती हैं, ‘हार्पिक तो थोड़ा महंगा है। फिनाइल से ही अपना शौचालय साफ करती हूं।’

सुलभ मैजिक टॉयलेट गांव का नया नाम पसंद है

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कासम की मां बसीरी को किसी ने बता दिया कि बिना गैस पाइप के शौचालय बनाने से गैस गडढे में जमा हो जाएगा और फिर एक दिन ब्लॉस्ट भी हो सकता है। उनकी इस समस्या का समाधान हमारे सहयोगी नसीम और सरोज ने वहीं कर दिया और उन्हें बताया कि सुलभ की जो तकनीक है, उसमें मल की गैस मिट्टी में ही मिल जाती है। अगर हम इस गैस को बाहर हवा में छोड़ेंगे तो पर्यावरण दूषित होगा। बसीरी आश्वस्त हुईं। मरोरा का नया नाम ‘ट्रंप गांव’ उन्हें पसंद है।


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थोड़ा मस्ती भी

शौचालय संख्या 23 बसीरी का है। बसीरी बीमार हैं और डॉक्टर के पास गई हैं। साथ में उनके पति भी गए हैं। घर पर दो शरारती बच्चों से ही मुलाकात होती है-कैफ और उसकी बहन नसीमा से। वे अपना शौचालय मुझे दिखाते हैं और यह पूछने पर कि तुम लोग अब तो शौच के लिए बाहर नहीं जाते, दोनों ने एक-दूसरे को देखा, मुस्काए और एक-दूसरे पर आरोप लगाने लगे कि यह बाहर जाता है तो यह बाहर जाता है। साबुन से हाथ धोने की बात पूछने पर भी वही लहजा, वही भाषा। हमने भी उनका खूब मजा लिया। कुल 4 सदस्य इस शौचालय का इस्तेमाल करते हैं।

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मुकेश चुनाई का काम करते हैं। काम के ही सिलसिले में एक सप्ताह से कहीं बाहर गए हैं। घर पर ललिता और उनके बच्चे हैं। सब्जी बन गई है। और अब बस रोटी बनानी बाकी है। कहती हैं, ‘शाम 5 बजे तक खाना बना लेती हूं। बिजली शायद ही कभी-कभी आती है इसीलिए। जबसे हमारा शौचालय बना है, मेरी दिनचर्या ही बदल गई, वरना इस वक्त तो हम खेतों की ओर निकलने की तैयारी कर रहे होते। लाख-लाख शुक्रिया सुलभ का, जिसने हमारे लिए यह शौचालय बनवा दिया।’

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महिलाओं को जागरूक बनाती आरती

सुलभ ने गांव का दृश्य ही बदल दिया

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मनोज फर्नीचर बनाने का काम करते हैं। अपनी पत्नी सविता के बारे में कहते हैं कि जो काम सविता के लिए मुझे करना चाहिए था, वह सुलभ ने कर दिया। मनोज बताते हैं कि सुलभ जैसा सुंदर और अच्छी तकनीक वाला शौचालय तो नहीं बनवा सकता था, लेकिन हां, घर में एक शौचालय बनाने की स्थिति में मैं था, लेकिन मानसिकता नहीं थी। महिला तो महिला, हम पुरूषों ने भी कष्ट सहा है, लेकिन उसका समाधान नहीं निकल पाए। सुलभ का हमारे गांव में आना क्या हुआ, पूरा दृश्य ही बदल गया।

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हरिओम का घर। हम थोड़ा थक गए थे। चाय पीने का आग्रह भी था, सो हम खाट पर बैठ गए। कुल 8 सदस्य इनके शौचालय का उपयोग करते हैं। हरिओम को छोड़कर लगभग पूरा परिवार घर पर ही था। बातचीत में हरिओम की पत्नी अनीता ने हसंकर ही बताया, ‘शौचालय अगर गंदा होता है तो बेटी निशा की वजह से। पानी नहीं डालती।’ निशा की मां की यह बात बुरी लग गई। गुस्से में उठी, बाल्टी में पानी लाया और ब्रश से टॉयलेट साफ करने लगी। भाई अभय ने चुटकी ली और कहा, ‘रोज करना होगा।’ निशा ने कहा, ‘तुमने कभी ब्रश को हाथ लगाया है क्या?’ और फिर मां की ओर पलटकर बोली, ‘हो गया न संतोष।’

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सतवीर के शौचालय का इस्तेमाल उनके परिवार के 6 सदस्य करते हैं। सतवीर को आज काम नहीं मिला। घर पर ही हैं। बरसात के दिनों में शौच जाने को लेकर हुई परेशानी के बारे में बताते हैं कि रात का समय था और मैं दस्त से परेशान था। बार-बार जाना पड़ रहा था। रात के करीब 11 बजे होंगे। घर से निकला तो टॉर्च भी नहीं था। गड्ढे में पांव पड़ा और गिर पड़ा। कमर में ऐसी चोट आई कि कई दिनों तक उठ नहीं सका। जब मेरा शौचालय बन रहा था, तब मैं उन्हीं दिनों को याद कर रहा था। कहते हैं, हम मर्दों के लिए भी राहत बनकर आया है यह शौचालय।

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राधे किसन की बेटी आरती ने हाल ही में अपनी मां को खोया है, लेकिन अपना मकसद नहीं। हर रोज दोपहर तीन बजे आरती के घर में वे महिलाएं आती हैं, जो साक्षर नहीं है। 10वीं पास आरती साक्षरता अभियान की प्रेरक हैं और लैपटॉप के माध्यम से फिल्म और गाने के जरिए महिलाओं को साक्षर बनने के लिए प्रेरित करती हैं। और जबसे गांव में शौचालय बना है, तबसे महिलाओं को शौचालय के लाभ के बारे में बताती हैं। बताती हैं, किस तरह बाहर शौच करने से ना सिर्फ आप बीमार पड़ती हैं, बल्कि पर्यावरण भी प्रदूषित होता है।

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गुस्से में ही सही

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हम मर्दों के लिए भी राहत बनकर आया शौचालय

रामचंद्र के घर में पहले से एक शौचालय है। पिता गंगादास जब बूढ़े हो गए और बीमार रहने लगे तो घर में एक काम चलाऊ शौचालय बना दिया गया था, जिसमें सिर्फ गंगादास ही जाते थे, घर के शेष लोग बाहर, ताकि गड्ढा भर ना जाए। रामचंद्र बताते हैं, ‘जब सुलभ शौचालय बन गया तो पिता गंगादास ने भी पुराने वाले शौचालय में जाना छोड़ दिया। मेरे यहां तो कोई रिश्तेदार जब आता है तो उसे जरूरत महसूस हो या ना हो, एक बार शौचालय में जरूर जाता है। हालचाल पूछे, ना पूछे, शौचालय के बारे में जरूर पूछता है।’

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प्रियंका सोनू की पत्नी हैं। पति काम पर और बच्चे जब स्कूल चले जाते हैं तो टीवी देखती हैं। उसी के माध्यम से उन्हें पता चला कि पूरे देश में स्वच्छता अभियान चल रहा है। देश के सभी घरों में शौचालय बनने हैं। और जो भी शौचालय बन रहे हैं, उनमें उपभोक्ता को भी कुछ पैसे देने होते हैं। ट्रंप गांव की यह प्रियंका, टीवी पर घर में शौचालय बनाने के विज्ञापन में अभिनय करने वाली प्रसिद्ध हीरोइन विद्या बालन और प्रियंका भारती को भी जानती हैं, लेकिन सिर्फ जानती हैं। शौचालय बनाने को लेकर कभी सोनू से नहीं कहा। जानती थी कि मेरे कहने से कुछ होगा भी नहीं, पता नहीं, हमारे गांव की किस्मत कैसे चमकी कि बिना हाथ-पांव चलाए हमारे घर में शौचालय बन गया।

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रिश्तेदार शौचालय की चर्चा जरूर करते हैं

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बिना हाथ-पांव चलाए घर में बन गया शौचालय

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सुलभ और ट्रंप को लाख-लाख शुक्रिया

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अब शौचालय का महत्त्व समझने लगा हूं

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महावीर बच्चों को अच्छी तालीम दे रहे हैं। बेटी सरोज 12वीं पास है और कंप्यूटर की ट्रेनिंग ले रही है। बेटा भी 12वीं में पढ़ रहा है। महावीर को यह इल्म नहीं था कि इस शिक्षा से पहले स्वच्छता का पाठ जरूरी है। बेटी जब बड़ी हुई तो उसने कहा भी था कि घर में शौचालय बनवा दो, बाहर जाते शर्म आती है। लेकिन बात अनसुनी कर दी गई। देर से ही सही, शौचालय का लाभ अब हमें समझ में आने लगा है। इस परिवार के कुल 6 सदस्य शौचालय का इस्तेमाल कर रहे हैं।

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शौचालय से अब सम्मानित महसूस करते हैं

पिछले कुछ महीनों से दयाकिशन, उनकी पत्नी धर्मवती और चार बच्चे शौचालय का इस्तेमाल कर रहे हैं। पानी की समस्या है। घर में पानी का कुंडा नहीं बना है। सप्लाई के पानी पर निर्भर रहना पड़ता है। बावजूद इसके यह परिवार अपने शौचालय का इस्तेमाल करता है और उसकी सफाई भी करता है। धर्मवती कहती हैं, ‘सुलभ ने गांव की महिलाओं की लाज रख ली। इससे पहले हमें इतना बड़ा सम्मान नहीं मिला था। अब हम भी गर्व से कह सकते हैं कि मेरे घर में ही नहीं, पूरे गांव में शौचालय है।’


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अब हमें बाहर जाने में शर्म आती है

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सबसे पहले दादी ने शौचालय का इस्तेमाल किया

शौचालय की बात पर किशनचंद्र का सच बाहर आ जाता है। कहते हैं कि बाहर खुले में बैठकर शौच करने की जो आदत थी, वह बनी ही रहती, अगर प्रशासन के लोग खुले में बैठने से नहीं रोकते, जुर्माना नहीं लगाते। हम लोग शहर में अपने रिश्तेदारों के यहां जब जाते थे तो रात को ठहरते नहीं थे और अगर ठहरते थे तो पहले पता लगा लेते थे कि क्या यहां शौच के लिए बाहर जा सकते हैं। लेकिन अब इस शौचालय का इस्तेमाल करते-करते आदत पड़ गई। बाहर जाते हुए शर्म आती है। इस घर के 5 सदस्य सुलभ शौचालय का इस्तेमाल करते हैं।

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बादल और मोहित को छोड़कर कोई नहीं था घर पर, पिता राजकुमार चुनाई के काम से निकले हैं। सास सरस्वती और बहू विमला किसी रिश्तेदार के घर गई हैं। मोहित ने कहा, ‘पापा का कोई ठीक नहीं, कभी आते हैं, कभी नहीं भी आते हैं।’ मोहित ने ही बताया, ‘शौचालय बनने से पहले हम सभी शौच के लिए खेतों में जाते थे। मां और दादी झाड़ियों में। जब हमारा शौचालय बना तो सबसे पहले उसका इस्तेमाल दादी ने किया। जब वो शौचालय में जा रही थीं तो हम सभी बाहर ही खड़े थे।’

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बेटी की शादी शौचालय वाले घर में करूंगी

ताराचंद की पत्नी राजबाला कहती हैं कि मुझे ‘इस बात की खुशी है कि गांव की बेटियां और बहुएं शौचालय का इस्तेमाल कर रही हैं। मेरी बेटी कहती है कि ‘मां, मेरी शादी उसी घर में करना, जिस घर में शौचालय हो। मैं अपनी बेटी की शादी उसी घर में करूंगी’ जिस घर में शौचालय होगा।’ पहले जब मैं बाहर शौच के लिए जाती थी तो हमेशा पेट की समस्या बनी रहती थी। शौचालय बनने के बाद मैं स्वयं को स्वस्थ महसूस कर रही हूं।’

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सुशीला ने शौचालय पर लिखा अपना नाम शायद अब तक सुधार लिया हो। सुशीला 5वीं पास हैं और अपने नाम में अशुद्धि देखकर उन्हें खटकता था। दरअसल वहां उनका नाम ‘शुशीला’ लिखा है। कहती हैं, ‘मैंने काले रंग से इसे ठीक करने की सोची, लेकिन नहीं किया कि कहीं सुलभ के लोग कुछ कह ना दें।’ मैंने कहा, ‘आप स्वयं ठीक कर लें।’ कहती हैं, ‘जब शौचालय पर एक धब्बा नहीं लगा है तो नाम भी क्यों गलत हो।’ घर में कुल 7 सदस्य हैं, जो शौचालय का इस्तेमाल करते हैं।

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शेर सिंह चुनाई का काम करते हैं। शहर के कई घरों में खुद शौचालय बनाने का काम किया है उन्होंने। यह भी सोचा करते थे कि काश! मेरे घर में भी शौचालय होता। लेकिन आर्थिक तंगी ने उनका यह सपना कभी पूरा नहीं होने दिया। पत्नी वीणा ने बताया कि ‘वे हमें शौचालय के बारे में बताते थे कि किस तरह यह एक जरूरत है। ईश्वर ने हमारी सुन ली और आज हमारे घर में सुलभ शौचालय है। हमारे घर में 6 सदस्य हैं और सभी को अपना शौचालय पसंद है।’

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पड़ोसियों के लिए भी खोल रखा है अपना शौचालय

शौचालय नंबर 37 सूटर का है और वो अभी कहां गई हैं, किसी को नहीं पता। पड़ोसी अमीना बताती हैं कि शायद जलावन की लकड़ी लाने गई हों। कब जाती हैं, कब आती हैं, यह किसी को पता नहीं होता। अकेली हैं, पति श्रीराम का निधन हो गया है। इस शौचालय का उपयोग वे खुद करती हैं और कोई नहीं है यहां उनका। कभी-कभी जब हमारा शौचालय व्यस्त रहता है तो हम महिलाएं भी उनके शौचालय का उपयोग कर लेती हैं।

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खेतों में डोलना ही हमारा काम रह गया था

कभी खुद, कभी सास को तो कभी बेटियों को बाहर डोलाने ले जाना, यही काम था मेरा। दिन में चार-पांच बार तो यही होता था। खाना बनाऊं कि पाखाना कराने सबको ले जाऊं। जिंदगी नरक बनकर रह गई थी। बरसात और रात का भय अलग। मर्दों का घूरना अलग। परेशानी की कोई एक सीमा हो, तब तो बताऊं। पति रतनकुमार मजदूर हैं और इतना पैसा नहीं कि अपना शौचालय बना सकें। कौशल का यह दर्द गांव की अन्य महिलाओं से कुछ अलग नहीं था, बस, बात कहने का लहजा अलग था। रतनकुमार के घर के 8 सदस्य उनके घर में बने शौचालय का उपयोग करते हैं।

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मुकेश का शौचालय गांव के मेहमानों के लिए भी

दूसरों का शौचालय बनाता रहा, लेकिन खुद का नहीं

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शौचालय पर एक धब्बा नहीं तो नाम क्यों गलत हो

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गांव में प्रवेश करते ही पहला शौचालय मुकेश कुमार का है। उनके शौचालय का जो रंग है, वह पूरे गांव में चमक रहा है। मुकेश कुमार का यह पुश्तैनी मकान है। यहां उनकी खेती-बारी है। और मुकेश का दिन यहीं खेती के काम में ही गुजरता है। पूरा परिवार नूंह में रहता है। ट्रंप गांव होने के बाद इस गांव में आने-जाने वालों का तांता लग रहता है। खासकर मीडिया के लोगों का। मीडिया के लोग जब भी इस गांव में आते हैं उन्हें अगर शौचालय का प्रयोग करना है तो वे मुकेश कुमार के शौचालय का ही इस्तेमाल करते हैं।

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यह खुदा की इनायत है

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अली मोहम्मद की उम्र 80 वर्ष के लगभग है। बूढ़ी पतनी मायके गई हैं। बताते हैं, ‘हमारी बहू के घर में, जो पड़ोस में ही रहती हैं, शौचालय है। वो हमें भी उसका इस्तेमाल करने को कहती थीं, लेकिन जिस शौचालय में बहू-बेटी जाती हैं,उसमें मैं कैसे जा सकता? इस उम्र में मुझे अपना शौचालय मिल गया, खुदा की इससे बड़ी इनायत क्या हो सकती है? मैं और मेरी बुढ़िया ही इसका इस्तेमाल करते हैं।’

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अब घर में ही बैठने की जगह मिल गई

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इकराम और गुफरान दोनों भाइयों का अपना-अपना शौचालय है। और दोनों की पत्नी सगी बहनें हैं। दोनों के मायके में पहले से शौचालय था और जब ब्याह कर यहां आई तो घर में शौचालय नहीं देखकर पहले तो निराश हुईं और फिर बाहर शौच जाने के लिए विवश। बताती हैं, ‘अकेली औरत को देखकर लड़के उनके पीछेपीछे तक जाते थे। तब समझ में नहीं आता था कि कहां बैठूं। अब अपने ही घर में बैठने की जगह मिल गई। आज हम उन चिंताओं से मुक्त हैं, हमारे घर में भी सुलभ शौचालय है, एक नहीं, दो-दो।’


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शौचालय में पहली बार निवृत्त नहीं हो पाई

शिवचरण मजदूर हैं। बहू लक्ष्मी को छोड़कर सभी काम पर निकले हैं। लक्ष्मी भी सभी को विदाकर घर का काम समेट रही हैं। कहती हैं, ‘पहले जब जलावन की लकड़ी लाने जंगल जाती थी तो वहीं शौच से भी निवृत्त हो लेती थी। जंगल तो आज भी जाना होता है, लेकिन अब सिर्फ और सिर्फ लकड़ी चुनने। सुलभ ने इतना अच्छा शौचालय बनाकर दिया, वह भी मुफ्त में, मेरे लिए इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है?’

इलयास की पत्नी खुर्शीदन घर पर मिलती हैं। कहती हैं, ‘जब शौचालय बन रहा था तो सोच रही थी कि जिस तरह का शौचालय घरों में देखा है, वैसा ही कुछ होगा, उपेक्षितसा घर के एक कोने में। लेकिन जब बनकर तैयार हुआ तो दंग रह गई। लगा, रोशनी हो गई हो आसपास। जब शौचालय के अंदर गई तो यही सोचती रही, इतनी साफ जगह पर शौच कैसे करूंगी।’ हंसकर फिर से कहती हैं, ‘मेरे लिए यह ‘ताजमहल’ जैसा है। और मैंने उसी दिन कसम खा ली कि कुछ भी हो जाए, इस पर दाग भी नहीं लगने दूंगी’

सड़क पार करना मुश्किल काम था

जाहिद पास के ही एक प्राइवेट स्कूल में शिक्षक हैं, यहां अपनी पत्नी और दो भाई के साथ रहते हैं। पत्नी गर्भवती हैं और मायके में हैं। कुल 5 सदस्य शौचालय का इस्तेमाल करते हैं। जाहिद का घर स्टेट हाइवे के पास ही है। कहते हैं, ‘किसी भी गाड़ी की रफ्तार यहां 60 से अधिक ही रहती है। शौच के लिए सबको सड़क पार करना ही होता है। जहां तक मुझे याद है, अब तक चार-पांच बच्चे और बूढ़े तो गाड़ी की चपेट में आ गए हैं। सड़क पार करना सबसे बड़ा जोखिम था। और यह समस्या सुलभ ने सुलझा दी।’

अमेरिका के ट्रंप ने उनका शौचालय बनवाया है, ऐसा विश्वास के साथ कहना है महबूबी का। घर में ससुर हैं, जो बीमार चल रहे हैं। पति फारूक का निधन हो गया है। बताती हैं, ‘जब शौचालय गांव में नहीं था, तब आसपास की महिलाएं और लड़कियां मेरे दरवाजे पर ही सुबह-शाम इकट्ठा होती थीं और फिर हम साथ निकलते थे। अब भी जुटती हैं दोपहर को, पड़ोस की शिकायतों और हंसी-ठहाकों के साथ। शौचालय ने हमारी जिंदगी बदल दी।’

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शौचालय का सबसे बड़ा लाभ मेरे स्वास्थ्य को मिला

पवन मजदूर हैं। पत्नी भी खेतों में काम से निकली हैं। घर पर पवन का छोटा बेटा अजय ही अपना शौचालय दिखाता है। वह बताता हैं, ‘जब गांव में शौचालय बन रहा था तो हमारे गांव के मजदूरों को काम मिल गया था। अपना ही शौचालय बनाने में अपना श्रम देकर वे पैसा भी कमा लेते थे। जब तक मेरा शौचालय बना, पिताजी को काम की तलाश में बाहर नहीं जाना पड़ा। कुछ दिनों के लिए ही सही, आर्थिक तंगी का सामना नहीं करना पड़ा हमें।’

संजय फल विक्रेता हैं। उनकी पत्नी 12वीं पास हैं और हाउस वाइफ हैं। बताती हैं, ‘घर में आप लाख सफाई कर लें, मगर हम बाहर गंदगी फैलाएंगे तो वह किसी न किसी रूप में हमारे घर में ही तो आएगी। मेरे मायके में शौचालय था, यहां सास के साथ विवशता में बाहर जाना पड़ा।’ पूनम कहती हैं, ‘गांव का कायाकल्प ‘ट्रंप गांव’ बनने के बाद ही हुआ। शौचालय बनने का सबसे अधिक लाभ मेरे स्वास्थ्य को मिला है। पहले हर महीने कभी उल्टी तो कभी दस्त से परेशानी रहती थी। डॉक्टर का चक्कर लगाकर आती और फिर शौच के लिए बाहर जाती। अब उन दिनों से मुक्ति मिल गई है।’

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मेरा शौचालय कोई और साफ करे तो संतोष नहीं होता राजपाल की पत्नी मूर्ति को अपना शौचालय साफ रखना पसंद है। बेटी मोनिका अगर साफ भी कर दे तो उन्हें संतुष्टि नहीं होती और फिर से उसे साफ करती हैं। इन दिनों आंख का ऑपरेशन हुआ है और वह शौचालय साफ नहीं कर पा रही हैं। सुलभ को धन्यवाद देते हुए वह कहती हैं कि ‘आज अगर शौचालय नहीं होता तो क्या करती। कैसे बाहर जाती?’

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ट्रंप ने बनवाया है मेरा शौचालय

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आर्थिक तंगी भी दूर हुई थी

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खुर्शीदन का ‘ताजमहल’

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जंगल आज भी जाती हूं, लेकिन सिर्फ लकड़ी चुनने

जाखरा के नाम से ही उनका शौचालय है। पति बशीर का निधन हो गया है। बेटा इमरान और बेटी सुम्मया तथा रिजवान स्कूल जाते हैं। घर पर मां नहीं है, बेटी सुम्मया कहती हैं, ‘जब शौचालय बना तो मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे जाऊं। जब जाना हुआ तो रात हो गई थी। खैर, किसी तरह दीपक जलाकर गई। तो काफी देर यूं ही बैठी रही। शौच नहीं हुआ, लेकिन दूसरे दिन जब गई तो निवृत्त हुई। शौचालय के बड़े से डिब्बे में पानी भरना मेरा पहला काम है।’

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आवरण कथा

सुलभ मैजिक टॉयलेट बच्चों को शौचालय में बैठना सिखाया

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उषा अमर सिंह की बेटी है और उसे अपना नया-नया बना शौचालय बेहद पसंद है। घर के कुल 8 सदस्य इस शौचालय का प्रयोग करते हैं, लेकिन उसकी सफाई का जिम्मा उषा का है। कहती है, ‘हमें इतना अच्छा शौचालय मिला है तो हमें इसकी कद्र करनी चाहिए। अगर हम अपना शौचालय ही साफ नहीं रखेंगे तो फिर इसका क्या फायदा। घर के छोटे बच्चों को शौचालय में बैठाना मैंने ही सिखाया है। अब तो वे भी शौच के बाद टॉयलेट में पानी डालना नहीं भूलते।’

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पुरूष और महिलाओं का अलग-अलग शौचालय

सोहन लाल और बेटे राम सिंह का अपना-अपना शौचालय है। सोहन लाल के शौचालय का इस्तेमाल वे खुद, उनका बेटा राम सिंह और बाहर से आए रिश्तेदार और मेहमान करते हैं। सोहन लाल कहते हैं, ‘जब हम बाहर जाते हैं, तब भी महिलाओं और पुरूषों में एक दूरी होती थी। महिलाएं इस छोर तो पुरूष उस छोर पर बैठते थे। अच्छा नहीं लगता कि जिस शौचालय में बहू-बेटी जाएं, उसी में हम भी।’ बेटे राम सिंह के शौचालय का इस्तेमाल बहुएं और बेटियां करती हैं।


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आवरण कथा

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एक ही चिंता थी, शौच के लिए कहां जाएं

अब तो बस जाओ और आओ

दीपचंद जब बाहर शौच के लिए जाते थे तो खेत वालों से अक्सर उनका झगड़ा हो जाता था। फिर वे सड़क किनारे जाने लगे। पूरे दिन सिर्फ यही चिंता थी कि शौच के लिए कहां जाएं। खाने का तो ठीक नहीं, शौचालय बनवाने की बात कैसे सोचता। आखिर ईश्वर ने मेरी सुन ली और सुलभ के प्रयास से मेरा शौचालय बन गया।

राम सिंह का परिवार गांव के अन्य घरों की तुलना में थोड़ा समृद्ध दिखा। भैंस है, घोड़ा है। घर की बहू रेशम कहती हैं, ‘पहले जब हम खेतों में जाते थे तो सड़क पार करने में ही मुझे 10 मिनट लग जाता था। गाड़ियां इतनी तेज चलती हैं कि उन्हें देखकर मैं घबरा जाती हूं। सपने में भी यही दिखता था कि शौच के लिए जा रही हूं और एक ट्रक मेरे ऊपर से चला गया। अब वह भय नहीं रहा, कहीं डोलने की जरूरत नहीं है। जाओ और आओ।’

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इमरजेंसी में पता चलता है शौचालय का महत्व

सुकपाल मजदूर हैं और कुल 5 सदस्य इनके शौचालय का इस्तेमाल करते हैं। पत्नी रामवती कहती हैं, ‘शौचालय होने का फायदा इमरजेंसी में पता लगता है। कई बार तो खेतों में जाने के पहले ही कपड़े गंदे हो जाते थे। घिन आती थी खुद पर। तब घर लौटकर कैसे आती थी, मैं ही जानती हूं। शौचालय बन जाने से कम से कम यह नौबत तो नहीं आएगी।’ रामवती ने गांव के लोगों से ही सुना है कि सुलभ के पाठक जी ने उनका शौचालय बनवाया है।

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चेहरे पर घूंघट तो है, लेकिन शर्म नहीं

हाकमदीन की पत्नी शमीना ने बचपन से ही खुले में शौच जाने की पीड़ा भोगी है। उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा, जब उन्हें पता लगा कि सुलभ के प्रयास से उनके घर में शौचालय बनने जा रहा है और वह भी मुफ्त। मैंने शौचालय देखे हैं, लेकिन इतना सुंदर शौचालय नहीं देखा। एक शौचालय बन जाने से कई काम आसान हो गए। अब समय पर बच्चों को स्कूल और पति को काम पर भेज पाती हूं। चेहरे पर आज भी घूंघट तो है, लेकिन शर्म नहीं।

सुलभ मैजिक टॉयलेट विक्षिप्त हैं, लेकिन अपना शौचालय पहचानती हैं

मच्छरों से मिली राहत

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घर में शौचालय बन जाने के बाद बबीता को सबसे बड़ी राहत मच्छरों से मिली। कहती हैं, रात तो रात, दिन के उजाले में भी चैन से ये बैठने नहीं देते थे। कई कई दिन बुखार चढ़ा रहता था। कभी मलेरिया तो कभी टायफायड। बबीता के घर में पहले से एक शौचालय है, लेकिन वो हमेशा जाम रहता है। काफी पुरानी भी हो गया है। इसीलिए बाहर ही जाना होता है। खेतवाले गाली देते थे सो अलग। पति रवि कुमार चुनाई का काम करते हैं और कुल 6 सदस्य इस शौचालय का इस्तेमाल करते हैं।

वो रात, जब भींगती रही, रोती रही

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सीता राम की पत्नी कमलेश को बरसात की वह रात आज भी याद है, जब उन्हें शौच के लिए निकलना पड़ा। घर में कोई महिला नहीं थी। अचानक पैर फिसला और वे गिर पड़ीं। हाथ का टॉर्च भी पानी में गिर गया। उन्होंने सोचा कि ना जाऊं, लेकिन विवश थी। काफी दूर चलने पर एक टूटी दीवार दिखी, वहीं बैठी रही। भींगती रही और रोती भी रहीं। उन्हें वह दिन भूले नहीं भूलती। काश! यह शौचालय तब ही बन गया होता।

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पूरे मेवात में सबसे अच्छा है मेरा शौचालय

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इसराईल के घर में पहुंचा तो पोती जमसिदा और उसकी बहन से मुलाकात हुई हैं। स्कूल से लौटी है। वह 9वीं कक्षा की छात्रा है और सुलभ के व्यावसायिक प्रशिक्षण केंद्र में सिलाई का काम करती है। बताती है, ‘शौचालय बन जाने का सबसे बड़ा लाभ हमारे दादा-दादी को मिला है। उनके लिए ड्रम में पानी मैं ही भरती हूं।’ कहती हैं, ‘अपना शौचालय इस्तेमाल करने के बाद मुझे स्कूल का शौचालय इस्तेमाल करने की इच्छा नहीं होती। स्कूल क्या, पूरे मेवात में ऐसा शौचालय नहीं मिलेगा आपको।’

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शौचालय का इस्तेमाल करने वालों की बरकत होगी 56

राजकुमार की पत्नी मिथिलेश मानसिक रूप से थोड़ा विक्षिप्त हैं। जब बाहर शौच के लिए जाती थीं तो रास्ता भटक जाती थीं। गांव की गलियों में ही बैठ जाती थीं। राजकुमार तो काम पर निकल जाते थे और इधर मिथिलेश के घर वाले दिनभर परेशान। पड़ोसी बताते हैं कि शुरू में तो मिथिलेश शौचालय में नहीं जा पाती थीं, लेकिन धीरे-धीरे वे अपना शौचालय पहचानने लगी है और उसका इस्तेमाल भी करने लगी हैं। सिर्फ दरवाजा नहीं बंद होने देतीं। कुल 5 सदस्य इस शौचालय का इस्तेमाल करते हैं।

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इसराइल के घर में दो शौचालय हैं। दूसरा शौचालय बेटे अख्तर का है। इसराइल इसी शौचालय का इस्तेमाल करती हैं। अख्तर की पत्नी कश्मीरी बताती हैं कि बच्चों को रात में बाहर ले जाने में डर लगता है। इसराइल ने जो बात कही, वह अत्यंत उल्लेखनीय है। कहती हैं, जिसने शौचालय बनवाया उसकी भी बरकत हो और जो इसका इस्तेमाल कर रहे हैं उसकी भी बरकत। और यह बरकत जरूर होगी।

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अच्छे ही नहीं, बहुत अच्छे दिन आ गए

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शौचालय नंबर 62 वीर सिंह का है। घर पर बहू रीना से मुलाकात होती है। रीना के पति महेंद्र मैकेनिक हैं। बच्चों को मिलाकर कुल 8 सदस्य शौचालय का प्रयोग करते हैं। ‘हमारे घर में पहले एक शौचालय था, लेकिन चार साल पहले से ही वह बंद पड़ा है। विवश हो गए हम, फिर से बाहर जाने के लिए। शौचालय बन जाने से हमारे अच्छे दिन लौट आए हैं। अच्छे दिन क्या, बहुत अच्छे दिन।’ रीना बेहद खुश दिखती हैं।

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डॉ. पाठक को मेरा ‘राम-राम’ जरूर कहिएगा

मुरारी लाल के पैर में जख्म है। बिस्तर से उठ नहीं पाते। उनके पास जाते ही उनकी आंखें भर जाती हैं। कहते हैं, सुलभ का यह अहसान मैं जिंदगी भर नहीं भूल पाऊंगा। इससे ना सिर्फ मुझे फायदा हुआ है, बल्कि मेरी 95 वर्षीया मां के बाहर शौच जाने की समस्या भी दूर हो गई। बच्चे शौचालय में मुझे कुर्सी पर बिठा देते और वही इसकी सफाई भी करते हैं। मुरारी लाल बार-बार सुलभ संस्थापक डॉ. विन्देश्वर पाठक को अपना धन्यवाद दे रहे थे। और कहा, डॉ. पाठक को मेरा ‘राम-राम’ जरूर कहिएगा।


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मुबीन गाड़ी चलाते हैं और उनकी पत्नी सुगेरा। मुबीन अपने नाम पर शौचालय पाकर बेहद खुश हैं तो उनकी पत्नी समय की बचत से। वह कहती हैं, ‘परेशान हो जाती थी तो मैं सुबह-सुबह। कभी बच्चे को शौच कराने के जाती तो कभी खुद जाती। घर के सारे काम अस्त-व्यस्त हो जाते। अब एक शौचालय बन जाने से समय भी बच जाता है और घर तथा परिवार पर भी ध्यान दे पाती हूं।’ सुगेरा की बेटी सहीस्ता दूसरी कक्षा की छात्रा है। उसके स्कूल में शौचालय तो है, लेकिन अच्छा नहीं है।

सुबह के 8 बजे हैं और राजेंद्र के घर में उनकी भाभी को छोड़कर कोई नहीं है। मैंने पूछा, ‘इतनी सुबह सब काम पर निकल गए’ तो कहती है, ‘बाबू, पहले खेत से लौटने में देर हो जाती थी। समय पर खाना नहीं बन पाता था तो देर होती थी, अब तो अपना शौचालय है, सुबह ही सभी निवृत्त हो लेते हैं और काम पर निकल जाते हैं। काम भी मिल जाता है सुबह-सुबह पहुंचने पर।’

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ऐसा शौचालय न देखा था, न सुना था

हासम की पत्नी जफरीना की मां बेटी से मिलने आई हैं और इतना सुंदर शौचालय देखकर बहुत खुश हैं। बताती हैं, ‘मेरे घर में भी शौचालय है, लेकिन इतना अच्छा नहीं है। बार-बार गड्ढा खाली करवाना पड़ता है।’ जफरीना ने मुझे बताया कि ‘इस शौचालय में दो गड्ढे हैं। एक के भरने पर दूसरा खाली हो जाता है और दो-तीन साल बाद पहले वाले से मल-मूत्र नहीं, बल्कि खाद निकलेगा। ऐसा शौचालय तो न देखा था, न सुना।’

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बच्चों में भी शौचालय को लेकर उत्साह है

जब मैं साजिद के घर पहुंचा तो मेरी मुलाकात उनकी बेटी अमीरा से होती है। अमीरा बताती है कि उसके अब्बू दर्जी हैं और अम्मी उनके काम में हाथ बटाती हैं। अभी 6ठी कक्षा में पढ़ती है और वह भी सिलाई-कटाई का काम कर लेती है। उस वक्त भी वह सिलाई ही कर रही थी। वह अपना शौचालय दिखाती है और कहती है, ‘आज मैंने अपने शौचालय की सफाई खुद की है।’ शौचालय के बाहर मैंने चप्पल रखा देखा। मेरे पूछने से पहले ही अमीरा जवाब देती है, ‘हम सभी यही चप्पल पहनकर शौचालय जाते हैं और फिर इसे यहीं रख देते हैं।’

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घर में तो शौचालय था, लेकिन गलियां शौच से भरी रहती

नसरूद्दीन फेरी का काम करते हैं और घर में 8 साल पहले से ही शौचालय है। पत्नी असीना कहती हैं, ‘शुक्र है, मेरे बच्चों को दूसरे के खेतों में शौच करने की शर्मिंदगी नहीं झेलनी पड़ी। मेरे घर में तो शौचालय था, लेकिन ज्यों ही घर से बाहर निलकती तो गलियां शौच से भरी होतीं। मेरे 6 बच्चे हैं और सभी शौचालय का ही प्रयोग करते हैं। पहले वाला शौचालय वैसे तो उनके सास-ससुर के लिए बना था, लेकिन इस्तेमाल कभी-कभी हम भी कर लेते थे। सुलभ की तरफ से एक और शौचालय बन जाने से इस पूरे घर को थोड़ी और राहत मिल गई।’

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अपने शौचालय के लिए सिर्फ ब्रश खरीदना पड़ा

पेशे से ड्राइवर सुब्बा के घर में तीन ही सदस्य हैं। हरफीना को भी पहले अन्य गांव वालों की तरह बाहर खुले में ही शौच जाना पड़ता था, लेकिन वह अकेली जाती थीं। उनके सबके साथ जाने में संकोच होता था। हरफीना को तो यह भी पता नहीं है कि उनका शौचालय किसने बनाया, लेकिन उनके बच्चे को इसकी जानकारी थी। सुलभ का नाम दिखाता है। घर में सभी उत्साहित हैं, जाहिर है, उनका एक पैसा भी खर्च नहीं पड़ा अपना शौचालय बनवाने के लिए। हां, उसकी सफाई के लिए, ब्रश जरूर खरीदना पड़ा। इस घर में एक बड़ा-सा पानी का ड्रम भी है, जो शौचालय के लिए है।

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अगर एक शौचालय मेरी बुढ़िया के लिए भी हो जाए

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फकरू ड्राइवर हैं और उनके परिवार में उनकी पत्नी वरीसा 8 बच्चों की मां हैं। वरीसा कहती हैं, ‘मेरी सास और मेरी बेटी तबस्सुम दो बार सुलभ इंटरनेशनल के आयोजनों में दिल्ली में शामिल हो चुकी हैं। घर में सुलभ शौचालय बन जाने से अब मैं तो क्या,मेरे बच्चे भी बाहर नहीं जाना चाहते।’ वरीसा की इच्छा है कि अगर एक अलग शौचालय उनकी बुढ़िया (सास) के लिए हो जाए तो बड़ी सुविधा हो जाती, क्योंकि इतने बड़े परिवार के लिए एक शौचालय कम पड़ता है।

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मेरे गांव में कैमरा चल रहा है

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स्कूल में भी अच्छे शौचालय की जरूरत महसूस करती है

अब काम पर जाने में देर नहीं होती

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आवरण कथा

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नूरजहां के पति शेर मोहम्मद बटइया पर खेती करते हैं। नूरजहां कहती हैं, ‘जबसे इस गांव का नाम ट्रंप पड़ा, तबसे लगातार देख रही हूं कि कोई न कोई आ रहा है। हर रोज कोई न कोई पत्रकार तो कोई फोटो खींचने वाले आ रहे हैं। हम लोगों के गांव पर लोग फिल्म बना रहे हैं। मेरे गांव में कैमरा चल रहा है। गांव की लड़कियों के लिए प्रशिक्षण केंद्र खोला जा रहा है। कोई दिल्ली से आ रहा है तो कोई मुंबई से। हमने क्या कभी सोचा था कि हमारे गांव में गोरे लोग भी आएंगे? पता नहीं, क्या हो रहा है!’ कुल 7 लोग इस शौचालय का इस्तेमाल कर रहे हैं।

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बदबू नहीं सोंधी मिट्टी की सुगंध है अब गांव में

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एजाज और उनकी पत्नी रजीना कपड़ा सिलने का काम करते हैं। तीन बेटियां हैं। जो सबसे छोटी है, शौचालय में बैठ नहीं सकती। उसे छोड़कर सभी शौचालय का इस्तेमाल करती हैं। रजीना कहती हैं, ‘मेरे ही नहीं, गांव की सारी महिलाओं और लड़कियों का कल्याण हुआ है। शौचालय बन जाने से पहले जब हवा चलती थी तो बदबू का झोंका-सा आता था इस गांव में। आज सोंधी मिट्टी का गंध है।’

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अब शौचालय के लिए लाइन नहीं लगती

समसुद्दीन के परिवार में उनकी पत्नी रसीदन सहित 16 सदस्य हैं। इनके घर में पहले से एक शौचालय है, जिसका ये सभी प्रयोग करते थे। लोगों की संख्या देखते हुए सुलभ ने उनके घर में एक और शौचालय बना दिया। इसके पहले घर में मर्दों को कई बार खुले में शौच के लिए मजबूरीवश जाना पड़ता था। समसुद्दीन कहते हैं, ‘सुलभ ने अब हमें इस शर्मिंदगी से बचा लिया है। अब हम अपने घर के शौचालय का ही इस्तेमाल करते हैं और अब शौचालय के लिए लाइन भी नहीं लगानी पड़ती।’

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गर्भवती जाहिदा को मिला शौचालय का सहारा

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कल्लू की बहू जाहिरा गर्भवती हैं और ऐसे दिनों में उनके पास उनका अपना शौचालय है, इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है। दो बच्चों की मां हैं और वह दर्द भोगा है, जो बाहर शौच करने जाने में होती है। कहती हैं, ‘हमारी तरफ झाड़ी भी नहीं है, सिर्फ खेतही-खेत। और खेत वाले बैठने नहीं देते थे। दूर चलकर सड़क पर जाना पड़ता था और वहां पर उठा-बैठक लगाना पड़ता था।’ कुल 6 सदस्य शौचालय का इस्तेमाल करते हैं।


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आवरण कथा सुलभ मैजिक टॉयलेट

दस्त से मरते हैं अशिकांश बच्चे

26 मार्च - 01 अप्रैल 2018

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मुनफिदा इरसाद की पत्नी हैं। कहती हैं, ‘छोटे-छोटे बच्चे क्या जानें शर्म-लिहाज, यहांवहां कहीं बैठ जाते थे। पैर में, हाथ में शौच लगा होता और खेलते भी रहते थे। बिना हाथ धोए खा भी लेते थे और बीमार रहते थे। किसी को उल्टी हो रही है तो किसी को दस्त। हमारे गांव में दस्त से ही सबसे ज्यादा बच्चे मरते हैं। खुद मेरा बड़ा वाला बेटा कितने दिन अस्पताल में पड़ा रहा। शौचालय बन जाने से गांव साफ हो गया। कुल 5 सदस्य शौचालय का इस्तेमाल करते हैं।

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घर बनाते समय ही शौचालय बनना चाहिए

कल्लू का तीन-चार परिवार आसपास ही रहता है। सबका अपना-अपना शौचालय है। उनका बेटा जमसुद्दीन खेतिहर मजदूर है। मुर्गी और बकरी पालन भी छोटे-मोटे स्तर पर करते हैं। पत्नी उस्मानी भी उनके काम में हाथ बटाती हैं। कहती हैं, ‘घर बनाते समय ही हमें एक छोटा-सा शौचालय बना लेना चाहिए, यह बात आज समझ में आई, जब हमारा शौचालय बन गया। और हमें उसकी जरूरतों का पता चला।’ कुल 8 सदस्य इस शौचालय का इस्तेमाल करते हैं।

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चार परिवार चार शौचालय

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खुर्शीद भी कल्लू के ही लड़के हैं। वह भी खेती-बारी का काम कर अपना परिवार चलाते हैं। कहते हैं, ‘सुलभ ने हमारे सभी परिवार वालों के लिए शौचालय बना दिया, ताकि आपस में शौचालय साफ करने को लेकर बहस न हो। हम सभी अपने-अपने शौचालय को साफ रखते हैं। सारी उम्र परेशानी में गुजरी, तब जाकर शौचालय का लाभ मिला। कुल 5 सदस्य मेरे शौचालय का इस्तेमाल करते हैं।’

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पिछली बरसात खेतों में नहीं गुजरी

यह भी कल्लू का ही परिवार है जहां सुलभ का शौचालय बना है। घर के मुखिया हैं समसुद्दीन। पत्नी हसीना घर पर हैं और बेटी दिलरूबा के साथ बैठकर रात के खाने की तैयारी कर रही हैं। दिलरूबा 5वीं कक्षा की छात्रा है। उसने ही बात शुरू की। बताया बरसात के दिनों पूरा खेत कीचड़ से भर जाता था और बैठने की जगह नहीं मिलती। मेरा तो घुटना तक कीचड़ में धंस जाता था। आज घर में शौचालय है और पिछली बरसात में हमें खेत में जाने की जहमत नहीं उठानी पड़ी।

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रात में अब शौच जाने का भय नहीं

लालचंद ऑटो रिक्शा चलाते हैं। कुल 5 लोगों का परिवार है इनका। मूर्ति कहती हैं, ‘शौचालय बन जाने से बहुत आराम है। पहले जब बीमार होती थी तो बाहर शौच जाने के नाम से तबीयत और बिगड़ जाती। और अगर रात में जाना हो तब तो और मुसीबत। सांप-बिच्छुओं का डर सताता रहता था।’ लेकिन अब यह डर नहीं। अब तो हमें शौच जाने के लिए न तो रात का इंतजार करना पड़ता है और न ही कोई डर सताता है।’

सुलभ मैजिक टॉयलेट

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अब बहार जाने का तो सवाल ही नहीं उठता

फारूख बेलदार हैं और इस वक्त काम पर गए हैं। हमारी बात उनकी बीबी बरफीना से होती है। वह अपना शौचालय दिखाती हैं। उनका शौचालय किसी कारणवश जाम हो गया है और उन्हें भरोसा है कि सुलभ वाले इसे ठीक कर देंगे। कहती हैं, ‘हमारा शौचालय जब आप ठीक कर देंगे तो हम फिर से इसका इस्तेमाल कर सकेंगे। अभी तो मैं और मेरा पूरा परिवार अपने पड़ोसी का शौचालय इस्तेमाल कर रहे हैं। अब बाहर जाने का तो कोई सवाल ही नहीं उठता।’

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मेरा शौचालय उनको समर्पित

प्रकाशचंद का परिवार नूंह में रहता है। वह अपनी खेती-बारी के सिलसिले में मरोरा आते-जाते रहते हैं। कहते हैं, ‘मैं जब यहां काम के सिलसिले में आता हूं तो अपने शौचालय का इस्तेमाल करता हूं। यह शौचालय मेरे नाम से तो है, लेकिन मैंने इसे ट्रेनिंग सेंटर की लड़कियों के लिए खोल रखा है, ताकि वे शौचालय का इस्तेमाल करें और खुले में न जाएं। इसी में गांव का भी मान और सम्मान है।’

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शौचालय ने सम्मान दिलाया

देशराज मजदूर हैं और उनकी पत्नी हैं सुशीला। इनके परिवार में कुल 6 सदस्य हैं। ‘देशराज तो काम पर गए हैं, आइए, मैं आपको अपना शौचालय दिखाती हूं। बताती हैं, ‘हमारे शौचालय में कोई परेशानी नहीं है और हम सभी इसका प्रयोग करते हैं। मेरे पिताजी ने जब यह शौचालय देखा तो इसकी बहुत बड़ाई की। मेरे मायके में तो अभी भी शौचालय नहीं बना। मेरे रिश्तेदार हमारे गांव की अब बहुत प्रशंसा करते हैं और यह सब सम्मान मिला केवल एक शौचालय की वजह से।’

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कम से कम बुढ़ापे में तो यह सहारा मिला

उम्र के इस पड़ाव पर अपने घर में शौचालय पाकर रसीदन को खुशी है। इस शौचालय की मालकिन भी वह खुद हैं। पति इसराइल का निधन हो चुका है। उनके परिवार में तीन सदस्य हैं। रसीदन कहती हैं, ‘मुझे अब ठीक से दिखाई नहीं देता। कई बार तो रात में शौच जाने के लिए निकलती थी तो गिर जाती थी। शौचालय बन जाने से बहुत आराम है। बचपन और जवानी तो खेतों में ही जाते बीती, लेकिन अल्लाह का लाख-लाख शुक्र है, जिसने बुढ़ापे में यह सहारा दिया।’

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शौचालय के भरोसे छोड़कर गई है बहू

साबिर अपनी पत्नी के साथ ससुराल गए हैं। घर पर पिता रमजान और मां इस्लामिया हैं। इस्लामिया के पेट का ऑपरेशन हुआ है और अभी वे सुलभ शौचालय का यूज करने गई हैं। निकलकर पूछने पर बताती हैं, ‘घर में शौचालय है इसी भरोसे बेटा और बहू गांव गए हैं। आज यह शौचालय नहीं होता तो बहू अपने मायके के मांगलिक आयोजन में शामिल होने शायद नहीं जा पाते।’

सुलभ मैजिक टॉयलेट शौचालय दिखाया, तकनीक भी बताई

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जब रहीसन अपना शौचालय दिखाती हैं तो टू-पिट तकनीक के बारे में बताना नहीं भूलतीं। अच्छा लगा यह देखकर कि महिलाओं को शौचालय ही नहीं, उसकी तकनीक के बारे में भी जानकारी है। रहीसन के पति जमशेद पेशे से ड्राइवर थे और एक दिन गाड़ी चलाते हुए ही उनकी दुर्घटना हुई और फिर मौत। परिवार में अब रहीसन और उनके दो बेटे हैं, जो स्कूल गए हैं। रहीसन कहती हैं, ‘शुरू-शुरू में मुझे शौचालय में जाने से बहुत घबराहट होती थी। चारों तरफ से बंद शौचालय में ऐसा लगता था कि मेरा दम ही घुट जाएगा, लेकिन अब आदत हो गई है।’


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बच्चों से बुजुर्गों तक सभी शौचालय का इस्तेमाल करते हैं

जमशेद जी पेशे से मजदूर हैं और पत्नी मिसकिन घर-परिवार संभालती हैं। इनका संयुक्त परिवार है। जमशेद अपने काम पर गए हैं तो मेरी बात मिसकिन से होती है। वह बताती हैं, ‘मेरे 5 बच्चे हैं और सास-ससुर भी साथ रहते हैं। ऐसा नहीं है कि हम घर में शौचालय के महत्व को समझते नहीं थे, लेकिन कुछ मजबूरी के कारण हम शौचालय नहीं बनवा सके। लेकिन सुलभ की ओर से यह तोहफा पाकर हमारी समस्या ही हल हो गई। हम सभी अब शौचालय का प्रयोग करते हैं, यहां तक कि मेरी तीन साल की बेटी भी।’

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शौचालय संख्या 91 के मालिक हैं शाहिद। घर पर हैं उनकी पत्नी जुबैदा, मां वहिदन। जुबैदा कहती हैं, ‘हमारे घर में कुल 9 लोग हैं। मैं क्या बताऊं, शौचालय बन जाने से कितना आराम है! जुबैदा की सास ने सुलभ का शुक्रिया अदा किया, जिसने उन्हें ये तोहफा देकर इतनी इज्जत एवं सम्मान दिया है। वह कहती हैं, ‘सुलभ का यह तोहफा हमेशा याद रहेगा।’

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युसूफ पेशे से हलवाई हैं और उनकी पत्नी हैं अरसिदा। इनके परिवार में 7 लोग हैं और सभी इसी बात को लेकर संतुष्ट हैं कि अब दूसरों की जमीन, सड़कों, गलियों में शौच नहीं करना पड़ता। यह मजबूरी अब खत्म हो गई। युसूफ कहते हैं, ‘अब महिलाओं को अपमानित नहीं होना पड़ता। शौचालय हमारे लिए सबसे ज्यादा उपयोगी तब हो जाता है, जब हम बीमार होते हैं।’ यह घर कहूं तो समृद्ध दिखा, लेकिन शौचालय की जरूरत पता नहीं क्यों इन्हें महसूस नहीं हो रही थी।

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जब सुहेल ने दिखाया अपना शौचालय

गांव का ही एक लड़का सुहेल काफी देर से हमारे साथ-साथ चल रहा था। वह पूछता है, ‘आप हमारा शौचालय नहीं देखेंगे क्या? आइए, मैं भी आपको अपना शौचालय दिखाऊं।’ हम उसके साथ टॉयलेट संख्या 88 पर पहुंचते हैं, जो अयूब के नाम से है। अयूब खेती-बारी करते हैं। उस वक्त घर पर अकेला सुहेल ही था। कहता है, ‘10 लोगों को हमारा परिवार है। हम सभी अपने शौचालय का इस्तेमाल करते हैं। मैं 5वीं कक्षा में पढ़ता हूं और मेरे स्कूल में भी बताया जाता है कि अपना शौचालय खुद साफ करना चाहिए।’

पानी का कुंडा बना रहे हैं कमालुद्दीन

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जब हम शौचालय संख्या 89 पर पहुंचे तो वहां कोई घर ही नहीं दिखा। पता चला कि शौचालय के मालिक कमालुद्दीन का घर थोड़ी दूर पर है। एक बच्चा उन्हें बुलाकर ले आया। कमालुद्दीन आते हैं और हमें अपना शौचालय दिखाते हैं। बताते हैं, ‘शौचालय बन जाने से आराम तो है, लेकिन दिक्कत यह है कि घर से पानी ढोकर लाना पड़ता है। इसीलिए मैं यहां पर पानी का कुंडा बनवा रहा हूं। अभी मैं और मेरा परिवार भाई के शौचालय का इस्तेमाल कर रहे हैं।’

सुलभ मैजिक टॉयलेट अब कपड़े तार-तार नहीं होते

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इरसाद फिलहाल पढ़ाई कर रहे हैं और इस शौचालय के मालिक भी वही हैं। उनकी मां अमीना बताती हैं, ‘हमारे शौचालय का इस्तेमाल कुल 13 लोग करते हैं। जब शौचालय नहीं था तो हमने भी बहुत तकलीफें झेली हैं। सुबह-सुबह उठकर शौच जाना पड़ता था। कभी जंगल तो कभी झाड़ी तो कभी खेत। हमारी इज्जत तो तार-तार होती ही थी, कपड़े भी तार-तार होते थे।’ अमीना सुकून के साथ कहती हैं, ‘अब यह कष्ट दूर हो गया। हमारा शौचालय हम सभी की शान है।’

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समृद्ध घर, लेकिन शौचालय नहीं था

उमरदीन खेती-बारी करते हैं। भरा-पूरा परिवार है उनका। वह कहते हैं, ‘ऐसा नहीं है कि पुरूषों को बाहर शौच जाना अच्छा लगता है। मुझे भी बाहर जाने में कुंठा और परेशानी होती थी। लोग देखते थे, वो अलग। घर की महिलाएं भी बाहर जाती थीं। शर्म आती थी बाबू। लेकिन अब हमारे दिन बदल गए हैं और वो भी महज एक टॉयलेट बन जाने से। अब कहूं तो आराम हो गया।’ उमरदीन के बच्चे भी अब शौचालय का इस्तेमाल करने लगे हैं।

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सुलभ का यह तोहफा यादगार है

शर्म हमें भी आती थी बाबू

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आवरण कथा

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आप सबों का शुक्रिया

युसूफ के भाई हैं सलीम और इनकी पत्नी हैं शकुनत। सलीम पत्नी का शौचालय के साथ फोटो नहीं खिंचवाने को लेकर काफी देर तक बहस करते रहे। यह वही सलीम मियां हैं, जिनकी पत्नी कभी खुले में शौच के लिए जाती थीं तो उन्हें शर्म नहीं आती थी। खैर, सुलभ शौचालय बन जाने से उनकी पत्नी की आबरू तो बच गई। पत्नी धीरे से कहती हैं, ‘आप सबों का शुक्रिया!’

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नाम बदला, शौचालय बना, अब शायद हालात भी बदल जाए

‘जबसे हमारे गांव का नाम बदलकर ‘ट्रंप गांव’ रखा गया है, तबसे यहां विकास की झलक दिखने लगी है। शौचालय भी बन गए। अब शायद हमारे गांव के हालात भी बदल जाएं।’ यह कहना है फारूख का। फारूख मजदूरी करते हैं और अपना शौचालय पाकर खुश हैं। उनके घर के सभी 9 लोग अब शौचालय का प्रयोग करते हैं। कहते हैं, ‘हम अपने छोटे-छोटे बच्चों को भी शौचालय में बैठना सिखा रहे हैं। मुझे एहसास है जो सुलभ ने हमारे लिए किया है। शुक्रिया सुलभ!’

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इस शौचालय में ड्रम की जगह नल देखा

उमर मोहम्मद बिजली का काम करते हैं। कहते हैं, ‘जब हम बाहर सड़कों और खेतों में शौच करने जाते थे तो वहां से गुजरने वाले लोग हमें देखा करते थे। हमें बहुत शर्म आती थी। अब हमारे घर में अपना शौचालय है। मेरे परिवार में 10 लोग हैं। हम सभी अब अपने शौचालय में जाते हैं, बच्चे से लेकर बूढ़े तक।’ उमर खुशी-खुशी अपना साफ-सुथरा शौचालय दिखाते हैं, जिसकी सफाई वह खुद करते हैं। यह पहला ऐसा शौचालय था, जहां ड्रम की जगह नल देखा।


16 खुला मंच

26 मार्च - 01 अप्रैल 2018

लोगों के लिए उदाहरण स्थापित करना, दूसरों को प्रभावित करने का एक मात्र साधन है - अल्बर्ट आइंस्टीन

अभिमत

राजेंद्र सिंह

रेमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित वरिष्ठ जल कार्यकर्ता

पुनर्वास और पानी

पिछले कुछ वर्षों में पानी के संकट के कारण खासकर, मध्य एशिया और अफ्रीका के देशों से विस्थापन करने वालों की तादाद बढ़ी है

पधारो म्हारे देस

वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की ट्रैवल एंड टूरिज्म कंप्टीटिवनेस रिपोर्ट-2017 में भारत ने 12 अंकों की लंबी छलांग लगाई है

भा

रत की प्राचीन सभ्यता के साथ एक विलक्षण बात यह रही कि यहां से एक तरफ तो व्यापार, पर्यटन और धर्म प्रचार के लिए लोग कई देशों में गए, वहीं यहां भी इसी तरह कई लोग पहुंचे। यह सिलसिला आज भी कायम है। नई प्रगति यह है कि ग्लोबल विकास के दौर में भारत दुनिया के एक सर्वप्रिय टूरिस्ट डेस्टिनेशन का नाम है। सुखद यह भी है कि जहां जम्मू कश्मीर, हरियाणा, राजस्थान से लेकर केरल और तमिलनाडु तक के लोग पर्यटन को रोजगार के एक बड़े क्षेत्र के तौर पर स्वीकार कर रहे हैं, वहीं मौजूदा केंद्र सरकार भी इसके लिए तमाम तरह की सहुलियतें जुटा रही हैं। इसका सबसे ताजा उदाहरण है कि फरवरी, 2018 के दौरान ई-पर्यटक वीजा पर कुल मिलाकर 2.76 लाख विदेशी पर्यटक आए, जबकि फरवरी, 2017 में यह संख्यार 1.70 लाख थी। यह 62 प्रतिशत की वृद्धि 8 को दर्शाता है। इसी तरह फरवरी, 2017 की तुलना में फरवरी, 2018 के दौरान विदेशी पर्यटकों के आगमन में 10.1 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। फरवरी, 2018 के दौरान विदेशी पर्यटकों की संख्या (एफटीए) का आंकड़ा 10.53 लाख का रहा, जबकि फरवरी, 2017 में यह 9.56 लाख और फरवरी, 2016 में 8.49 लाख था। साफ है कि सरकार की दूरदर्शी नीतियों के चलते भारत में पर्यटन उद्योग निरंतर नई ऊंचाइयों को छू रहा है। इसी का नतीजा है कि वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की ट्रैवल एंड टूरिज्म कंप्टीटिवनेस रिपोर्ट-2017 में भी भारत की इस सफलता का जिक्र किया गया है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत ने 12 अंकों की लंबी छलांग लगाई है। भारतीय पर्यटन की रैंकिंग में 2013 में 65वें नंबर पर थी, वहीं 2015 में भारत 52वें नंबर पर आ गया और केवल डेढ़ वर्ष के अंतराल पर 12 अंकों की छलांग लगाते हुए 40वें पायदान पर जा पहुंचा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 26 मार्च को मन की बात में कहा था, ‘हमारे देश के करोड़ों-करोड़ों नौजवानों को रोजगार के अवसर उपलब्ध करा सकते हैं। सरकार हो, संस्थाएं हों, समाज हो, नागरिक हों, हम सब को मिल करके ये काम करना है।’ आज दो वर्ष बाद स्थिति यह है कि दुनिया भर के प्रबंध संस्थानों में भारतीय पर्यटन क्षेत्र की सक्सेस स्टोरी को खासी तवज्जो दी जा रही है।

टॉवर

(उत्तर प्रदेश)

ह दावा अक्सर सुनाई पड़ता है कि तीसरा विश्व युद्ध पानी को लेकर होगा। मुझे हमेशा यह जानने की उत्सुकता रही कि इस बारे में दुनिया के अन्य देशों से मिलने वाले संकेत क्या हैं? मेरे मन के कुछेक सवालों का उत्तर जानने का एक मौका हाल ही में हाथ लगा। वैसे भी मैं पिछले ढाई वर्ष से एक वैश्विक जलयात्रा पर हूं। इस यात्रा के तहत अब तक करीब 40 देशों का दौरा कर चुका हूं। यात्रा को 'वर्ल्ड पीस वाटर वॉक' का नाम दिया गया है। इस वक्त जो मुद्दे अंतरराष्ट्रीय तनाव की सबसे बड़ी वजह बनते दिखाई दे रहे हैं, वे हैं- आतंकवाद, सीमा विवाद और आर्थिक तनातनी। निस्संदेह, सांप्रदायिक मुद्दों को भी उभारने की कोशिशें भी साथ-साथ चल रही हैं। इसके अलावा समाज में गैर-बराबरी और असमावेशी विकास के कारण भी कई तरह के संघर्ष की स्थिति है। ऐसे में तीसरा विश्व युद्ध की बात और वह भी पानी को लेकर करें, तो थोड़ा अटपटा जरूर लगेगा। पर वास्तविकता यही है कि पानी को लेकर पूरी दुनिया में हाहाकार मचा है और यह कभी भी विस्फोटक होता है। इसीलिए पूरी दुनिया में वाटर वार की जो बात लोग कह रहे हैं, वह निराधार नहीं है। पानी के कारण अंतरराष्ट्रीय विवाद बढ़ रहे हैं। विस्थापन, तनाव और अशांति के दृश्य तेजी से उभर रहे हैं। ये दृश्य काफी गंभीर और दुखद हैं। पिछले कुछ वर्षों में पानी के संकट के कारण खासकर, मध्य एशिया और अफ्रीका के देशों से विस्थापन करने वालों की तादाद बढ़ी है। यहां तक कि इस समस्या को लेकर संयुक्त राष्ट्र की तरफ से कई

बार इस तरह की चेतावनियां जारी की जाती रही हैं कि अगर विस्थापन का जोर इसी तरह बनेगा तो दुनिया की एक बड़ी आबादी पुनर्वास कैंपों में रह रही होगी और उसकी देखभाल आसान नहीं होगी। विस्थापित परिवारों ने खासकर यूरोप के जर्मनी, स्वीडन, बेल्जियम पुर्तगाल, इंग्लैंड, फ्रांस, नीदरलैंड, डेनमार्क, इटली और स्विटजरलैंड के नगरों की ओर रुख किया है। अकेले वर्ष 2015 में मध्य एशिया और अफ्रीका के देशों से करीब 5 लाख लोग यूरोप के विभिन्न नगरों में पनाह लेने पहुंचे हैं। जर्मनी की ओर रुख करने वालों की संख्या ही करीब एक लाख है। जर्मनी, टर्की विस्थापितों का सबसे बड़ा अड्डा बन चुका है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद यूरोप के नगरों की ओर हुए विस्थापन का यह सबसे बड़ा आंकड़ा है। गौर करने की बात है कि एक विस्थापित व्यक्ति रिफ्यूजी का दर्जा हासिल करने के बाद ही संबंधित देश में शासकीय कृपा का अधिकारी बनता है। अंतरराष्ट्रीय स्थितियां ऐसी हैं कि विस्थापितों को रिफ्यूजी का दर्जा हासिल करने के लिए कई-कई साल लंबी जद्दोजहद करनी पड़ रही है। परिणाम यह है कि जहां एक ओर विस्थापित परिवार, भूख, बीमारी और बेरोजगारी से जूझने को मजबूर हैं, वहीं दूसरी ओर जिन इलाकों में वे विस्थापित हो रहे हैं, वहां कानून-व्यवस्था की समस्याएं खड़ी हो रही हैं। सांस्कृतिक तालमेल न बनने से भी समस्याएं हैं। यूरोप के नगरों के मेयर चिंतित हैं कि उनके नगरों का भविष्य क्या होगा? विस्थापित चिंतित हैं कि उनका भविष्य क्या होगा? पानी की कमी के नए शिकार वाले इलाकों को

विस्थापित परिवारों ने खासकर यूरोप के जर्मनी, स्वीडन, बेल्जियम पुर्तगाल, इंग्लैंड, फ्रांस, नीदरलैंड, डेनमार्क, इटली और स्विटजरलैंड के नगरों की ओर रुख किया है। अकेले वर्ष 2015 में मध्य एशिया और अफ्रीका के देशों से करीब 5 लाख लोग यूरोप के विभिन्न नगरों में पनाह लेने पहुंचे हैं


26 मार्च - 01 अप्रैल 2018 लेकर भावी उजाड़ की आशंका से चिंतित हैं। 17 मार्च को ब्राजील की राजधानी में एकत्र होने वाले पानी कार्यकर्ता चिंतित हैं कि अर्जेंटीना, ब्राजील, पैराग्वे, उरुग्वे जैसे देशों ने 4 लाख 60 हजार वर्ग मील में फैले बहुत बड़े भूजल भंडार के उपयोग का मालिकाना हक अगले 100 वर्षों के लिए कोका कोला और स्विस नेस्ले कंपनी को सौंपने का समझौता कर लिया है। भूजल भंडार की बिक्री का यह दुनिया में अपने तरह का पहला और सबसे बड़ा समझौता है। इस समझौते ने चौतरफा भिन्न समुदायों और देशों के बीच तनाव और अशांति बढ़ा दी है। आप देखिए कि 20 अक्टूबर 2015 को टर्की के अंकारा में बम ब्लास्ट हुआ। 22 मार्च को दुनिया भर में अन्तरराष्ट्रीय जल दिवस मनाया जाता है। 22 मार्च, 2016 को जब बेल्जियम के नगरों में वाटर कन्वेंशन हो रहा था, तो बेल्जियम के ब्रूसेल्स में विस्फोट हुआ। शांति प्रयासों को चोट पहुंचाने की कोशिश की गई। उसमें कई लोग मारे गए। 19 दिसंबर, 2016 को बर्लिन की क्रिश्चियन मार्किट में हुए विस्फोट में 12 लोग मारे गए और 56 घायल हुए। यूरोपियन यूनियन ने जांच के लिए विस्थापित परिवारों को तलब किया। ऐसा होने पर मूल स्थानीय नागरिक, विस्थापितों को शक की निगाह से देखेंगे ही। शक हो तो कोई किसी को कैसे सहयोग कर सकता है? विस्थापितों को शरण देने के मसले पर यूरोप में भेदभाव पैदा हो गया है। पोलैंड और हंगरी ने किसी भी विस्थापित को अपने यहां शरण देने से इनकार कर दिया है। चेक रिपब्लिक ने महज 12 विस्थापितों को लेने के साथ ही इस पर रोक लगा दी। यूरोपियन कमीशन ने एेसे लोगों के खिलाफ का कानूनी कार्रवाई शुरू कर दी है। ब्रूसेल्स में 2015 से सीरियाई विस्थपितों को लेकर हिंसक संघर्ष की स्थिति है। इटली और ग्रीक जैसे तथाकथित फ्रंटलाइन देश, अपने उत्तरी पड़ोसी फ्रांस और अॉस्ट्रेलिया को लेकर असहज व्यवहार कर रहे हैं। कभी टर्की और जर्मनी अच्छे दोस्त थे। जर्मनी, विदेशी पर्यटकों को टर्की भेजता था। आज दोनों के बीच तनाव दिखाई दे रहा है। यूरोप के देश अब राय ले रहे हैं कि विस्थापितों को उनके देश वापस कैसे भेजा जाए। अफ्रीका से आने वाले विस्थापितों का संकट ज्यादा बढ़ गया है। जाहिर है कि जिस तरह के हालात हर तरफ दिख रहे हैं, उनमें तनाव और अशांति तो पैदा होगी ही। इस तनाव और अशांति के मूल में पानी है और इसे साबित करने के कई तथ्य हैं। दक्षिण अफ्रीका के नगर केपटाउन के गंभीर हो चुके जल संकट के बारे में लोगों ने अखबारों में पढ़ा होगा। संयुक्त अरब अमीरात में पानी के भयावह संकट के बारे में भी खबरें छप रही हैं। संयुक्त राष्ट्र की विश्व जल विकास रिपोर्ट में आप जल्द ही पढ़ेंगे कि दुनिया के 3.6 अरब लोग यानी आधी आबादी ऐसी है, जो हर साल कम-से-कम एक महीने पानी के लिए तरस जाती है। रिपोर्ट में चेतावनी दी जा रही है कि पानी के लिए तरसने वाली ऐसी आबादी की संख्या वर्ष 2050 तक 5.7 अरब पहुंच सकती है। 2050 तक दुनिया के पांच अरब से ज्यादा लोग के रिहायशी इलाकों में पानी पीने योग्य नहीं होगा।

खुला मंच

ओशो

ल​ीक से परे

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महान दार्शनिक और विचारक

सद्गुरु की खोज

सद्रुगु आपको चुनता है। असद्रुगु कभी आपको नहीं चुनता। इसीलिए आप चुनने की बहुत फिक्र न करें, खुलपे न की फिक्र करें

शि

ष्य, सद्गुरु की खोज नहीं कर सकता है। कोई उपाय नहीं है आपके पास जांचने का कि कौन सद्गुरु है और संभावना इसकी है कि जिन बातों से प्रभावित होकर आप सद्गुरु को खोजें, वे बातें ही गलत हों। अक्सर होता यह है कि जो दावा करता है कि मैं सद्गुरु हूं, वह आपको प्रभावित कर ले। हम दावों से प्रभावित होते हैं, जिससे बड़ी कठिनाई निर्मित हो जाती है। वैसे शायद ही कोई हो जो खुद के सद्गुरु होने का दावा स्वयं करे। विडंबना यह कि बिना दावे के तो हमारे पास कोई उपाय नहीं है पहचानने का। हम चरित्र की सामान्य नैतिक धारणाओं से प्रभावित होते हैं, लेकिन सद्गुरु हमारी चरित्र की सामान्य धारणाओं के पार होता है। समाज की बंधी हुई धारणा, जिसे नीति मानती है, सद्गुरु उसे तोड़ देता है। क्योंकि समाज मानकर चलता है अतीत को और सद्गुरु का अतीत से कोई संबंध नहीं होता। समाज मानकर चलता है सुविधाओं को और सद्गुरु का सुविधाओं से कोई संबंध नहीं होता। समाज मानता है औपचारिकताओं को और सद्गुरु का औपचारिकताओं से कोई संबंध नहीं। तो यह भी हो जाता है कि जो आपकी नैतिक मान्यताओं में सही बैठ जाता है, उसे आप सद्गुरु मान लेते हैं। संभावना बहुत कम है कि सद्गुरु आपकी नैतिक मान्यताओं पर खरा उतरे। महावीर अपने जमाने की नैतिक मान्यताओं पर खरे नहीं उतरे। यही स्थिति बुद्ध, कृष्ण और क्राइस्ट की भी रही। अब तक इस पृथ्वी पर जो भी श्रेष्ठजन पैदा

प्रतीक्ा में नाइजीररय 14 सवच्छता की

बढिदान रूढ़िवादी दबाव में अमर शहादत

सवच्छता

20 24

ढवश्व तपेढदक ढदवस

भारा

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देव भारा बन रही है ढवश्व भारा

भारत! 2030 तक ्टीबी मुक्त होगा

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वर्ष-2 | अंक-14 | 19

र नरेंद्र मोदी

औ गांधी ढवरार की कसौ्टी

आरएनआई नंबर-DELHIN

/2016/71597

- 25 मार्ष 2018

इस बात के प्रेरक और ्ट ्टू गांधी जी’ पुसतक में ान तक प्राइम ढमढनस्टर मोदी'ज ढरिबयू ा से िेकर खादी और ग्ामोत् ‘फुिढफढिंग बापू'ज ड्ीमसे प्रधानमंत्ी नरेंद्र मोदी सवच्छत खरे उतर रहे हैं प्रामाढिक हवािे हैं ढक कै िगातार पर शों आदश ाररक र वै के राष्ट्रढपता

हुए हैं, वे अपनी समाज भी मान्यताओं के अनुकूल नहीं बैठ सके। क्राइस्ट नहीं बैठ सके अनुकूल, लेकिन उस जमाने में बहुत से महात्मा थे, जो अनुकूल थे। लोगों ने महात्माओं को चुना, क्राइस्ट को नहीं। क्योंकि लोग जिन धारणाओं में पले हैं, उन्हीं धारणाओं के अनुसार चुन सकते हैं। सद्गुरु का संबंध होता है सनातन सत्य से। साधुओं, तथाकथित साधुओं का संबंध होता है सामयिक सत्य से। समय का जो सत्य है, उससे एक बात है संबंधित होना; शाश्वत जो सत्य है उससे संबंधित होना बिल्कुल दूसरी बात है। समय के सत्य रोज बदल जाते हैं, रूढ़ियां रोज बदल जाती हैं, व्यवस्थाएं रोज बदल जाती हैं। दस मील पर नीति में फर्क पड़ जाता है, लेकिन धर्म मंद कभी भी कोई फर्क नहीं पड़ता। इसलिए अति कठिन है पहचान लेना कि कौन है सद्गुरु। फिर हम सबकी अपने मन में बैठी व्याख्याएं हैं। जैसे अगर आप जैन घर

हमारी शुभकामनाएं

‘सुलभ स्वच्छ भारत’ को जब से हमने पढ़ना शुरू किया है तब से हमारी सोच और हमारे विचारों में एक तरह की सकारात्मकता आई है। जब तक इस अखबार को गौर से नहीं पढ़ा तो इसको लेकर धारणा यही थी कि इसमें वही घिसी-पिटी खबरें होंगी, लेकिन एक दिन बुक स्टॉल से ‘सुलभ स्वच्छ भारत’ की प्रति खरीदी। इसे पढ़ा तो पता चला कि अखबार की साज-सज्जा ही नहीं, इसमें छपे लेख भी काफी प्रेरक हैं। चारो तरफ फैली नकारात्मकता के बीच में देश और समाज को सकारात्मक पहलू से रुबरु कराने का काम आप कर रहे हैं। मेरी तरफ से अखबार की पूरी टीम को शुभकामनाएं। विवेक गौतम समस्तीपुर, बिहार

में पैदा हुए हैं तो आप कृष्ण को सद्गुरु कभी भी न मान सकेंगे। इसका यह कारण नहीं है कि कृष्ण सद्गुरु नहीं हैं। इसका कारण यह है कि आप जिन मान्यताओं में पैदा हुए हैं, उन मान्यताओं से कृष्ण का कोई ताल-मेल नहीं बैठेगा। अगर आप जैन घर में पैदा हुए हैं तो राम को सद्गुरु मानने में कठिनाई होगी। अगर आप कृष्ण की मान्यता में पैदा हुए हैं तो महावीर को सद्गुरु मानने में कठिनाई होगी। इसी तरह जिसने महावीर को सद्गुरु माना है, वह मुहम्मद को सद्गुरु कभी भी नहीं मान सकता। धारणाएं हमारी हैं और कोई सद्गुरु धारणाओं में बंधता नहीं। बंध नहीं सकता। फिर हम एक सद्गुरु के आधार पर निर्णय कर लेते हैं कि सद्गुरु कैसा होगा। सभी सद्गुरु बेजोड़ होते हैं, अद्वितीय होते हैं, कोई दूसरे से कुछ लेना-देना नहीं होता यहां एक और बारीक बात। जिस तरह शिष्य का अहंकार होता है और इसीलिए उसे ऐसा भास होना चाहिए कि मैंने चुना। उसी तरह असद्गुरु का अहंकार होता है, उसे इसी में मजा आता है कि शिष्य ने उसे चुना। इस बात को सबको थोड़ा समझ लेना चाहिए। असद्गुरु को तभी मजा आता है, जब आपने उसे चुना हो। सद्गुरु आपको चुनता है। असद्गुरु कभी आपको नहीं चुनता। उसका तो रस ही यह है कि आपने उसे माना, आपने उसे चुना। इसीलिए आप चुनने की बहुत फिक्र न करें, खुलेपन की फिक्र करें।

संपादकीय टीम का आभार

मैं ‘सुलभ स्वच्छ भारत’ का नियमित पाठक हूं। इसमें छपे लेख काफी प्रेरक और समाज के विभिन्न पहलुओं से जुड़े होते हैं। हालिया अंक में प्रकाशित ‘रूढ़िवादी दबाव में अमर शहादत’ लेख काफी अच्छा लगा। वाकई में आज की पीढ़ी आजादी के दौर की बहुत सारी पहलुओं से अनजान है। ऐसे लेख उन्हें भारतीय इतिहास को समझने में काफी सहायक सिद्ध होंगे। हम आशा करते हैं कि ‘सुलभ स्वच्छ भारत’ भारतीय इतिहास के विभिन्न पहलुओं से अपने पाठकों को नियमित तौर पर अवगत कराता रहेगा। इसके लिए हम अखबार की संपादकीय टीम का आभार व्यक्त करते हैं। प्रणव राजन भोपाल, मप्र


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फोटो फीचर

26 मार्च - 01 अप्रैल 2018

तारीखी लम्हें

पश्चिमी एशिया में राजनीतिक, आर्थिक और सुरक्षा की दृष्टि से पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह की प्रगति हुई है उसने भारत और जॉर्डन के संबंधों को नए सरोकार और मायने दिए हैं

फोटो : शिप्रा दास


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करीब एक दशक बाद जॉर्डन के किंग अब्दुल्ला-II बिन अल हुसैन अपने दूसरे दौरे पर भारत पहुंचे। जॉर्डन के साथ संबंधों में दिखी नई गरमाहट से भारत की ‘थिंक वेस्ट’ और ‘एक्ट ईस्ट’ जैसी नीति एक बार फिर कारगर होती दिखी

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स्वच्छता

26 मार्च - 01 अप्रैल 2018

भूख से जूझते कांगो में स्वच्छता की चुनौती

रोटी, पानी और स्वच्छता को लेकर साझे तौर पर संघर्ष करने वाले दुनिया के कुछ आपवादिक मुल्कों में अफ्रीकी देश कांगो शामिल है। फिलहाल संयुक्त राष्ट्र वहां स्वच्छता और स्वास्थ्य से जुड़ी सुविधाएं बेहतर करने के लिए कई महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट चला रहा है

खास बातें कांगो में 3.6 करोड़ लोग शुद्ध पेयजल की समस्या से जूझ रहे हैं

दु

एसएसबी ब्यूरो

निया भर में विकास को लेकर एक सामान्य लक्ष्य और उसे हासिल करने के लिए सामान्य मानदंड अपनाने के लिए संयुक्त राष्ट्र ने ‘सतत विकास लक्ष्य’ घोषित किया है। इसे ही संयुक्त राष्ट्र का एजेंडा-2030 भी कहते हैं। इस एजेंडे को लेकर अब तक हुई कोशिश और उपलब्धियों के लिहाज से जो भी मूल्यांकन हुए हैं, उनमें सबसे खराब स्थिति अफ्रीकी मुल्कों की है। मेडागास्कर, लाइबेरिया, कांगो, चाड और मध्य अफ्रीकी गणराज्य शामिल हैं। ‘सतत विकास लक्ष्य’ की दृष्टि से जिन देशों का प्रदर्शन सबसे अच्छा है, वे हैं- स्वीडन, डेनमार्क, फिनलैंड और चेक गणराज्य।

‘सतत विकास लक्ष्य’

गौरतलब है कि ‘सतत विकास लक्ष्य’ में सबसे ज्यादा जोर स्वास्थ्य और स्वच्छता पर है। यानी मेडागास्कर, लाइबेरिया और कांगो जैसे मुल्कों में विकास के आगे सबसे बड़ी चुनौती स्वास्थ्य और स्वच्छता को लेकर ही है। सतत विकास लक्ष्य के तहत वर्ष 2030 तक जिन 17 मुख्य लक्ष्यों

को तय किया गया है, उनमें गरीबी उन्मूलन और पर्यावरण सुरक्षा जैसे मुद्दों के साथ जो सबसे अहम मुद्दा शामिल है, वह सभी के लिए स्वच्छता और पानी के सतत प्रबंधन की उपलब्धता सुनिश्चित करना है।

रोटी, पानी और स्वच्छता

बात करें कांगो की तो वहां एक तरफ जहां गरीबी का सबसे अमानवीय रूप देखने को मिलता है, वहीं वहां पानी की उपलब्धता और स्वच्छता को लेकर असंतोषजनक हालात हैं। इस कारण वहां के समाज में महिलाओं और बच्चों की स्थिति काफी असुरक्षित है। रोटी, पानी और स्वच्छता को लेकर साझे तौर पर संघर्ष करने वाले दुनिया के कुछ आपवादिक मुल्कों में कांगो शामिल है।

एक अस्वस्थ देश

इन स्थितियां की वजह से कांगो को स्वास्थ्य के

लिहाज से दुनिया के सबसे पिछड़े मुल्कों में शामिल है। कांगो की इस स्थिति पर संयुक्त राष्ट्र की नजर है और उसने दुनिया के आगे यह साफ किया है कि कांगो के रूप में अगर धरती का एक हिस्सा स्वच्छता और स्वास्थ्य की दृष्टि से इसी तरह पिछड़ा रहा, तो इसका असर ग्लोबल दुनिया में सब पड़ पड़ेगा। यही वजह है कि बीते कुछ वर्षों में कांगों जहां खुद अपने स्तर पर स्वच्छता और स्वास्थ्य के क्षेत्र में कई परियोजनाओं को अमली जामा पहनाने में लगा है, वहीं संयुक्त राष्ट्र के अलावा सुलभ जैसी संस्थाएं लगातार इस प्रयास में जुटी हैं कि कांगो सहित दूसरे अफ्रीकी देशों का सामाजिक स्तर सुधरे।

साफ-सफाई की कमी

कांगो के साथ एक बड़ी परेशानी यह भी है कि यह अफ्रीकी मुल्क बीते कई दशकों से लगातार अशांत बना हुआ है और वहां के लोग भुखमरी की चपेट में आने को विवश होते रहे हैं। इस विवशता को

संयुक्त राष्ट्र के एजेंडा-2030 के लिहाज से सबसे खराब स्थिति अफ्रीकी मुल्कों मेडागास्कर, लाइबेरिया, कांगो और चाड की है

भूख-पानी के संकट से स्वच्छता की चुनौती और जटिल हो गई है यहां 30 लाख से ज्यादा लोग भूख से मरने की कगार पर हैं कांगों में स्वच्छ जल की किल्लत और ज्यादा बढ़ा देती है। दरअसल, कांगो दुनिया के उन कुछ मुल्कों में शामिल है, जहां पानी को लेकर सबसे ज्यादा मारामारी है। संयुक्त राष्ट्र ने अपनी एक रिपोर्ट में चेतावनी दी है कि असुरक्षित पानी, साफ-सफाई की कमी से होने वाली डायरिया जैसी बामारियां दुनिया में हर रोज पांच वर्ष से कम उम्र के करीब 2,000 बच्चों की जान ले लेती हैं। इनमें से करीब 1,800 मौतें पानी, स्वच्छता और सफाई से जुड़ी हैं। संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) के बाल मृत्यु के आंकड़े बताते हैं कि कुल मौतों में से करीब आधी मौतें सिर्फ पांच देशों में होती है। दिलचस्प है कि नाइजीरिया और कांगो गणराज्य के साथ पांच देशों की इस सूची में चीन, पाकिस्तान और भारत के भी नाम शामिल हैं। अलबत्ता भारत की स्थिति कांगो से काफी बेहतर है,


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बावजूद इसके चीन और भारत जैसे सूबे इस सूची में स्थान इसीलिए पाते हैं, क्योंकि यहां जनसंख्या बहुत अधिक है।

पेयजल की किल्लत

पूरी दुनिया में 78.3 करोड़ लोगों को सुरक्षित पेयजल नहीं मिलता। इनमें से 11.9 करोड़ चीन में, 9.7 करोड़ भारत में, 6.6 करोड़ नाइजीरिया में, 3.6 करोड़ कांगो में और 1.5 करोड़ पाकिस्तान में हैं। पानी को लेकर समस्या झेल रहे मुल्कों में इस कारण स्वच्छता की स्थिति भी काफी दयनीय है। नाइजीरिया में 10.9 करोड़ लोगों, पाकिस्तान में 9.1 करोड़ लोगों और कांगो में पांच करोड़ लोगों को उचित स्वच्छ वातावरण नहीं मिलता।

घर छोड़ने की मजबूरी

कांगो में जिस तरह का सामाजिक जीवन है और लोग जिस तरह भयावह गरीबी की मार झेल रहे हैं, उसमें वहां स्वच्छता या शौचालय निर्माण को लेकर कोई अभियान चलाना आसान नहीं है।

पिछले साल के दिसंबर में यूएन फूड एजेंसी के प्रमुख डेविड बेस्ले ने बताया कि कांगो में 30 लाख से ज्यादा लोग भूख से मरने की कगार पर हैं। उन्होंने कहा कि आने वाले महीनों में मदद नहीं पहुंचाई गई तो लाखों बच्चे वहां भूख से मर सकते हैं। अगस्त 2016 में सुरक्षाकर्मियों के साथ संघर्ष में एक स्थानीय नेता के मारे जाने के बाद वहां हिंसा भड़क गई थी। इस हिंसा के कारण करीब डेढ़ लाख लोग अपना घर छोड़ने पर मजबूर हुए। इनमें ज्यादातर बच्चे हैं। डेविड ने कांगो के कसाय प्रांत की हालत को त्रासदी करार दिया है। कुछ माह पहले तक की स्थिति के आधार पर उन्होंने कहा कहा था- ‘हमारी टीम दौरे पर है। हम यहां देख रहे हैं कि झोपड़ियां जली हुई हैं। घरों को जला दिया गया है। गंभीर रूप से कुपोषित बच्चों का विकास थम गया है। जाहिर है कई बच्चों की मौत हो चुकी है।’ वर्ल्ड फूड प्रोग्राम का कहना है कि कसाय में लोगों को मदद पहुंचाने के लिए केवल एक फीसदी फंड है। डेविड ने चेतावनी दी है कि खराब सड़कों के कारण वहां पहुंचना आसान नहीं होगा।

1960 में मिली आजादी

बात कांगो गणराज्य की भौगोलिक संरचना और इतिहास की करें तो यह देश अफ्रीका गणराज्य तथा कैमरुन, पश्चिम में गैवान और अंध महासागर तथा दक्षिण और पूर्व में कांगो नदी के दूसरी ओर जैरे गणराज्य का विस्तार है। कुछ समय तक यह राज्य फ्रांस के आधिपत्य में रहा लेकिन अगस्त, 1960 में यह पूर्णरूपेण स्वतंत्र हो गया। कांगो और जैरे गणराज्यों के बीच जैरे नदी प्राकृतिक सीमा निर्धारित करती है, जो इस गणराज्य के लिए बड़े महत्व की है। ब्राजाविले, जिसकी स्थापना 19वीं शताब्दी के अंत में पिरे सैवोरनान ब्राजा द्वारा की गई थी, यहां की राजधानी है। कांगो के पश्चिमी किनारे पर ब्राजाविले और ठीक दूसरी ओर पूर्वी किनारे पर किंशासा नगर बसे हुए हैं। 1971 ई. में ब्रजाविले की जनसंख्या 2,00,000 थी तथा पूरे गणराज्य की जनसंख्या 10,12,800 रही।

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स्वच्छता

पूरी दुनिया में 78.3 करोड़ लोगों को सुरक्षित पेयजल नहीं मिलता। इनमें से 11.9 करोड़ चीन में, 9.7 करोड़ भारत में, 6.6 करोड़ नाइजीरिया में, 3.6 करोड़ कांगो में और 1.5 करोड़ पाकिस्तान में हैं भौगोलिक विषमता

कांगो का उत्तरी भाग पूर्णतया पठारी है, जिसकी औसत ऊंचाई 2,600 फुट है। यह भूभाग सवाना घासों एवं घने जंगलों से पूर्णतया आवृत है। ब्राजाविले के उत्तरी भाग में वेटेके नामक पठार है, जो घासों से पूर्णतया आवृत और नदियों द्वारा कटाफटा है। इस पठार के उत्तर में कांगो नदी के बेसिन अभेद्य वनों से आवृत हैं। उबांगी तथा कांगो यहां की मुख्य नदियां हैं। कांगो नदी का 690 किमी जलप्रवाह इस देश में पड़ता है। इसके अतिरिक्त संगा, लिकोइला, कोइलोऊ, एलिमा और नियारी मुख्य नदियां हैं, जिनमें कोइलोऊ नदी पर 410 फुट ऊंचा बांध बना हुआ है। उत्तरी पठारी भाग काफी ऊबड़-खाबड़ और कृषि कार्य के लिए अनुपयुक्त है। साथ-साथ यहां की मिट्टी भी अनुपजाऊ है। भूमध्यरेखीय प्रदेश में पड़ने के कारण यहां की जलवायु उष्ण कटिबंधीय है। महाद्वीप के पश्चिमी भाग में अवस्थित होने के कारण यहां भूमध्यरेखीय देशों की तुलना में वर्षा बहुत कम होती है।

फ्रांस पर निर्भरता

ज्यादातर भूभाग पठारी होने के कारण कांगो की आर्थिक प्रगति धीमी रही है। मूंगफली, कोको, कॉफी, मक्का, चावल, नारियल, तंबाकू यहां काफी मात्रा में होते हैं और इनका निर्यात भी विदेशों को किया जाता है। इसके अतिरिक्त कांगो लकड़ी, हीरे, चीनी और पोटाश का भी निर्यात करता है। देश का मुख्य व्यापारिक संबंध फ्रांस के साथ है, जहां से उसे ऋण के रूप में आर्थिक एवं यांत्रिक सहायता उपलब्ध होती रहती है। खनिज के लिहाज से कांगो काफी समृद्धिशाली है। हीरे के अलावा यहां सोना, सीसा, जस्ता, तांबा और तेल आदि का भी उत्पादन

पर्याप्त मात्रा में होता है।

यातायात का भी संकट

विषम धरातल होने के कारण पठारी भाग में यातायात का विकास बहुत कम हो पाया है। कांगो एवं उसकी सहायक नदियों से ही यातायात का अधिकांश काम लिया जाता है। ब्राजाविले नदी के किनारे स्वयं एक अच्छा बंदरगाह है, जहां से कांगों नदी का मुहाना केवल 385 किमी दूर है। दक्षिण-पश्चिम की ओर समुद्रतट पर स्थित प्वाइंट नोरे बंदरगाह से यह गैवान के फ्रांसविले में स्थित लौह खदानों तक की जाती है।

आदिम जनजातियों का देश

वास्तव में कांगो गणराज्य आदिम जातियों का देश है। अगणित जनजातियों में 15 मुख्य हैं, जिनमें बाकोंगो एक प्रगतिशील जाति है जो ब्राजविले में दक्षिण पश्चिम में निवास करती है। पूरे देश में आधी से अधिक जनसंख्या इन्हीं जातियों की है और राजधानी में लगभग 25 प्रतिशत इन्हीं की आबाद हैं। इनके प्राचीन इतिहास से ज्ञात होता है कि ये जातियां प्रागैतिहासिक काल से यहां निवास कर रही हैं और कुछ काल पूर्व इनका साम्राज्य कांगो नदी के पार अंगोला राज्य तक फैला हुआ था। वेटेके जातियां ब्राजाविले के उत्तरी भाग में निवास करती हैं। ये जातियां अफ्रीकी हस्तकला में सिद्धहस्त हैं। देश की 40 प्रतिशत जनसंख्या नगरों में निवास करती है, शेष राष्ट्र के दक्षिणी भाग में ही सीमित है। उत्तरी पठारी प्रदेश बिल्कुल वीरान दिखाई देता है। यहां के अधिकांश निवासी ईसाई मतावलंबी हैं, जिनमें रोमन कैथोलिक 32 प्रतिशत और प्रोटेस्टेंट 16 प्रतिशत हैं। मुसलमानों की जनसंख्या बहुत ही कम है। बांटू, सूडानी, अरबी और फ्रेंच यहां की


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स्वच्छता

सतत विकास लक्ष्य और कांगो सतत विकास के 17 लक्ष्य

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तत विकास लक्ष्य या संयुक्त राष्ट्र के एजेंडा2030 में पूरी दुनिया के लिए विकास के भावी लक्ष्य में स्वास्थ्य और स्वच्छता जैसे बुनियादी सरोकारों का समावेश किया गया है। दो साल पहले इसके लिए वैश्विक कवायद पूरी दुनिया में शुरू हो चुकी है। पर अब तक इसको लेकर जो भी प्रगति हुई है, उसमें सबसे ज्यादा निराशाजनक स्थिति अफ्रीकी देशों की है। मेडागास्कर, लाइबेरिया, कांगो और चाड उन अफ्रीकी

देशों में शामिल हैं, जो सतत विकास के लक्ष्य से अभी कोसों दूर हैं। अलबत्ता खुद संयुक्त राष्ट्र इस कोशिश में भी लगा हुआ है कि ये देश सतत विकास लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में योजनागत आधार पर प्रगति करें। खासतौर पर स्वास्थ्य और स्वच्छता से जुड़े कई अभिक्रम कांगो सहित दूसरे अफ्रीकी देशों में संयुक्त राष्ट्र की देखरेख में चल रहे हैं, जिसके लिए कोष की व्यवस्ता भी वही कर रहा है।

गरीबी के सभी रूपों की पूरे विश्व से समाप्ति

भूख की समाप्ति, खाद्य सुरक्षा और बेहतर पोषण और टिकाऊ कृषि को बढ़ावा

सभी आयु के लोगों में स्वास्थ्य सुरक्षा और स्वस्थ जीवन को बढ़ावा

समावेशी और न्यायसंगत गुणवत्ता युक्त शिक्षा सुनिश्चित करने के साथ ही सभी को सीखने का अवसर देना

लैंगिक समानता प्राप्त करने के साथ ही महिलाओं और लड़कियों को सशक्त करना

सभी के लिए स्वच्छता और पानी के सतत प्रबंधन की उपलब्धता सुनिश्चित करना

सस्ती, विश्वसनीय, टिकाऊ और आधुनिक ऊर्जा तक पहुंच सुनिश्चित करना

सभी के लिए निरंतर समावेशी और सतत आर्थिक विकास, उत्पादक रोजगार और कार्य को बढ़ावा देना

लचीले बुनियादी ढांचे, समावेशी और सतत औद्योगीकरण को बढ़ावा

देशों के बीच और भीतर असमानता को कम करना

सुरक्षित, लचीले और टिकाऊ शहर और मानव बस्तियों का निर्माण

स्थायी खपत और उत्पादन पैटर्न को सुनिश्चित करना

जलवायु परिवर्तन और उसके प्रभावों से निपटने के लिए तत्काल कार्रवाई करना

स्थायी सतत विकास के लिए महासागरों, समुद्र और समुद्री संसाधनों का संरक्षण और उपयोग

मुख्य भाषाएं हैं, जबकि सरकारी कार्य फ्रेंच में ही किया जाता है। अधिकांश जंगली जातियां किसी धर्म में विश्वास नहीं करतीं और आज भी अपनी प्राचीन पद्धतियों को लेकर चल रही हैं।

‘द ग्रेट वॉर ऑफ अफ्रीका’

कांगो आज भले भूख और हिंसा का शिकार है, पर इसके इतिहास को देखें तो यह दुनिया के सबसे अमीर देशों में एक होने की क्षमता रखता है। लेकिन औपनिवेशवाद, गुलामी और भ्रष्टाचार ने कांगो को दुनिया के सबसे गरीब देशों की कतार में ला खड़ा किया है। यह देश दूसरे विश्व युद्ध के बाद से

सतत उपयोग को बढ़ावा सतत विकास के लिए देने वाले स्थलीय समावेशी समितियों को पारिस्थितिकीय प्रणालियों बढ़ावा देने के साथ सभी और जैव विविधता के बढ़ते स्तरों पर इन्हें प्रभावी नुकसान को रोकने का बनना, ताकि न्याय प्रयास सुनिश्चित हो सके लगातार हिंसक संघर्ष को झेल रहा है। वहां जारी हिंसा में पचास लाख से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं, लाखों लोग भुखमरी और बीमारियों के शिकार हैं। यही नहीं, यहां लाखों महिलाओं और लड़कियों का शीलहरण भी हुआ है। ‘द ग्रेट वॉर ऑफ अफ्रीका’ कही जाने वाली इस लड़ाई में नौ देशों के सैनिक

सतत विकास के लिए वैश्विक भागीदारी को पुनर्जीवित करने के अतिरिक्त कार्यान्वयन के साधनों को मजबूत बनाना

और आम लोगों के अलावा अनगिनत विद्रोही गुट एक दूसरे को निशाना बनाते रहे हैं और ये सब एक ऐसे बदकिस्मत देश की सीमाओं के अंदर ही हो रहा है, जिसका नाम है डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो। इस देश में हर के तरह के खनिज मौजूद हैं, फिर भी ये संयुक्त राष्ट्र के मानव विकास सूचकांक


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अगले कुछ सालों में कांगो में कुल 3,275 गांव स्वच्छ घोषित हो जाएंगे। यूनिसेफ का कहना है कि इससे कांगो में शहरों से बाहर के इलाकों और खासौतर पर सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में स्वच्छता और स्वास्थ्य सुविधा से जुड़े ढांचागत विकास को करने में मदद मिलेगी में गरीब देशों में शामिल है।

पांच सदियों से उथल-पुथल

कांगो की मौजूदा स्थिति वहां पिछले पांच सदियों से जारी उथल-पुथल का नतीजा है। जब 1480 के आसपास पुर्तगाली व्यापारी कांगो पहुंचे तो उन्हें लगा कि उन्हें एक ऐसी जमीन मिल गई है जो प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर है- खास कर इंसानी संसाधनों से। कांगो को मजबूत, लंबे-तगड़े और बीमारियों से अछूते रहने वाले गुलामों के बड़े खजाने के तौर पर देखा गया। पुर्तगालियों को अहसास हुआ कि माहौल अगर अराजक होगा तो उनके लिए गुलामों की आपूर्ति करना बेहद आसान होगा। उन्होंने स्थानीय स्तर पर मौजूद ऐसी सभी राजनीतिक ताकतों को ध्वस्त कर दिया, जो उनके व्यापार और गुलामों के कारोबार में बाधा बन सकती थीं। विद्रोहियों को पैसा ही नहीं, बल्कि आधुनिक हथियार भी दिए गए। कांगो की सेनाओं को हराया गया और राजाओं की हत्याएं की गईं, धनाढ्य लोगों को मारा गया और अलगाववाद को बढ़ावा दिया गया। 1870 के दशक में बेल्जियम के लोग कांगो पहुंचे। यह वही समय था जब पश्चिम में साइकिल और मोटरगाड़ियां आम जिंदगी का हिस्सा बन रही थी, जिनके लिए रबर के टायरों की भारी मांग थी। कांगो में बड़ी मात्रा में रबर पाई जाती रही है। इसका फायदा उठाने के लिए बेल्जियम की फौज ने वहां की महिलाओं को अपनी सेवा में लगाया और उन पर ज्यादतियां की जबकि उनके पतियों से जंगल में रबर की खेती कराई जाती थी।

एटम बम का यूरेनियम

दूसरे विश्व युद्ध में हिरोशिमा और नागासाकी में गिराए गए परमाणु बमों में इस्तेमाल यूरेनियम दक्षिण पूर्व कांगो की खदानों से निकाला गया था। कांगो के संसाधनों के बल पर पश्चिम की आजादी की रक्षा की गई लेकिन कांगो के काले निवासियों को

वोट देने और यूनियन और राजनीतिक संघ बनाने का भी अधिकार नहीं दिया गया। कांगो को 1960 में बेल्जियम से आजादी मिली और आशंकाओं के मुताबिक उसका आगे का सफर खासा दुर्भाग्यपूर्ण रहा। आकार में कांगो पश्चिमी यूरोप के बराबर है। कांगो के छोटे-छोटे हिस्सों ने अलग होने की कोशिश की और वहां मौजूद बेल्जियम के अफसरों के खिलाफ बगावत होने लगी। जो लोग अब तक कांगो को चला रहे थे, वे सभी कांगो छोड़कर चले गए। ऐसे में वो सक्षम लोग नहीं रहे, जो देश और उसकी अर्थव्यवस्था को संभाल पाएं। जहां आजादी से पहले कांगो में पांच हजार सरकारी अफसर थे, वहीं आजादी के पास इनकी संख्या तीन हजार ही रह गई। नए-नए आजाद हुए कांगो के पास वकीलों, डॉक्टरों, अर्थशास्त्रियों और इंजीनियरों की भारी कमी झेलने पड़ी। ऐसे में देश में घोर अव्यवस्था फैल गई। कांगो के नेता पैट्रिक लुमुम्बा को पश्चिम समर्थित विद्रोहियों ने फांसी पर चढ़ा दिया। इसके बाद सेना के एक प्रवक्ता जोसेफ डेसाइर मोबुतु ने देश की सत्ता संभाली, जो बाद में एक तानाशाह साबित हुए। जब तक पश्चिमी जगत को कांगो के खनिज मिलते रहे और कांगो सोवियत संघ के घेरे से दूर रहा, तब तक पश्चिम ने मोबुतु को बर्दाश्त किया। उनके दौर में विद्रोहियों का उत्पीड़न किया गया, मंत्री पूरा का पूरा बजट चुरा लेते थे. पश्चिमी जगत भी मोबुतो को अरबों डॉलर का कर्ज देते रहे, जिसे आज का कांगो अब तक चुका रहा है।

कब्जे की होड़

1997 में रवांडा के नेतृत्व में कई पड़ोसी देशों ने कांगो पर हमला कर मोबुतु से छुटकारा पाने का फैसला किया। खास कर रवांडा इस बात को लेकर बहुत नाराज था कि मोबुतु ने रवांडा में 1994 के नरसंहार के लिए दोषी लोगों को अपने यहां पनाह दी थी। इस नरसंहार में सौ दिन के भीतर लगभग

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स्वच्छता

आठ लाख लोग मारे गए थे। मोबुतु को हटा कर लौरें कबीला को कांगो का नेता बनाया गया। पुर्तगालियों, बेल्जियनों, मोबुतो और मौजूदा सरकार, सभी ने कांगो में राज्य, सेना, न्यायपालिका और शैक्षिक तंत्र को मजबूत ही नहीं होने दिया, ताकि जमीन के नीचे दबे प्राकृतिक खजाने के दोहन में उन्हें कोई अचड़न नहीं आए। इन संसाधनों से अरबों डॉलर की कमाई की गई है, लेकिन उसका फायदा इस देश के लोगों नहीं मिला है। कांगो के संसाधनों की बुनियाद पर ही विकसित देशों में तकनीकी क्रांति हो रही है। कांगो कुल मिलाकर एक ऐसे देश का नाम है, जिसके संसाधन समृद्धि नहीं, बल्कि त्रासदी की वजह बन रहे हैं।

मलिन बस्तियां

कांगो के इतिहास को देखकर यह तो पता चलता है कि आदिम जन-जातियों वाले इस देश में शहरीकरण का दौर भी बहुत पहले शुरू हो चुका था। पर औपनिवेशिक दासता की त्रासदी यह रही कि शहरी विकास की योजनाएं काफी तदर्थवादी रहीं। प्रमाण तो इस बात के भी मिलते हैं कि शहरों के बीच और कई बार शहरों से कुछ दूरी पर मलिन बस्तियां बसाई गईं। इन बस्तियों में उन लोगों को रखा गया, जो सरकारी अधिकारियों, व्यापारियों और अमीर लोगों के यहां एक तरह से गुलामी करते थे। इन गुलामों को स्कैवेंजिंग का कार्य भी करना पड़ता था। गरीब लोगों के पास शौचालय तो क्या पक्के घर तक नहीं थे, वहीं बुर्जुआ वर्ग अपनी गंदगी का सफाई गरीब लोगों से करवाते थे। इस अमानवीयता को लेकर कांगो में कई ऐसे लोकगीत और लोककथाएं आज भी प्रचलित हैं, जिसमें उनके पूर्वजों की त्रासद स्थिति का मार्मिक बखान है। समय के साथ यह विवशता वहां सामाजिक न्याय की आवाज भी बनी पर भूख और हिंसा की चपेट ने मानवाधिकार के इस सरोकार को ढंग से आकार ही नहीं लेने दिया।

स्वच्छता और संरा की पहल

कांगो में स्वच्छता का मौजूदा अध्याय 20वीं सदी के आखिरी दशक से शुरू होता है। यह कार्य वहां संयुक्त राष्ट्र की देखरेख में शुरू हुआ। जलापूर्ति और स्वच्छता की ज्यादातर परियोजनाएं वहां अब भी संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रायोजित हैं और इसके

लिए फंडिग की अलग से व्यवस्था की गई है। जो आंकड़े उपलब्ध हैं उसमें नए प्रयासों के शुरू होने के बाद कांगो में स्वच्छता की स्थिति में 14 फीसदी का सुधार हुआ है, जबकि इसके लिए अनुमानित लक्ष्य कम से कम 23 फीसदी का था। साफ है कि अफ्रीका के इस मुल्क में जिस तरह की जर्जर सामाजिक स्थितियां हैं, उसमें स्वास्थ्य और स्वच्छता के प्रति वहां जागरूकता पैदा करना कोई आसान लक्ष्य नहीं है।

स्वस्थ गांव

भारत की तरह आज कांगो में भी स्वच्छता को लेकर कई अभिनव प्रयोग किए जा रहे हैं। इनमें एक अहम प्रयोग है स्वच्छ गांव का निर्माण करना। इस तरह के मॉडल गांवों में शौचालयों की पर्याप्त उपलब्धता के साथ जलापूर्ति और स्वास्थ्य सेवाओं की समुचित सुविधाएं सुनिश्चित की जा रही हैं। यह कार्यक्रम भी यूनिसेफ द्वारा प्रायोजित है। कार्यक्रम का स्वरूप ऐसा है कि यूनिसेफ किसी गांव को तभी पूरी तरह स्वच्छ घोषित करता है, जब वह इस बारे में जमीनी जांच-पड़ताल कर लेता है। सब कुछ ठीक रहा तो अगले कुछ सालों में कांगो के कुल 3,275 गांव स्वच्छ घोषित हो जाएंगे। यूनिसेफ का कहना है कि इससे कांगो में शहरों से बाहर के इलाकों और खासौतर पर सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में स्वच्छता और स्वास्थ्य सुविधा से जुड़े ढांचागत विकास को करने में मदद मिलेगी। इस योजना का एक बड़ा लक्ष्य यह भी है कि इससे यहां के जन-जातीय लोगों में स्वच्छता को लेकर जरूरी जागरूकता आएगी। इस जागरूकता से ये लोग गंदगी और दूसरे तरह के प्रदूषणों से होने वाली बीमारियों की चपेट से भी मुक्त होंगे।

स्वच्छ स्कूल

स्वच्छ गांव की तर्ज पर ही कांगो में स्वच्छ स्कूल बनाने को लेकर भी परियोजना चलाई जा रही है। यह परियोजना भी यूनिसेफ की देखरेख में चल रही है। परियोजना का लक्ष्य जहां एक तरफ स्कूलों के भीतर स्वच्छ परिवेश विकसित करना है, ताकि शिक्षा को लेकर बच्चों और उनके परिवारों में उदासीनता समाप्त हो। वहीं इस परियोजना का एक लक्ष्य बच्चों को स्वच्छता कार्यक्रम से जोड़कर इसका प्रचारप्रसार परिवार और समाज में करना है।


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लोकार्पण

26 मार्च - 01 अप्रैल 2018

ज्ञान योग और कर्म योग दोनों जीवन के अपरिहार्य रत्न रघुनंदन की किताब “द विजडम ऑफ वशिष्ठ – ए स्टडी ऑफ लघु योग वशिष्ठ फ्रॉम सीकर्स प्वांइट ऑफ यू” का हुआ लोकार्पण

अद्वैत का अर्थ है सब कुछ एक है। जब हम द्वैत भाव में रहते हैं, तब तक हमें सुख-दुःख और लाभ-हानि आदि द्वंद्व अंदर ही अंदर परेशान करते हैं। यह द्वैत भाव ही हमें रिश्तों के बंधन से बांध देता है। मुक्ति के लिए अद्वैत भाव में आना जरुरी है। अद्वैत को ही दर्शन में एकात्म भाव कहते हैं। एकात्म का अर्थ होता है, एक ही आत्मा जो कि सब जीवों में विद्यमान है। आत्मा को परमात्मा का ही अंश कहा और माना जाता है। उन्होंने कहा कि जीवन के लिए शांति और धैर्य बहुत जरुरी है। हर बात की जल्दबाजी हमें तत्वज्ञान से दूर करती है।

कर्म की उपेक्षा नहीं की जा सकती

अयोध्या प्रसाद सिंह

ध्यात्म की दुनिया में खुद को जानने का सबसे बेहतर साधन ज्ञान योग को माना जाता है। कहते हैं कि ज्ञान योग के द्वारा व्यक्ति ज्ञान के माध्यम से ईश्वर प्राप्ति की ओर अग्रसर होता है। ज्ञान योग की ही एक शाखा है वेदांत दर्शन, जिसके द्वारा व्यक्ति ज्ञान प्राप्ति की दिशा में अग्रसर होता है। वेदांत दर्शन मुख्यतः उपनिषद से लिए गए हैं। उपनिषद हिंदू धर्म के महत्वपूर्ण श्रुति धर्मग्रंथ हैं, साथ ही यह वैदिक साहित्य का अंतिम भाग है, इसीलिए इसको वेदांत कहते हैं। 'वेदांत' का अर्थ है - वेदों का सार। वेदांत की मुख्यता तीन शाखाएं हैं अद्वैत वेदांत, विशिष्ट अद्वैत और द्वैत। अद्वैत वेदांत का संस्कृत सहित्य में अति महत्वपूर्ण ग्रंथ है – योग वशिष्ठ। इस ग्रंथ में ऋषि वशिष्ठ भगवान राम को निर्गुण ब्रह्म का ज्ञान देते हैं। वाल्मीकि को योग वाशिष्ठ का रचयिता माना जाता है। इस ग्रंथ में 29 हजार से ज्यादा श्लोक हैं। इस ग्रंथ के छोटे रूप को, जिसमें लगभग 6000 श्लोक हैं, लघु योग वशिष्ठ कहा जाता है। इसी ग्रंथ के अध्ययन पर आधारित और एक खोजकर्ता की दृष्टि से की गई रचना “द विजडम ऑफ वशिष्ठ – ए स्टडी ऑफ लघु योग वशिष्ठ फ्रॉम सीकर्स प्वांइट ऑफ यू” पुस्तक का लोकार्पण नई दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में किया गया। इस किताब के रचनाकार रघुनंदन हैं। लोकार्पण कार्यक्रम के साथ एक परिचर्चा भी आयोजित की गई। इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि पूर्व सांसद और वरिष्ठ कांग्रेसी नेता डॉ. कर्ण सिंह और सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक डॉ. विन्देश्वर पाठक थे। कार्यक्रम में अन्य गणमान्य

व्यक्ति जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में प्रोफेसर राम नाथ झा, दुनिया भर में भारतीय दर्शन पर किए गए अपने कार्यों के लिए प्रसिद्ध प्रोफेसर जेराल्ड जेम्स लार्सन और लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ में प्रोफेसर जयकांत शर्मा और प्रोफेसर जीसी. त्रिपाठी भी उपस्थित थे।

उपनिषद का महत्व सबके लिए है

मुख्य अतिथि डॉ. कर्ण सिंह ने इस मौके पर कहा कि आज यहां इस पुस्तक की विषय वस्तु पर आयोजित चर्चा से शास्त्रार्थ जैसा माहौल बनते हुए देखना सुखद अनुभूति रही। उन्होंने उपनिषद और गीता को जीवन का सार बताते हुए कहा कि ये ग्रंथ सबके लिए हैं। ऐसी धारणा है कि उपनिषद केवल संन्यासियों के लिए है, गलत है। उन्होंने ज्ञान योग और कर्म योग दोनों की महत्ता बताते हुए कहा वेदों और उपनिषदों में इन दोनों के महत्व को रेखांकित किया गया है। उन्होंने पुस्तक के संदर्भ कहा कि यह आधुनिक दुनिया के लिए यह बहुत ही महत्वपूर्ण पुस्तक है। उन्होंने प्रचलित ‘ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या’ कथन से असहमति जताते हुए कहा कि कुछ भी मिथ्या नहीं है, बल्कि सब कुछ ब्रम्ह है। उन्होंने खुद को द्वैत दर्शन का समर्थक बताते हुए कहा कि उन्हें इश्वर के साक्षात रूप के दर्शन की

आकांक्षा है।

हम क्या हैं और कैसे मोक्ष मिले

पुस्तक के लेखक रघुनंदन ने इस मौके पर बताया कि योग वसिष्ठ और उस पर आधारित सभी पुस्तके देश भर में साधकों के लिए एक पथप्रदर्शक रही है। इसमें मूल रूप से तीस हजार छंद शामिल हैं, जो ऋषि वशिष्ठ और उनके शिष्य भगवान रामचंद्र के बीच एक संवाद के रूप में है। उन्होंने कहा कि योग वशिष्ठ के संदर्भ को लेकर और एक खोजकर्ता की दृष्टि से मैंने बहुत कुछ देखा और सीखा है। जीवन को लेकर हमारे सबके विचार अलग हो सकते हैं और हम सब अलग सोचतें हैं। मैंने जिंदगी को जिस रूप में देखा और जिस रूप में पाया, उसी तरह से यहां प्रतिपादित किया है। उन्होंने बताया कि जीवन को लेकर हमारा नजरिया कैसा हो, यह बहुत जरूरी है। हम क्या हैं और कैसे मोक्ष मिले, यही इस पुस्तक में लिखने की कोशिश की है। रघुनंदन ने भगवान बुद्ध और राम की कई कहानियों का जिक्र करते हुए वेदांत दर्शन के बारे में समझाया।

द्वैत- अद्वैत दर्शन

रघुनंदन ने दर्शन के बारे में कहा कि द्वैत का अर्थ है, सबको अलग-अलग रूप में देखना और

उपनिषद और गीता को जीवन का सार बताते हुए कहा कि ये ग्रंथ सबके लिए हैं। ऐसी धारणा कि उपनिषद केवल संन्यासियों के लिए है, गलत है। ज्ञान योग और कर्म योग दोनों का महत्व है, वेदों और उपनिषदों में इन दोनों के महत्व को रेखांकित किया गया है- डाॅ. कर्ण सिंह

प्रोफेसर जय कान्त शर्मा ने इस मौके पर कहा कि कर्म की उपेक्षा कर तत्व ज्ञान की प्राप्ति संभव नहीं है। उन्होंने चित्त को ही संसार बताते हुए कहा कि कर्म के लिए हमें सदैव तैयार रहना होगा। शर्मा ने योग को कर्म का प्रतीक और सांख्य को ज्ञान का प्रतीक बताते हुए कहा कि दोनों को साथ लेकर हम तत्व ज्ञान की प्राप्ति कर सकते हैं।

केंद्रित ध्यान है योग

इस मौके पर प्रोफेसर जेराल्ड जेम्स लार्सन ने कहा कि योग का मतलब बहुत ही केंद्रित ध्यान से है। योग को कर्म से जोड़कर देखा जाता है। उन्होंने वेदांत योग और पतंजलि योग के बारे में कहा कि दोनों में बहुत अंतर है। वेदांत योग में ज्ञान पर ज्यादा महत्व दिया गया है, वहीं पतंजलि योग में कर्म पर अधिक ध्यान दिया गया है। उन्होंने कहा कि यह सच है कि सांख्य ज्ञान की परम चेष्टा है और योग एक बड़ा प्रेरक बल है। सांख्य के प्रवर्तक जहां कपिलमुनि हैं, वहीं योग दर्शन के निर्माता पतञ्जलि हैं। सांख्य जहां कठिन रास्ता अपनाता है, वहीं योग सरल रास्ते से आगे बढ़ता है।

धार्मिकता से परम सत्य की ओर

वशिष्ठ को अद्वैत परंपरा का संस्थापक बताते हुए प्रोफेसर राम नाथ झा ने कहा कि अद्वैत का आधार प्रारंभ में संतों का बताया हुआ दर्शन था। बाद में यह परंपरा खूब फली-फूली। उन्होंने धार्मिक मन और वैज्ञानिक मन की तुलना करते हुए कहा कि धार्मिक मन वास्तविकता के अधिकतर हिस्से को स्वीकार कर लेता है, लेकिन वैज्ञानिक मन कटौती के सिद्धांत पर काम करता है और यह वास्तविकता को छोटे-छोटे हिस्सों में बांट देता है। उन्होंने कहा कि एक बच्चे और ज्ञान प्राप्त जाग्रत व्यक्ति, दोनों की सरलता हमें अपनी ओर खींचती है, लेकिन दोनों में फर्क यह है कि बच्चा स्वभाविक रूप से अपने मन के अनुसार सरल है, जबकि ज्ञान प्राप्त और जाग्रत दिमाग अपनी चैतन्यता की वजह से सरल नजर आता है।


26 मार्च - 01 अप्रैल 2018

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जंेडर

मुस्कुराहट के पीछे दुखों का पहाड़

अशोका रानी मुंडो ने अपनी शर्त पर अपना घर छोड़ा, क्योंकि वह किसी को भी अपनी दशा पर चिंतित और दुखी नहीं देखना चाहती थीं

खास बातें

स्वस्तिका त्रिपाठी

शोका का मतलब जिसे कोई शोक न हो,कोई दु:ख न हो। अशोका रानी मुंडो ने अपने नाम को पूरी तरह सार्थक किया है। अशोका एक ऐसा व्यक्तित्व है, जो बड़ी खूबसूरती से मुस्कुराते हुए अपने दर्द को छुपा लेती हैं, जिसे पहली मुलाकात में जानना समझना काफी कठिन है। इस समय अशोका रानी वृंदावन में सुलभ की सहायता वाले विधवा आश्रम में रहती हैं। कोलकाता की रहने वाली अशोका रानी मुंडो का जीवनकाल बादलों में कैद बिजली की तरह है। हालांकि उनसे बातचीत के बाद भी उनके व्यक्तित्व का दुखों से भरा पक्ष बाहर नहीं आ पाया। अशोका रानी की शादी 15 साल की उम्र में हो गई थी और शादी के कुछ समय बाद ही उनको एक बेटा हुआ। जब वह मात्र ढाई साल का था तभी अशोका के पति की मृत्यु हो गई। अशोका रानी ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उनके पति उन्हें जीवन के इस कठिन राह पर अकेला छोड़ जाएंगे। किसी भी अन्य विधवा मां की तरह वह भी अपने जीवन में आने वाले अंधेरे को देख सकती थीं। उनकी सबसे बड़ी चिंता बच्चे को पालने का था। वह अकेली होती तो किसी भी तरह अपना गुजारा कर लेतीं, लेकिन बच्चे को पालने की चिंता उन्हें दिन-रात सताने लगी। इन्हीं चिंताओं के बीच अशोका रानी ने खेतों में काम करना शुरू कर दिया। वह पूरे दिन कड़ी धूप और सर्दी में खेतों में काम करतीं और उससे जो पैसे मिलते उसी से बेटे की देखभाल करतीं । आय के इसी एकमात्र स्रोत के साथ उन्होंने न केवल अपने बेटे को शिक्षित किया, बल्कि उसकी शादी भी कर दी। इन सभी संघर्षों के बीच में अशोका रानी हर हाल में मुस्कुराते रहने की कला को बचाए रखती हैं और कभी भी अपने अंदर के दुखों का आभास भी किसी को लगने नहीं देतीं। उनके बेटे को उसकी योग्यता के अनुरूप नौकरी तो मिल गई, लेकिन मां और पत्नी दोनों का खर्च उठाने के लिए वह पर्याप्त पैसा नहीं कमा पाता था। उसके बाद अशोका रानी के बेटे को दो बेटियां हो गई, जिससे घर का खर्च और अधिक बढ़ गया। घर का खर्च चलाने के लिए अपने बेटे को संघर्ष करते हुए देख कर अशोका रानी ने कहा कि वह उनकी चिंता ना करे, बल्कि अपने परिवार का ध्यान रखे। वह अपना ध्यान खुद रख लेंगीं। अशोका रानी ने सुना था कि उत्तर प्रदेश में वृंदावन एक ऐसा स्थान हैं, जहां उनके जैसी विधवा महिलाएं रहती हैं। वह अपने पास-पड़ोस की कुछ ऐसी महिलाओं को जानती थीं, जो वृंदावन अक्सर जाया करती थीं। उन्होंने उन महिलाओं से बात की

अशोका रानी की शादी 15 साल की उम्र में हो गई थी जब उनका बेटा ढाई साल का था तभी उनके पति की मृत्यु हो गई अशोका रानी अपने प्रियजनों की खुशी के लिए वृंदावन आ गईं

सभी संघर्षों और दुखों को छिपा कर अशोका रानी की अपनी मुस्कुराहट हमेशा बनाए रखने की कला अब भी बरकरार है और उसके बाद उनके साथ अपना घर छोड़ कर वृंदावन आ गईं। तब से अशोका रानी यहीं ठाकुर जी और राधा रानी की सेवा करती हैं। अशोका रानी के बेटे-बहू उनके इस फैसले से काफी आश्चर्यचकित थे, दोनों ने उनसे साथ रहने की विनती की, लेकिन अशोका रानी का फैसला अटल था। वह अपने बेटे और उसके परिवार को लेकर काफी चिंतित थीं। उन्हें पता था कि आने वाले समय में उनकी दोनों पोतियों की शादी में दहेज के खर्चे अधिक होने हैं। इसीलिए वह अपने प्रियजनों की भलाई के लिए वृंदावन की यात्रा पर दूसरी महिलाओं के साथ निकल गईं। वह कहती हैं कि उन्हें यहां भगवान के चरणों में रहना अच्छा

लगता है और मन को शांति मिलती है। वह कहती हैं कि मैं अपने बेटे और उसके परिवार से बहुत प्यार करती हूं और वे लोग भी हमें मान-सम्मान देते हैं, लेकिन मुझे उनसे अलग होना पड़ा, क्योंकि यह मुझे मेरे बेटे के दुखों को समाप्त करने के लिए एक अनुकूल विकल्प के रूप में लगा। वह कहती हैं कि अक्सर स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं उन पर हावी हो जाती हैं, जो उन्हें यहां से वापस जाने के लिए विचार करने पर मजबूर कर देती हैं, लेकिन उनकी दोनों पोतियों की अभी तक शादी नहीं हुई है। क्योंकि उनकी शादी में काफी ज्यादा धन खर्च होना है, इसीलिए उन्होंने कभी भी उन विचारों को खुद पर हावी नहीं

होने दिया। अशोका कहती हैं कि वह अपने बेटे और उसके परिवार के लिए बहुत चिंतित हैं और भगवान से प्रार्थना करती हैं कि मेरे बच्चों के लिए चीजें आसान हो जाएं। वह बताती हैं कि यह सब कभी-कभी उनके दिल को दर्द देता है, लेकिन यह सभी के लिए अच्छा है। वह अपनी आंखों से छलकते आंसुओं को बड़ी दृढ़ता से रोक लेती हैं और फिर से मुस्कुराने लगती हैं। उन्हें आश्रम में रहते हुए काफी समय हो गया है, यहां उनकी कई विधवा महिलाएं मित्र बन गई हैं, जिनके साथ वह हंसती हैं, बातें करती हैं। यदि उनके स्वास्थ्य संबंधित समस्याओं को छोड़ दें तो अशोका रानी अपने मित्रों के साथ मिलकर ठाकुर जी का भजन गाती हैं और भगवान की मूर्ति के लिए खूबसूरत रंगीन कपड़े भी सिलती हैं। उनके कमरे की खास बात अगरबत्ती की सुगंध है, जो उनके कमरे को आकर्षक बनाती है। वह बड़े प्यार से अपने कमरे में स्वागत करती हैं, जहां उन्होंने एक सिलाई मशीन और भगवान का छोटा सा मंदिर बना रखा हैं, जिसे वह बड़े ही प्यार से दिखाती हैं। सिलाई मशीन पर वह अपने भगवान (लड्डू गोपाल) के लिए बड़े ही स्ने​ह से कपड़े सीलती हैं। वह अपनी इस कला से चिंताओं के बावजूद मुस्कुराना और दर्द के दौरान हंसते रहना ही सबको सिखाती हैं। अशोका रानी कहती हैं कि इस सुलभ आश्रम में रहना किसी आरामदायक जीवन से कम नहीं है। यहां मेरी बहुत सी मित्र हैं, जिनके साथ मैं अपने सभी दुख-दर्द भूल जाती हूं। कहती हैं, ओह, मेरे बारें में बहुत हुआ अब अपने बारे में कुछ बताओ। आप मेरे लिए एक बेटी की तरह हैं। आज मैं प्रसाद में हलवा बना रही हूं, खा कर ही जाना, बिना खाए नहीं जाना और आप शादी कब कर रही हैं? इतने अपनेपन के साथ बात करके उन्होंने मेरे मन को छू लिया। हालांकि इसके बाद वह एक बार फिर से अपने दुखों में डूब जाती हैं।


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भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की रैलियों में उमड़ी भीड़ को मीडिया द्वारा विशाल बताया गया है। यह निस्संदेह भारत के चुनावी इतिहास में सबसे बड़ा जनसंपर्क अभियान था

पुस्तक अंश

26 मार्च - 01 अप्रैल 2018

नरेंद्र मोदी की रैलियां

भाजपा ने इस चुनाव अभियान को ‘ऐतिहासिक' और ‘अनोखा’ बताते हुए इसके गहरे प्रभाव को वैक ​ ल्पिक महत्व का माना है

20 दिसंबर, 2013 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी में राजा तालाब क्षेत्र के खजुरी मैदान पर नरेंद्र मोदी का एक विशाल जनसभा के दौरान स्वागत किया गया।

झारखंड के रांची में विजय संकल्प रैली में नरेंद्र मोदी

2 मार्च, 2014 को उत्तर प्रदेश के लखनऊ में रमाबाई आंबेडकर मैदान में विजय संकल्प रैली में उत्साहित भाजपा समर्थक

2 फरवरी, 2014 को उत्तर प्रदेश के मेरठ में एक रैली के दौरान अपने नेता की एक झलक पाने की कोशिश में भाजपा समर्थक


26 मार्च - 01 अप्रैल 2018

मुंबई में एक दुकान पर साड़ी पर बनी नरेंद्र मोदी की तस्वीर

पुस्तक अंश

अहमदाबाद में एक रोड शो के बस और उस पर बनी नरेंद्र मोदी की तस्वीर एक महिला के चश्में में

अहमदाबाद के मंदिर में नरेंद्र मोदी के समर्थक उनकी जीत के लिए प्रर्थना अहमदाबाद के एक बाजार में स्टेनलेस स्टील की बाल्टी पर नरेंद्र मोदी की छवि करते हुए

8 मई, 2014 को वाराणसी में नरेंद्र मोदी के समर्थकों की भीड़

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8 जनवरी, 2014 को हैदराबाद में मकर संक्रांति से पहले नरेंद्र मोदी के चित्रों से सुसज्जित पतंगांे के साथ पतंग विक्रेता

22 दिसंबर, 2013 को नरेंद्र मोदी की मुंबई में हुई रैली में एक उत्साहित महिला समर्थक


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बड़ी स्वीकृति

पुस्तक अंश

26 मार्च - 01 अप्रैल 2018

नरेंद्र मोदी ने लोगों के जनादेश को स्वीकार करते हुए ट्वीट किया, भारत जीता है। कुछ ही देर में यह संदेश 61,000 से अधिक ट्वीट्स के साथ हिट हो गया। इसे लगभग 38,000 लाइक्स मिले। ‘नरेंद्र मोदी ने निर्वाचित होने के बाद अपनी धन्यवाद रैलियों में कहा।’ 24 अप्रैल, 2014 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी में एक रैली को संबोधित करते हुए नरेंद्र मोदी

24 अप्रैल, 2014 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी में नामांकन पत्र दाखिल करने के दौरान उमड़ी भीड़ का धन्यवाद करते हुए नरेंद्र मोदी

उत्तर प्रदेश के वाराणसी में नरेंद्र मोदी के चुनाव परिणाम के बारे में खबरों का इंतजार करते हुए लोग

24 अप्रैल, 2014 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी में अपना नामांकन पत्र दाखिल करने के लिए एक खुले ट्रक पर सवार होकर जाते नरेंद्र मोदी के समर्थन में उमड़ी अपार भीड़


26 मार्च - 01 अप्रैल 2018

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पुस्तक अंश

भाजपा और राजग सहयोगियों द्वारा जीती सीटों का राज्यवार ब्योरा राज्य

नरेंद्र मोदी ने वाराणसी लोकसभा सीट पर 3.37 लाख मतों के बड़े अंतर के साथ रिकॉर्ड जीत हासिल की

सरकार को चलाने के लिए हमारे पास स्पष्ट बहुमत है, लेकिन यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम सभी को भारत के निर्माण में शामिल करें। हम इस बात को लेकर निश्चित रहें कि हमारा भविष्य ही हमारा सपना है। भारत के 1.25 अरब लोग आज अपने देश के लिए जीवन देने के बारे में नहीं सोचं,े बल्कि इसके लिए जीने का इरादा दिखाएं। अगर 1.25 अरब लोग इस तरह का फैसला करते हैं तो यह हमारे देश को 1.25 अरब कदम आगे ले जाएगा।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

उत्तर प्रदेश मध्यप्रदेश तेलंगाना आंध्रप्रदेश अरुणाचल प्रदेश असम बिहार छत्तीसगढ़ गोवा गुजरात हरियाणा हिमाचल प्रदेश जम्मू-कश्मीर झारखंड कर्नाटक महाराष्ट्र मणिपुर मेघालय मिजोरम नागालैंड ओडिशा पंजाब राजस्थान सिक्किम तमिलनाडु उत्तराखंड पश्चिम बंगाल अंडमान-निकोबार चंडीगढ़ दादरा और नगर हवेली दमन और दीव दिल्ली लक्षद्वीप पुदुचेरी

कुल भाजपा संविधान द्वारा जीती

80 29 17 25 2 14 40 11 2 26 10 4 6 14 28 48 2 1 1 1 21 13 25 1 39 5 42 1 1 1 1 7 1 1

71 27 1 17 1 7 22 10 2 26 7 4 3 12 17 23

राजग द्वारा जीती

2 (अपना दल) --1 (टीडीपी) 2 (टीडीपी) (3आरएसएलपी, 6एलजेपी)

2 (इनेलो) 3(जेएंडके डेमोक्रेटिक पार्टी) 18 (शिव सेना) 1 स्वाभिमानी पक्ष 1 (एनपीपी)

1 2 25 1 5 2 1 1 1 1 7

1 (एनपीएफ) 4 (शिरोम​िण अकाली दल) 1 (सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट) 1 (पीएमके)

1 (ऑल इंडिया एनआर कांग्सरे )

नरेंद्र मोदी की जीत पूरे देश में मनाई जा रही है।

(अगले अंक में जारी...)


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सा​िहत्य

26 मार्च - 01 अप्रैल 2018

समय का महत्व

हुत समय पहले की बात है, एक छोटेसे शहर में एक धनी व्यक्ति रहता था। उसने अपना सारा जीवन पैसा कमाने में लगा सिमरन दिया था। उसके पास इतना पैसा था कि वह पूरे शहर को खरीद सकता था, लेकिन अपने पूरे जीवन में उसने किसी की भी मदद नहीं की। उसने अपने पैसों को कभी भी अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए भी उपयोग नहीं किया। वह पैसा कमाने में इतना ज्यादा व्यस्त हो गया था कि उसे इस चीज का भी एहसास नहीं हुआ कि अब वह बूढ़ा हो गया है। आखिरकार वह समय आ ही गया जब मृत्यु के देवता यमराज ने रात में उसके दरवाजे पर दस्तक दी। यमराज ने बोला - तुम्हारा समय समाप्त हो चुका है। अब तुम्हें मेरे साथ चलना होगा। धनी व्यक्ति ने उत्तर दिया - लेकिन मैंने अपना जीवन अभी नहीं जिया है। मैं काम करने में व्यस्त था। यमराज ने कहा - नहीं, मैं तुम्हें और अधिक समय नहीं दे सकता। मेरे पास समय कम है।

आदमी ने कहा - देखो, मेरे पास बहुत सारा धन है। मैं आपको अपने धन का आधा हिस्सा दूंगा। यमराज ने कहा - नहीं, यह संभव नहीं है। आदमी ने कहा - ठीक है, मैं आपको अपनी सारी संपत्ति दूंगा, बदले में मुझे एक घंटा मिल सकता है? यमराज ने कहा - आप अपने धन के साथ समय नहीं खरीद सकते। आखिरकार आदमी ने कहा - मुझे कुछ मिनट दे दो, मैं एक पत्र लिखना चाहता हूं। यमराज इस बात पर सहमत हो गए। उस आदमी ने अपने शहर के लोगों को एक पत्र लिखा। जो भी इस पत्र को कभी भी प्राप्त करता है, वह मेरे संदेश को दूसरों तक जरूर पहुंचाए। पूरे जीवन मैंने अमीर बनने के लिए वास्तव में कड़ी मेहनत की। आज मेरे पास बहुत सारा धन है, लेकिन आज मैं अपने पूरे धन से अपने जीवन का एक घंटा भी उधार नहीं ले सका। इसीलिए मैं सभी को यह बताना चाहता हूं कि अपने समय और जीवन को महत्व दें। वर्तमान में जीएं। कड़ी मेहनत करना अच्छी बात है, लेकिन कभी भी अपनी जिंदगी को जीना न भूलें। पैसे से समय को किसी भी कीमत पर नहीं खरीदा जा सकता। जीवन भगवान का दिया हुआ एक खूबसूरत उपहार है इसे पूरी तरह से जीएं। दूसरों की मदद करें।

कविता

जिंदगी ना मिलेगी दोबारा रीमा

काजल

कर्ण की नैतिकता हाभारत का युद्ध अपनी चरम सीमा पर था और कौरवों की ओर से कर्ण सेनापति था। कौरवों और पांडवों के बीच भीषण युद्ध चल रहा था। हर तरफ मार काट मची थी। कौरवों की ओर से कर्ण और पांडवों की ओर से अर्जुन एक दूसरे से युद्ध कर रहे थे। कभी अर्जुन का पलड़ा भारी पड़ता तो कभी कर्ण का पलड़ा भारी होता। अचानक अर्जुन ने अपनी धनुष विद्या का प्रयोग कर कर्ण को पस्त कर दिया। कर्ण धराशायी सा हो गया। हालांकि वह भी एक नंबर का तीरंदाज था, लेकिन अर्जुन के आगे उसका टिक पाना बहुत

मुश्किल साबित हो रहा था। तभी एक जहरीला सांप कर्ण के तरकश में तीर बन कर घुस गया तो कर्ण ने जब तरकश से बाण निकालना चाहा तो उसे उसका स्पर्श कुछ अजीब सा लगा। कर्ण ने सांप को पहचान कर उससे कहा कि तुम मेरे तरकश में कैसे घुसे तो इस पर सांप ने कहा, हे कर्ण, खांडव वन में आग लगाई गई थी और उसमे मेरी माता जल गईं थी, तभी से मेरे मन में अर्जुन के प्रति बदले की भावना है। इसीलिए तुम मुझे बाण के रूप में अर्जुन पर चला दें और मैं उसे जाते ही डंस लूंगा, जिस से मेरा बदला पूरा हो जाएगा। क्योंकि अर्जुन की मौत हो जाएगी और दुनिया तुम्हें विजयी कहेगी। सांप की बात सुनकर कर्ण ने

सहजता से कहा कि ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि ये नैतिक नहीं है और हे सर्पराज अर्जुन ने अवश्य खांडव वन में आग लगाई, लेकिन निश्चित ही अर्जुन का ये उद्देश्य नहीं था और मैं इसमें अर्जुन को दोषी नहीं मानता। उससे ये अनजाने में ही हो गया होगा। यह भी कि अनैतिक तरीके से विजय प्राप्त करना मेरे संस्कारों में नहीं है। इसीलिए मैं ऐसा अनैतिक काम नहीं करुंगा। अगर मुझे अर्जुन को हराना है तो मैं उसे नैतिक तरीके से हराऊंगा। इसीलिए, हे सर्पराज, आप वापस लौट जाएं और अर्जुन को कोई भी नुकसान न पहुंचाएं। कर्ण की बातें सुनकर सर्प का मन बदल गया और वह बोला कि हे कर्ण, तुम्हारी दानशीलता और सच्चाई की मिसाल युगों-युगों तक दी जाती रहेगी। सर्प वहां से उड़ गया और कर्ण को अपने प्राण गंवाने पड़े। शिक्षा- हमे किसी भी अवस्था में नैतिकता का साथ नहीं छोड़ना चाहिए फिर चाहे उसकी कीमत कुछ भी क्यों न चुकानी पड़े।

क्या हुआ जो देर हो रही मुकाम पाने में क्या हुआ जो देर हो रही जिंदगी आसान बनाने में क्या हुआ जो देर हो रही किसी रास्ते पर चल पाने में क्या हुआ जो देर हो रही सपनों की दुनिया सजाने में देर से ही सही, पर होगी कोई बात नई तेरी आनेवाली जिंदगी होगी खुशियों भरी क्यों मुस्कुराना भूलते हो, बीती बातों को याद करके क्यों उलझनों में झूलते हो, वर्तमान को बर्बाद करके दिल में जो ख्वाब हैं, उन्हें साकार करो तुम अपने इरादों से दिन रात प्यार करों तुम तुझमें दम है तो खुद की दुनिया बनाओ तुम जो किसी ने नहीं किया हो वो कर जाओ तुम जो रुक गया जिंदगी के सफर में यहां बस वही हारा जो चलता रहा जिंदगी में वक्त ने खुद उसके जीवन को संवारा तुम भी जी लो जिंदगी के एक-एक पल को खुल कर क्योंकि जिंदगी ना मिलेगी फिर दोबारा से|


26 मार्च - 01 अप्रैल 2018

आओ हंसें

मजेदार जवाब

सुबह-सुबह फेरी वाला आवाज लगा रहा था... ‘चाकू छुरियां तेज करा लो, चाकू छुरियां तेज करा लो.’ महिला– भैया अक्ल भी तेज करते हो क्या ? फेरी वाला – हां बहन जी, अक्ल हो तो ले आइए।

तेज दिमाग

पप्पू– आजकल मेरा दिमाग बहुत तेज चल रहा है। गोलू- कैसे दोस्त? पप्पू– मैंने अब सर्दी में एसी लगवा लिया है। गोलू– अबे इतनी सर्दी में एसी? पप्पू– भाई, मैंने एसी उल्टा लगवाया है। वो गर्म हवा अंदर देगा, ठंडी हवा बाहर।

सु

जीवन मंत्र

डोकू -15

तुम कब सही थे इसे कोई याद नहीं रखता है तुम गलत थे इसे कोई नहीं भूलता है

रंग भरो

सुडोकू का हल इस मेल आईडी पर भेजेंssbweekly@gmail.com या 9868807712 पर व्हॉट्सएप करें। एक लकी व‌िजते ा को 500 रुपए का नगद पुरस्कार द‌िया जाएगा। सुडोकू के हल के ल‌िए सुलभ स्वच्छ भारत का अगला अंक देख।ें

महत्वपूर्ण दिवस • 26 मार्च बांग्लादेश मुक्ति दिवस • 27 मार्च विश्व रंगमंच दिवस • 30 मार्च राजस्थान स्थापना दिवस • 31 मार्च वित्तीय वर्ष समाप्त • 1 अप्रैल अंतरराष्ट्रीय मूर्ख दिवस, ओडिशा स्थापना दिवस, बैंकों की वार्षिक लेखाबंदी

बाएं से दाएं

सुडोकू-14 का हल

वर्ग पहेली - 15

1. रसद की खेप (3) 2. लौ, अग्नि, शिखा (3) 3. नक्षत्र (2) 4. सहित (2) 5. मीठा (3) 7. कमल (3) 9. प्रकृति, स्थिति, वातावरण (5) 11. काट-छाँट (3,2) 12. दूरी (3) 13. पहनावा (3) 17. भगवान (3) 18. बहाव (3) 19. इस मात्रा में (3) 20. रसिया (3) 21. राय (2) 22. कविता लिखने वाला (2)

वर्ग पहेली-14 का हल

1. निपुणता (4) 4. स्वर्गवासी (4) 6. हार (4) 8. धोखा, बनावटी व्यवहार (3) 10. ईंट, पत्थर के छोटे टुकड़े (3) 12. सम्पुट (3) 14. मक्खन (4) 15. सवेरे का सूरज (2-2) 16. धनवान (3) 18. ओम ऊँ (3) 19. भिन्न (3) 21. पन्ना, एक बहुमूल्य रत्न (4) 23. बाल, दाढ़ी आदि बनाना (4) 24. गणेश (4)

ऊपर से नीचे

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इंद्रधनुष

कार्टून ः धीर


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न्यूजमेकर बालकृष्ण दोशी

26 मार्च - 01 अप्रैल 2018

वास्तुकला का ‘नोबेल’

आर्किटेक्चर के नोबेल के नाम से ख्यात प्रित्जकर प्राइज पाने वाले बालकृष्ण दोशी पहले भारतीय हैं

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रतीय वास्तुविद बालकृष्ण दोशी को आर्किटेक्चर के प्रित्जकर प्राइज से सम्मानित किया जाएगा। आर्किटेक्चर के नोबेल के नाम से ख्यात इस पुरस्कार के विजेता की हाल ही में की गई है। दोशी को प्रित्जकर प्राइज से सम्मानित किए जाने की घोषणा के बाद राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने ट्वीट कर बधाई दी है। 90 वर्षीय दोशी उन जीवित लोगों में से एक हैं, जिन्होंने ली कार्बूजियर के साथ काम किया है। दोशी ने टिकाऊ वास्तुकला और सस्ते आवास के निर्माण द्वारा अपने काम को प्रतिष्ठित किया और आधुनिकतावादी डिजाइन को भारत लेकर आए, जिसमें परंपरा से प्रेरणा का सुंदर समावेश है। 45वें प्रित्जकर विजेता दोशी इस पुरस्कार को पाने वाले पहले भारतीय हैं। पुरस्कार लेने के लिए दोशी मई में टोरंटो जाएंगे और वहां एक लेक्चर भी देंगे। प्रित्जकर ज्यूरी ने अपने बयान में कहा, 'बालकृष्ण दोशी ने हमेशा ऐसा आर्किटेक्ट बनाया है जो गंभीर हैं।

वे किसी ट्रेंड को फॉलो नहीं करते हैं।' मुंबई के जेजे स्कूल ऑफ आर्किटेक्चर से पढ़ाई करने वाले दोशी ने वरिष्ठ आर्किटेक्ट ली कार्बूजियर के साथ पेरिस में साल 1950 में काम किया था। उसके बाद वे भारत के प्रोजेक्ट्स का संचालन करने के लिए वापस देश लौट आए। उन्होंने 1955 में अपने स्टूडियो वास्तु-शिल्प की स्थापना की और लुईस काह्न और अनंत राजे के साथ मिलकर अहमदाबाद के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट के कैंपस को डिजायन किया। दोशी ने आईआईएम बेंगलुरु और लखनऊ, द नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ फैशन टेक्नोलॉजी, टैगोर मेमोरियल हॉल, अहमदाबाद का द इंस्टीट्यूट ऑफ इंडोलॉजी के अलावा देश भर में कई महत्वपूर्ण परिसरों और इमारतों को डिजाइन किया है। इनमें कुछ कम लागत वाली परियोजनाएं भी शामिल हैं।

बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन

महिला तरक्की का ‘फाउंडेशन’

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ल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन ने भारत समेत 4 देशों में महिला सशक्तिकरण को आगे बढ़ाने के लिए 1100 करोड़ रुपए (170 मिलियन अमेरिकी डॉलर) निवेश करने की घोषणा की है। फाउंडेशन की को-चेयरपर्सन मेलिंडा गेट्स ने यह घोषणा करते हुए बताया कि भारत के अलावा केन्या, तंजानिया और युगांडा को भी इसमें शामिल किया गया है। मेलिंडा ने ये एलान अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के एक दिन पहले किया है। इस निवेश में महिला को सशक्त बनाने के लिए लैंगिक समानता, डिजिटल वित्तीय समावेशीकरण, महिलाओं के लिए रोजगार और उन्हें कृषि क्षेत्र में मदद करने जैसी बातों को वरीयता दी गई है। मेलिंडा गेट्स के मुताबिक, ‘महिलाएं आर्थिक रूप से अपने और अपने परिवार का जीवन बेहतर बना सकती हैं। जब महिलाओं के पास खुद का पैसा होता है और उसे खर्च करने की आजादी होती है तब उनके विश्वास और ताकत में इजाफा होता है। इससे महिलाएं उन अलिखित नियमों को भी बदल देती

डाक पंजीयन नंबर-DL(W)10/2241/2017-19

मेलिंडा गेट्स ने भारत समेत 4 देशों में महिला सशक्तिकरण के लिए 1100 करोड़ रुपए निवेश की घोषणा की

हैं, जिनमें महिलाओं को पुरुषों से कम आंका जाता है।’ फाउंडेशन की मानें तो ये इन्वेस्टमेंट उनके पिछले कमिटमेंट पर आधारित है, जिसमें लिंग समानता के लिए 519 करोड़ 64 लाख और महिलाओं के आंदोलन को समर्थन देने के लिए 129 करोड़ 91 लाख रुपए निवेश करने की बात कही गई थी। मेलिंडा ने तथ्यों का हवाला देते हुए कहा कि जब-जब महिलाओं को घर से बाहर काम करने का या फाइनेंशियल सर्विस में भाग लेने का मौका मिलता है तो उनका परिवार गरीबी से बाहर निकलता है और देश की जीडीपी में ग्रोथ होती है। बिल गेट्स ने वर्ष 2000 में माइक्रोसॉफ्ट सीईओ पद छोड़ने के बाद पत्नी मेलिंडा के साथ बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन बनाया था। यह दुनिया की सबसे बड़ी निजी चैरिटी संस्था है।उन्होंने 1999 में एक लाख करोड़ रुपए के माइक्रोसॉफ्ट के शेयर दान किए थे, जिसके बाद 2000 में 32,000 करोड़ रुपए से बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन की शुरुआत हुई थी।

अनाम हीरो शहनाज खान

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पेशे से डॉ. शहनाज ने राजस्थान में अपने गांव की सेवा करने और बेटियों को उनकी शिक्षा में मदद करने का संकल्प लिया है

भी कन्या भ्रूण हत्या के लिए बदनाम रहे राजस्थान में अब बेटियों ने सारी दुनिया के सामने अपने सशक्तिकरण की एक अनोखी मिसाल पेश की है। भरतपुर जिले की एक ग्रामीण बेटी ने एमबीबीएस की पढ़ाई पूरी करने के बाद अब गांव की बच्चियों को भी उनके सपने पूरा करने में मदद करने का कार्य शुरू किया है। भरतपुर की इस बेटी का नाम शहनाज खान है, जो राज्य की सबसे युवा महिला सरपंच चुनी गई हैं। पेशे से डॉक्टर शहनाज ने अब गांव की सेवा करने और बेटियों को उनकी शिक्षा में मदद करने का संकल्प लिया है, जिसके कारण उनके परिवार और क्षेत्र के लोग उनकी सराहना कर रहे हैं। 24 साल की शहनाज पेशे से डॉक्टर हैं और उन्होंने इसी साल एमबीबीएस की फाइनल परीक्षा दी है। बतौर सरपंच अपना कामकाज संभालने के बाद उन्होंने गांव के लोगों के बीच अपनी प्राथमिकताओं के बारे में चर्चा की। इस दौरान शहनाज ने कहा कि मैं बेहद गौरवान्वित हूं कि मुझे अपने लोगों की सेवा करने का मौका मिला है। बतौर सरपंच मेरी प्राथमिकता होगी कि गांव में बच्चियों के लिए शिक्षा और स्वच्छता की बेहतर व्यवस्थाएं सुनिश्चित कराई जा सकें। उन्होंने कहा कि मैं यह भी चाहती हूं कि मैं बेटियों के सामने यह उदाहरण दे सकूं कि शिक्षा से समाज में बदलाव हो सकता है। शहनाज के पहले राजस्थान के टोंक जिले में भी एमबीए स्कॉलर छवि राजावत ने अपने पैतृक गांव सोडा की सबसे युवा सरपंच बन राज्य के लोगों के सामने एक मिसाल पेश की थी। कई निजी कंपनियों में काम कर गांव की सरपंच बनीं राजावत को संयुक्त राष्ट्र में आयोजित 11वें इन्फो-पॉवर्टी वर्ल्ड कॉन्फ्रेंस में भी आमंत्रित किया गया था।

आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597; संयुक्त पुलिस कमिश्नर (लाइसेंसिंग) दिल्ली नं.-एफ. 2 (एस- 45) प्रेस/ 2016 वर्ष 2, अंक - 15


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