सुलभ स्वच्छ भारत - वर्ष-2 - (अंक 45)

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स्वच्छता

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यूएन तक पहुंचा सुलभ का स्वच्छता आंदोलन

गांबिया

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राजनीतिक अस्थिरता से स्वच्छता अप्रभावित

खेल

दरिद्रता और दर्द के बीच सफलता की इबारत डाक पंजीयन नंबर-DL(W)10/2241/2017-19

आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597

बदलते भारत का साप्ताहिक

वर्ष-2 | अंक-45 |22 - 28 अक्टूबर 2018 मूल्य ` 10/-

संयुक्त राष्ट्र

शांति से लेकर स्वच्छता तक शांति से लेकर स्वच्छता और सेहत की चिंता के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अगर किसी एक संस्था ने सर्वाधिक पहल के साथ सफलता के आख्यान लिखे हैं, तो वह है संयुक्त राष्ट्र


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सं

आवरण कथा

22 - 28 अक्टूबर 2018

एसएसबी ब्यूरो

युक्त राष्ट्र संघ की स्थापना द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात भावी पीढ़ियों को युद्ध की विभीषिका से बचाने के लिए की गई थी। आगे चलकर इसका नाम सिर्फ संयुक्त राष्ट्र रह गया। इस संस्था का मूल उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय शांति बनाए रखने के लिए देशों के क्रिया-कलापों में समरसता लाना और सभी समस्याओं व विवादों को शांतिपूर्ण उपायों से सुलझाने, संकट को टालने, शक्ति के प्रयोग को रोकने तथा हस्तक्षेप पर अंकुश लगाने के लिए सार्वभौमिक राष्ट्रों की समानता के आधार पर दायित्व निभाना है।

मुख्यालय न्यूयार्क में

24 अक्टूबर 1945 ई. को स्थापित इस विश्व संस्था का मुख्यालय उत्तरी अमेरिका के न्यूयार्क शहर में है। इस संस्था के गठन में अमेरिका, रूस, इंग्लैंड, फ्रांस, चीन आदि देशों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। तब से लेकर अब तक इस संस्था के सदस्य देशों की संख्या निरंतर बढ़ रही है और दुनिया के प्राय: सभी देश आज इसके सदस्य हैं।

संस्था के प्रमुख अंग

संयुक्त राष्ट्र के अंगों में महासभा, सुरक्षा परिषद्, आर्थिक एवं सामाजिक परिषद्, न्यास परिषद्,

का अधिकार प्राप्त है। संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के समय इसके सदस्यों की संख्या मात्र 50 थी, जो आज बढ़कर लगभग 200 तक पहुंच गई है। यह तथ्य इस संस्था की बढ़ती लोकप्रियता का प्रमाण कहा जा सकता है।

भारत का निष्ठापूर्ण जुड़ाव

अंतरराष्ट्रीय न्यायालय तथा सचिवालय का नाम प्रमुख है। इसकी कार्यपालिका को सुरक्षा परिषद् के नाम से जाना जाता है जिसके पांच स्थायी सदस्य अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन हैं। यह संयुक्त राष्ट्र का सबसे शक्तिशाली अंग है तथा पांचों स्थाई सदस्यों को किसी भी मामले में वीटो

भारत सदा से ही शांति के मार्ग पर चलनेवाला देश रहा है। अपनी समस्याओं के निराकरण के लिए भारत ने शांति का रास्ता अपनाया है। अत: भारत की संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाओं में पूर्ण आस्था है। भारत विश्वशांति की स्थापना में सदा योगदान करता आया है। भारत संयुक्त राष्ट्र का आरंभ से ही सदस्य रहा है तथा उसके कार्यों में सक्रिय रूप से भाग लेता है। भारत ने स्वतंत्र राष्ट्र न होने पर भी संयुक्त राष्ट्र के घोषणा- पत्र पर दो कारणों से हस्ताक्षर किए थे1. दूसरे राष्ट्रों के सैनिकों के साथ भारत के सैनिक द्वितीय महायुद्ध में लड़ रहे थे। अत: भारत युद्ध के विनाश को जानता था।

आज का युग बाजार से लेकर कूटनीति तक वैश्विक आग्रहों का है। संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाओं के अभाव में विश्व की कल्पना नहीं की जा सकती। चाहे विश्व का कोई कितना भी समृद्ध देश क्यों न हो, उसे संयुक्त राष्ट्र के आदेशों का पालन करना ही है

खास बातें 24 अक्टूबर 1945 को स्थापित हुआ संयुक्त राष्ट्र संघ इस संस्था का मूल उद्शदे ्य अंतरराष्ट्रीय शांति बनाए रखना है संयुक्त राष्ट्र के अभियानों के साथ भारत का शुरू से निष्ठापूर्ण जुड़ाव 2. भारत के नेता विश्व में शांति बनाए रखने की हमेशा कोशिश करते थे। संयुक्त राष्ट्र में भारत का विशिष्ट स्थान है। भारत के पूर्व प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू संयुक्त राष्ट्र के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने कहा भी था, ‘संयुक्त राष्ट्र संघ के बिना आज की दुनिया जीवित रह सकती है, मैं सोच भी नहीं सकता।’ उन्होंने स्वतंत्र वैदेशिक नीति तथा पंचशील के सिद्धांत का अनुसरण करते हुए संयुक्त राष्ट्र द्वारा शांति लाने का प्रयास किया था।


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आवरण कथा

यूएन तक पहुंचा सुलभ का स्वच्छता आंदोलन

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आज अगर भारत में स्वच्छता मिशन की कामयाबी का गुणगान संयुक्त राष्ट्र के महासचिव भी कर रहे हैं तो इसके पीछे स्वच्छता के सुलभ आंदोलन की बड़ी भूमिका है

02 जुलाई, 2008: 'मिशन सैनिटेशन' नाम से संयुक्त राष्ट्र में आयोजित फैशन शो में सुलभ इंटरनेशनल द्वारा संचालित नई दिशा केंद्र, अलवर की प्रशिक्षु महिलाएं नामी-गिरामी भारतीय माॉडल्स के साथ रैंप पर

स्व

च्छता को आंदोलन से आगे एक समाजशास्त्रीय पाठ के तौर पर देशदुनिया के सामने लाने का श्रेय अगर किसी को जाता है तो वे हैं सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक। पांच दशकों तक स्वच्छता के क्षेत्र में क्षेत्र में जिस निष्ठा और लगन के साथ उन्होंने कार्य किया है, वह अभूतपूर्व है। आज अगर भारत में स्वच्छता मिशन की कामयाबी का गुणगान संयुक्त राष्ट्र के महासचिव भी कर रहे हैं तो इसके पीछे स्वच्छता के सुलभ आंदोलन की बड़ी भूमिका है। डॉ. पाठक ने 1970 में सुलभ इंटरनेशनल की स्थापना की। यह संस्था स्वच्छता के साथ मानव अधिकार, ऊर्जा के गैर पारंपरिक स्रोतों और शिक्षा द्वारा सामाजिक परिवर्तन आदि क्षेत्रों में कार्य करने वाली दुनिया की अग्रणी अग्रणी संस्था है। 1980 में इस संस्था का नाम सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस आर्गनाइजेशन हो गया। सुलभ द्वारा किए कार्यों को अंतरराष्ट्रीय गौरव उस समय प्राप्त हुआ, जब संयुक्त राष्ट्र संघ की आर्थिक एवं सामाजिक परिषद द्वारा इस संस्था को विशेष सलाहकार का दर्जा प्रदान किया गया। गौरतलब है कि भारत में सिर पर मैला ढोने की मैली प्रथा लंबे समय से चली आ रही है। सुलभ प्रणेता डॉ. पाठक को इस बात का यश प्राप्त है कि उन्होंने इस प्रथा के समूल समापन

का संकल्प लिया है। खासतौर पर राजस्थान के अलवर और टोंक में उन्होंने स्कैवेंजिग के कार्य से महिलाओं को मुक्त कराकर उनके बेहतर पुनर्वास की व्यवस्था की। यही नहीं, इन महिलाओं को सामाजिक मुख्यधारा में सम्मानजनक स्तान दिलाने के लिए वे संयुक्त राष्ट्र तक पहुंचे। खुद डॉ. पाठक के शब्दों में, ‘सन 2008 में हमारे साथ कुछ स्कैवेंजर महिलाओं ने संयुक्त राज्य अमेरिका की यात्रा की। वहां वे न्यूयॉर्क स्थित संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में प्रसिद्ध मॉडलों के साथ रैंप पर भी उतरीं। उन्होंने स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी भी देखा, जो स्वतंत्रता का प्रतीक है, इसे देखकर वे इतनी प्रसन्न हुई कि उन्होंने यह घोषित कर दिया कि अब वे ‘अछूत’ नहीं हैं।’ डॉ. पाठक को भारत सरकार द्वारा 1991 में पद्म भूषण पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 2003 में उनका नाम विश्व के 500 उत्कृष्ट सामाजिक कार्य करने वाले व्यक्तियों की सूची में प्रकाशित किया गया। इसके अलावा उन्हें भी राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर और भी पुरस्कारों-सम्मानों से नवाजा जा चुका है। डॉ. पाठक कहते हैं, ‘शौचालय क्रांति की दिशा में इस देश में अब तक महात्मा गांधी और सुलभ ने काम किया है।

2008 में हमारे साथ कुछ स्कैवेंजर महिलाओं ने संयुक्त राज्य अमेरिका की यात्रा की। वहां वे न्यूयॉर्क स्थित संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में प्रसिद्ध मॉडलों के साथ रैंप पर भी उतरीं। उन्होंने स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी भी देखा, जो स्वतंत्रता का प्रतीक है, इसे देखकर वे इतनी प्रसन्न हुई कि उन्होंने यह घोषित कर दिया कि अब वे ‘अछूत’ नहीं हैं - डॉ. विन्देश्वर पाठक

इसके बाद मोदी जी पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने इतनी संजीदगी से इस मुद्दे को उठाया है। ऐसा नहीं कि बाकी लोगों ने इस मुद्दे को नहीं उठाया। लेकिन बड़े पैमाने पर हम ही लोगों ने इस मुद्दे को उठाया है। गांधी जी

तो इस मसले को इतना अधिक महत्व देते थे कि उन्होंने कहा कि हमें आजादी से पहले देश की सफाई चाहिए।’ स्वच्छता के क्षेत्र में सुलभ प्रणेता डॉ. पाठक की सबसे बड़ी देन टू-पिट पोर फ्लश तकनीक से बना टॉयलेट है। केंद्र सरकार भी इस तकनीक को 2008 में मान्यता दे चुकी हैं। राज्य सरकारों ने तो पहले से ही इस तकनीक को मान्यता दे दी थी। इस व्यवस्था में हाथ से मैला को साफ करने की जरूरत नहीं पड़ती। सुलभ ने आगे चलकर पहाड़ी और मुश्किल इलाकों में भी स्थानीय संसाधनों से टू-पिट टॉयलेट बनाने की तकनीक का ईजाद किया है। 1974 में पहली बार पटना में सार्वजनिक शौचालय का निर्माण किया। पटना नगर निगम ने जमीन दी और कहा- पब्लिक से पैसा लीजिए और शौचालय चलाइए। डॉ. पाठक कहते हैं, उस समय शौचालय के लिए पैसा देने की बात कहने पर लोग मजाक उड़ाते थे। आज उसी सुलभ शौचालय के कांसेप्ट पर पूरी दुनिया में शौचालय बन रहे हैं।


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आवरण कथा

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संयुक्त राष्ट्र और भारत

संयुक्त राष्ट्र में

हिंदी

संरा में हिंदी को मान्यता दिलाने के लिए सरकार गंभीर

संयुक्त राष्ट्र को भारत का योगदान

भारत की नीति है कि विश्व के सभी राष्ट्रों को संघ का सदस्य होने का अवसर दिया जाए, साम्यवादी चीन को संघ में स्थान दिलाने के लिए भारत ने सक्रिय भूमिका निभाई। झगड़ों का शांतिपूर्ण ढंग से निपटान भारत की यह स्पष्ट नीति रही है कि आपसी झगड़ों को शांतिपूर्ण ढंग से सुलझाया जाए ताकि विश्वशांति को कोई खतरा पैदा न हो। कश्मीर समस्या का निराकरण करने का भार संयुक्त राष्ट्र संघ को सौंपना, इस बात का सूचक है कि भारत को संयुक्त राष्ट्र संघ की शक्ति पर विश्वास है। शांति के लिए ही भारत ने पाकिस्तान से हुए युद्ध में युद्ध विराम का प्रस्ताव स्वीकार किया था। सैन्य और आर्थिक मदद संयुक्त राष्ट्र संघ ने संसार में शांति बनाए रखने के लिए जब-जब सैनिकों की मांग की, भारत ने उसे पूरा किया। कोरिया और कांगो में शांति स्थापना के लिए भारत ने अपने जवानों को संयुक्त राष्ट्र संघ की शांति सेना में भेजा था। दूसरे सदस्यों की तरह भारत भी संयुक्त राष्ट्र के खर्च में सहायता देता है। भारत में संयुक्त राष्ट्र की अनेक संस्थाओं-शैक्षणिक, वैज्ञानिक और

सांस्कृतिक इत्यादि-के केंद्र स्थापित हैं और भारत उनके संचालन में पूरा सहयोग दे रहा है।

संयुक्त राष्ट्र द्वारा भारत की सहायता

जिस प्रकार भारत ने संयुक्त राष्ट्र की सहायता की है उसी प्रकार संयुक्त राष्ट्र ने भी भारत की सहायता की है। संयुक्त राष्ट्र ने भारत के खाद्य और कृषि संगठन तथा भारत के मत्स्य उद्योग की उन्नति में बड़ी मदद की है। शिक्षा के प्रसार में संयुक्त राष्ट्र के विशेषज्ञों ने काफी सहायता की है और देश के छात्रों के स्वास्थ्यवर्धन के लिए संयुक्त राष्ट्र की संस्थाओं द्वारा पौष्टिक खाद्य पदार्थो की भी आपूर्ति की गई है। औद्योगिक विकास और विज्ञान के विकास में भी संयुक्त राष्ट्र से काफी मदद मिली है। भारत की औद्योगिक प्रगति के लिए अंतरराष्ट्रीय बैंक से ऋण प्राप्त हुआ है। नई योजनाओं की सफलता के लिए प्रौद्योगिकी विशेषज्ञों की मदद भी प्राप्त हुई है। स्पष्ट है कि भारत का संयुक्त राष्ट्र में विश्वास है। उसका यह भी विश्वास है कि संयुक्त राष्ट्र के कारण दुनिया के लोग मिलजुलकर कार्य कर रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र की कार्रवाइयों को सफल बनाने के लिए भारत ने महत्वपूर्ण सहयोग किया है।

संयुक्त राष्ट्र के अंगों में महासभा, सुरक्षा परिषद्, आर्थिक एवं सामाजिक परिषद्, न्यास परिषद्, अंतरराष्ट्रीय न्यायालय तथा सचिवालय का नाम प्रमुख है। इसकी कार्यपालिका को सुरक्षा परिषद् के नाम से जाना जाता है जिसके पांच स्थायी सदस्य अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन हैं वैश्विक हालात की छाया

संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के समय से ही दुनिया पर शीत युद्ध की छाया पड़ने लगी। दुनिया के देश सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका के अघोषित झंडे तले लामबंद होने लगे। कई बार तो ऐसा लगा कि तीसरा प्रलयंकारी विश्व युद्ध होने ही वाला है, परंतु परमाणु अस्त्रों की उपलब्धता ने मानव समुदाय को ऐसा करने से रोके रखा। सोवियत संघ के विघटन के पश्चात इसके मुख्य

घटक रूस की अर्थव्यवस्था चरमराने लगी और इस तरह शीत युद्ध का खतरा टला।

दोहरे मापदंड

विभिन्न राष्ट्र आतंकवाद से लड़ाई लड़ने के मामले में दोहरे मापदंड अपना रहे हैं। 11 सितंबर 2001 के दिन अमेरिका पर जघन्य आतंकवादी हमले हुए तो अमेरिका सहित दुनिया के देशों की नींद खुली। भारत में आतंकवाद बहुत पहले से अपना कहर

युक्त राष्ट्र एक सम्मानित वैश्विक मंच है। यहां होने वाली हर गतिविधि का प्रभाव सं पूरे देश पर पड़ता है। विभिन्न देशों की छवि

इस बात से तय होती है कि संयुक्त राष्ट्र में उसके उठाए मुद्दों को दुनिया कितनी गंभीरता से लेती है। संयुक्त राष्ट्र में हिंदी का प्रयोग और उसे मान्यता का सवाल,ऐसा ही एक मुद्दा है। कुछ समय पूर्व लोकसभा में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और पूर्व मंत्री शशि थरूर के बीच तीखी नोकझोंक हुई। थरूर ने हिंदी को संयुक्त राष्ट्र में अधिकारिक भाषा बनाने की जरूरत पर सवाल उठाए, वहीं सुषमा स्वराज ने अपने जवाब में उन्हें ‘इग्नोरेंट’ कहा। सुषमा स्वराज ने एक सवाल के जवाब में कहा, ‘यह अक्सर पूछा जाता है कि संयुक्त राष्ट्र में हिंदी एक अधिकारिक भाषा क्यों नहीं है। आज मैं सदन से कहना चाहूंगी कि इसके लिए सबसे बड़ी समस्या नियम है।’ उन्होंने बताया कि नियम के अनुसार, ‘संगठन के 193 सदस्य देशों के दो तिहाई सदस्यों, यानी 129 देशों को हिंदी को अधिकारिक भाषा बनाने के पक्ष में वोट करना होगा और इसकी प्रक्रिया के लिए वित्तीय लागत भी साझा करनी होगी।’ सुषमा स्वराज ने कहा, ‘इसके संबंध में मतदान के अलावा, देशों के ऊपर राशि का अतिरिक्त भार भी है। हमें समर्थन करने वाले आर्थिक रूप से कमजोर देश इस प्रक्रिया से दूर भागते हैं। हम इस पर काम कर रहे हैं। हम फिजी, मॉरिशस, सुरीनाम जैसे देशों से समर्थन लेने की कोशिश कर रहे हैं, जहां भारतीय मूल के लोग रहते हैं।’ उन्होंने आगे कहा, ‘जब हमें इस तरह का समर्थन मिलेगा और वे लोग वित्तीय बोझ को भी सहने के लिए तैयार होंगे, यह अधिकारिक भाषा बन जाएगी।’ सुषमा स्वराज ने कहा कि सरकार संयुक्त राष्ट्र में हिंदी को अधिकारिक भाषा बनाने के लिए सरकार किसी भी तरह की राशि खर्च करने के लिए तैयार है, लेकिन राशि खर्च करने से उद्देश्य की प्राप्ति नहीं होगी।

ढा रहा है, जो मुख्यत: पाकिस्तान के समर्थन का नतीजा है। लेकिन ब्रिटेन, अमेरिका आदि देश भारत में फैले आतंकवाद को क्षेत्रीय समस्या मानकर भारत और पाकिस्तान दोनों की पीठ थपथपा रहे हैं

विदेश मंत्री ने इस बात की ओर भी इशारा किया कि उन्होंने और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में भाषण दिया था। सुषमा स्वराज ने कहा, ‘जब हमारे यहां विदेशी मेहमान आते हैं और अगर वे अंग्रेजी में बोलते हैं तो हम भी अंग्रेजी में बोलते हैं। अगर वे अपनी भाषा में बोलते हैं, तो हम हिंदी में बोलते हैं। जहां तक भाषा की गरिमा का सवाल है, विदेश मंत्रालय ने अब तक हिंदी में ज्यादा काम नहीं किया है।’ गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में पहला भाषण अटल बिहारी वाजपेयी ने दिया था। वे तब जनता पार्टी की सरकार में विदेश मंत्री थे। वैसे भी अटल जी को इस बात का श्रेय जाता है कि हिंदी को प्रचारित और प्रसारित करने और इसके प्रति दुनिया का ध्यान आकर्षित करने के लिए उन्होंने काफी कार्य किया। अटल जी को हिंदी भाषा से काफी लगाव रहा। संयुक्त राष्ट्र में अपना पहला भाषण हिंदी में देकर उन्होंने सभी के दिल में हिंदी भाषा का गहरा प्रभाव छोड़ा था। अटल बिहारी वाजपेयी का हिंदी में दिया गया वह भाषण उस वक्त काफी लोकप्रिय हुआ। यह पहला मौका था जब संयुक्त राष्ट्र जैसे बड़े अतंराष्ट्रीय मंच पर भारत की गूंज सुनने को मिली थी। संयुक्त राष्ट्र में अटल जी के भाषण को उपस्थित सभी प्रतिनिधियों को इतना पसंद आया कि उन्होंने खड़े होकर तालियां बजाई। ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का संदेश देते अपने भाषण में उन्होंने मूलभूत मानव अधिकारों के साथसाथ रंगभेद जैसे गंभीर मुद्दों का जिक्र किया था। दिलचस्प है कि इसके कई वर्षों बाद जब नरेन्द्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र में अपना पहला भाषण दिया तो वह भी न सिर्फ हिंदी में था, बल्कि उन्होंने भी भारतीय संस्कृति का जिक्र करते हुए ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का जिक्र किया। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज भी हिंदी प्रेमी हैं और वह भी जब संयुक्त राष्ट्र पहुंचीं तो अपना भाषण हिंदी में ही दिया। जो इनकी तुष्टीकरण की नीति का बयान करता है।

प्रासंगिकता बरकरार

इन जटिलताओं के बावजूद संयुक्त राष्ट्र की


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आवरण कथा

संयुक्त राष्ट्र की विशिष्ट संस्थाएं सं.

लघुनाम

संस्था

2

आईएईए

अन्तर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा अभिकरण

1 3 4 5 6 7 8 9

10 11 12 13 14 15 16 17

प्रासंगिकता है क्योंकि सामाजिक क्षेत्रों में इसने उल्लेखनीय कार्य किया है। राजनीतिक हलकों में संयुक्त राष्ट्र की राय उपयोगी मानी जाती है जो एक मापदंड का कार्य करती है। कई देशों की आंतरिक अशांति अथवा घरेलू विप्लव की स्थिति में संयुक्त राष्ट्र की शांति सेना ने उत्तम कार्य किया है। इसने विभिन्न राष्ट्रों की सेना की मदद से शांति और सुरक्षा के लिए कार्य किए हैं। दूसरी ओर संसार भर के सांस्कृतिक धरोहरों की पहचानकर उनके रख-रखाव में अच्छा-खासा योगदान दिया है। कई देशों में कुपोषण से पीड़ित बच्चों की भी इस विश्व संस्था ने मदद की है। संयुक्त राष्ट्र दुनिया के गरीब देशों में शिक्षा एवं स्वास्थ्य से संबंधित विशेष अभियान चलाकर एक तरह से सामाजिक समानता और उत्थान का कार्य करता है। सबके लिए स्वास्थ्य संयुक्त राष्ट्र का लक्ष्य है। संयुक्त राष्ट्र ने भारत जैसे देशों में स्वच्छता और सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र से लेकर बाल श्रम विरोधी अभियान चलाए हैं, क्योंकि यह संस्था दुनिया के सभी बच्चों के कल्याण के प्रति समर्पित है। ये सभी कार्य संयुक्त राष्ट्र अपनी विभिन्न एजेंसियों की मदद

से करता है। अंतिम तौर पर कहना हो तो कहा जा सकता है कि कई खामियों के होते हुए भी वर्तमान विश्व के समक्ष संयुक्त राष्ट्र का कोई विकल्प नहीं है। यह संस्था अपने सदस्य देशों के आर्थिक एवं अन्य तरह के सहयोग से ही चलती है अत: सदस्य देश जब तक इसे और सुदृढ़ न बनाएंगे तब तक यह पंगु ही रहेगी। आज का युग बाजार से लेकर कूटनीति तक वैश्विक आग्रहों का है। संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाओं के अभाव में विश्व की कल्पना नहीं की जा सकती। चाहे विश्व का कोई कितना भी समृद्ध देश क्यों नहीं हो, उसे संयुक्त राष्ट्र के आदेशों का पालन करना ही है। इसके ढांचे में सुधार की मांग भारत सहित दुनिया के कई देश लंबे अरसे से कर रहे हैं लेकिन अब तक इस ओर ध्यान नहीं दिया गया है। सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्यों की संख्या में बढ़ोत्तरी अब अपरिहार्य हो गई है, क्योंकि दुनिया पिछले 70 दशकों में काफी बदल गई है। संयुक्त राष्ट्र को जितना प्रभावी बनाया जाएगा, उतना ही विश्व स्वयं को सुरक्षित महसूस करेगा, इसमें कोई संदेह नहीं है।

एफएओ

खाद्य एवं कृषि संगठन

आईसीएओ

आईएफएडी आईएलो

आईएमओ

आईएमएफ आईटीयू यूनेस्को

यूएनआईडीओ यूपीयू

डब्ल्यु बी डब्ल्यु एफपी डब्ल्यु एच ओ डब्ल्युआईपीओ डब्ल्युएमओ डब्ल्युटीओ

अंतरराष्ट्रीय नागर विमानन संगठन अंतरराष्ट्रीय कृषि विकास कोष अंतरराष्ट्रीय श्रम संघ

अंतरराष्ट्रीय सागरीय संगठन अंतरराष्ट्रीय मॉनीटरी फंड अंतरराष्ट्रीय दूरसंचार संघ

संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन संयुक्त राष्ट्र औद्योगिक विकास संगठन वैश्विक डाक संघ

विश्व बैंक विश्व खाद्य कार्यक्रम विश्व स्वास्थ्य संगठन वर्ल्ड इन्टलेक्चुअल प्रोपर्टी ऑर्गनाइजेशन विश्व मौसम संगठन

विश्व पर्यटन संगठन

संयुक्त राष्ट्र की स्वतंत्र संस्थाएं

अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी विएना में स्थित यह एजेंसी परमाणु निगरानी का काम करती है।

कार्यक्रमों में सहायता एवं सामाजिक समस्याओं के माध्यम से अंतरराष्ट्रीय शांति को प्रभावी बनाने में प्रयासरत है।

अंतरराष्ट्रीय अपराध आयोग हेग में स्थित यह आयोग पूर्व यूगोस्लाविया में युद्ध अपराध के संदिग्ध लोगों पर मुकदमा चलाने के लिए बनाया गया है।

संयुक्त राष्ट्र शिक्षा, विज्ञान और सांस्कृतिक परिषद पेरिस में स्थित इस संस्था का उद्देश्य शिक्षा, विज्ञान संस्कृति और संचार के माध्यम से शांति और विकास का प्रसार करना है।

संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) यह बच्चों के स्वास्थ्य, शिक्षा और सुरक्षा की देखरेख करता है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) यह गरीबी कम करने, आधारभूत ढांचे के विकास और प्रजातांत्रिक प्रशासन को प्रोत्साहित करने का काम करता है। संयुक्त राष्ट्र व्यापार और विकास सम्मेलनयह संस्था व्यापार, निवेश और विकस के मुद्दों से संबंधित उद्देश्य को लेकर चलती है। संयुक्त राष्ट्र आर्थिक एवं सामाजिक परिषद (ईकोसॉक) यह संस्था सामान्य सभा को अंतरराष्ट्रीय आर्थिक एवं सामाजिक सहयोग एवं विकास

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) नैरोबी में स्थित इस संस्था का काम पर्यावरण की रक्षा को बढ़ावा देना है। संयुक्त राष्ट्र राजदूत इसका काम शरणार्थियों के अधिकारों और उनके कल्याण की देखरेख करना है। यह जेनेवा में स्थित है। विश्व खाद्य कार्यक्रम भूख के विरुद्ध लड़ाई के लिए बनाई गई यह प्रमुख संस्था है। इसका मुख्यालय रोम में है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संघ अंतरराष्ट्रीय आधारों पर मजदूरों तथा श्रमिकों के हितों की रक्षा के लिए नियम बनाता है।


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स्वच्छता के क्षेत्र में भारत बना मिसाल स्वच्छ भारत मिशन मानवीय गरिमा के प्रति महात्मा गांधी की प्रतिभा एवं आजीवन संघर्ष पर आधारित है और भारत सरकार टिकाऊ विकास लक्ष्यों को हासिल करने में सही रफ्तार से सही दिशा में काम कर रही है

दु

एंटोनियो गुटेरेस / संयुक्त राष्ट्र महासचिव

निया भर में अब भी करीब दो अरब 30 करोड़ लोगों को बुनियादी स्वच्छता सुविधाएं सुलभ नहीं हैं और स्वच्छता को एजेंडा 2030 के तहत प्राथमिकता बनाया जाना जरूरी है। भारत में हालांकि स्वच्छता के मामले में आंकड़े तेजी से बदल रहे हैं मगर अब भी करीब एक अरब लोग खुले स्थानों पर शौच करते हैं। स्वच्छ भारत मिशन मानवीय गरिमा के प्रति महात्मा गांधी की प्रतिभा एवं आजीवन संघर्ष पर आधारित है और भारत सरकार टिकाऊ विकास लक्ष्यों को हासिल करने में सही रफ्तार से सही दिशा में काम कर रही है। इस क्षेत्र में दुनिया भर में न सिर्फ अब तक का सबसे बड़ा निवेश है, बल्कि लोगों को एकजुट करने का सबसे बड़ा अभियान भी है और इस महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय को एकत्र होते देखना प्रेरणा देता है।

गांधी और स्वच्छता

दो अक्टूबर को महात्मा गांधी का जन्मदिवस होता है और इसी याद में अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस भी मनाया जाता है। महात्मा गांधी ने भी स्वच्छता को अपने जीवन दर्शन में बहुत अहमियत दी थी।

महात्मा गांधी के जन्मदिन पर इस महत्त्वपूर्ण विषय के बारे में लंबे समय तक जारी उनकी हिमायत और कार्रवाई का सम्मान करना उस विलक्षण मानव के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि और हम सबके लिए एक उदाहरण हैं। महात्मा गांधी अन्य अनेक क्षेत्रों की तरह, सुरक्षित और साफस्वच्छ सुविधाओं के मामले में अपने समय से बहुत आगे थे। उनकी मांग थी कि हर व्यक्ति के लिए स्वच्छता का अधिकार हो और वे उस अधिकार के लिए हर व्यक्ति से सम्‍मान दिखाने की मांग करते थे। यह जरूरी है कि हम सबसे संवेदनशील मुद्दों पर भी पुरानी धारणाओं को तोड़ने और उन पर आजादी के साथ बोलने के लिए तैयार हों, जब लोगों के जीवन का प्रश्न हो।

जल और स्वच्छता का हक

सभी लोगों को सुरक्षित जल और स्वच्छता की

सुविधा पाने का अधिकार है। यदि हमें स्वच्छ पृथ्वी पर सबल समाजों की रचना करनी है और टिकाऊ विकास के लिए 2030 एजेंडा की अपार आकांक्षा को पूरा करना है तो हमें इस मुद्दे पर तत्काल ध्यान देना होगा, जैसा भारत में हो रहा है। सभी देशों द्वारा स्वीकृत 2030 एजेंडा जनता, पृथ्वी और संपन्नता के लिए हितकारी योजना है और इन तीनों में स्वच्छता की भूमिका है। कोई भी देश सभी के लिए स्वच्छता से कम में संतोष नहीं कर सकता। यह टिकाऊ विकास की बुनियाद है और इसमें भारत की मिसाल बहुत स्वागत योग्य है। स्वच्छता में कमी बीमारी, बौनेपन, असुविधा और अमर्यादा को जन्म देती है। इसके कारण पुरुषों और महिलाओं, अमीरों और गरीबों, शहरों और गांवों के बीच असमानताएं बढ़ जाती हैं और मानव अधिकारों तथा मानवीय गरिमा पर गहरा असर

यदि हमें स्वच्छ पृथ्वी पर सबल समाजों की रचना करनी है और टिकाऊ विकास के लिए 2030 एजेंडा की अपार आकांक्षा को पूरा करना है तो हमें इस मुद्दे पर तत्काल ध्यान देना होगा, जैसा भारत में हो रहा है

पड़ता है। स्वच्छता में कमी परिवारों और समुदायों तक सीमित नहीं, बल्कि इसके लिए समग्र सोच आवश्यक है, जिनमें स्कूल, अस्पताल, परिवहन और पर्यटन सुविधाएं भी शामिल हैं।

2030 का लक्ष्य

स्वास्थ्य सेवा सुविधाओं में स्वच्छता में कमी और भी गंभीर जोखिम पैदा करती हैं। इस पृष्ठभूमि में मैंने मार्च में विश्व स्तर पर कार्रवाई का आह्वान किया था कि 2030 तक सभी स्वास्थ्य सेवा सुविधाओं में जल, स्वच्छता और व्यक्तिगत साफ-सफाई की व्यवस्था की जाए। 2030 एजेंडा में हमारी यह वैश्विक आकांक्षा झलकती है कि सभी लोगों को उनके लिए जरूरी स्वच्छता सुविधाएं सुलभ हों और भारत 2030 से बहुत पहले ये लक्ष्य हासिल कर लेगा। इनमें महिलाएं, बच्चे , युवा, दिव्यांग, वृद्धजन, मूलनिवासी, बेघर लोग, कैदी, शरणार्थी और प्रवासी सभी शामिल हैं। इनमें से कुछ समूहों तक पहुंचना विशेष रूप से कठिन हो सकता है। किंतु अगर हमें किसी को पीछे न छूटने देने का अपना संकल्प पूरा करना है तो उन्हें हमारे तात्कालिक प्रयासों के केंद्र में रहना चाहिए। इसके लिए नई सोच, साहस, संकल्प और नेतृत्व की आवश्यकता है।


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स्कूलों में स्वच्छता की स्थिति बेहतर

देश में ऐसे स्कूलों की तादाद बहुत तेजी से घटी है जहां स्वच्छता संबंधी सुविधाएं बिल्कुल नहीं हैं

सं

युक्त राष्ट्र ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि भारत ने स्कूलों में स्वच्छता संबंधी सुविधाएं बेहतर करने की दिशा में तेजी से प्रगति की है। साथ ही इसमें कहा गया है कि देश में ऐसे स्कूलों की तादाद बहुत तेजी से घटी है जहां

स्वच्छता संबंधी सुविधाएं बिल्कुल नहीं हैं। संयुक्त राष्ट्र एजेंसी के एक नए संयुक्त अध्ययन, 'ड्रिकिंग वाटर, सैनिटेशन एंड हाईजीन इन स्कूल्स : 2018 ग्लोबल बेसलाइन रिपोर्ट' में कहा गया है कि स्कूलों में अच्छी स्वास्थ्य

सुविधाएं, सीखने के लिए स्वस्थ माहौल का आधार मुहैया कराती हैं। अब लड़कियों की मौजूदगी उस वक्त भी ज्यादा होगी जब वह माहवारी से गुजर रही होंगी। विश्व स्वास्थ्य संगठन व संयुक्त राष्ट्र बाल निधि के संयुक्त निगरानी कार्यक्रम या जेएमपी ने यह वार्षिक रिपोर्ट तैयार की है। जो 1990 से पेयजल, स्वच्छता और सफाई (डब्ल्यूएएसएच) पर वैश्विक प्रगति की निगरानी कर रहा है। यह सतत विकास के दो लक्ष्यों- लक्ष्य छह (साफ पानी और स्वच्छता) और लक्ष्य चार (समग्र एवं समान गुणवत्ता की शिक्षा सुनिश्चित करना और सभी के लिए आजीवन सीखने के अवसरों को बढ़ावा देना) को प्राप्त करने की दिशा में की गई प्रगति को रेखांकित करता है। रिपोर्ट में कहा गया कि वर्ष 2030 तक खुले में शौच की प्रवृत्ति खत्म करने के सतत विकास लक्ष्य छह को हासिल करने के उद्देश्य से स्कूल कार्यक्रमों में डब्ल्यूएएसएच शिक्षा, जागरुकता बढ़ाने और व्यवहार में जरूरी बदलाव के लिए अहम राह बनाता है। इसमें बताया गया कि वर्ष

2000 से 2016 के बीच ऐसे स्कूलों की तादाद बहुत तेजी से घटी है, जहां स्वच्छता संबंधी सुविधाएं बिलकुल नहीं थी। यह खुले में शौच करने वाली आबादी के अनुपात से भी ज्यादा तेजी से घटा है। इस चलन को देखते हुए जेएमपी ने अनुमान जताया कि भारत के लगभग सभी स्कूलों में स्वच्छता संबंधी किसी न किसी तरह की सुविधा जरूर है। जबकि दस साल पहले आधे से ज्यादा स्कूलों में कोई स्वच्छता सुविधा नहीं होने की रिपोर्ट थी। रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि भारत के हालिया सर्वेक्षण में मासिक धर्म से जुड़े स्वच्छता इंतजामों की उपलब्धतता पर सूचना जुटाई गई। सैनिटरी वस्तुओं के निस्तारण के लिए ढक्कन वाले कूड़ेदान रखने वाले स्कूलों का अनुपात राज्यों के हिसाब से अलग-अलग पाया गया। जिसमें चंडीगढ़ के 98 प्रतिशत स्कूलों से लेकर छत्तीसगढ़ के 36 प्रतिशत स्कूल शामिल थे। मिजोरम एक मात्र ऐसा राज्य है जहां 50 प्रतिशत से ज्यादा स्कूलों में सैनिटरी नैपकिन के निस्तारण के लिए मशीनें लगी हुई थीं।

खुले में शौच से मुक्ति

खुले में शौच से मुक्ति, स्वच्छता में सुधार के प्रयासों का केंद्रीय अंग होना चाहिए। खुले में शौच बच्चों के लिए गंभीर रूप से खतरनाक है। इसके कारण दस्तरोग, कुपोषण और बौनापन हो सकता है, जिसका असर जीवन भर रहता है। मैं भारत की सराहना करता हूं कि उसने खुले में शौच से मुक्ति को उच्चतम स्तर पर और समूची सरकार में प्राथमिकता दी है और मैं उन सभी सरकारों को बधाई देता हूं जिन्हों ने खुले में शौच से मुक्ति के लिए योजनाएं बनाने और बजट आवंटित करने पर सहमति दी है। स्वच्छता की स्थिति में सुधार करना न सिर्फ सही दिशा में कदम है, बल्कि आर्थिक दृष्टि से भी समझदारी वाला कदम है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि स्वच्छता पर खर्च होने वाले हर डॉलर पर पांच डॉलर और 16 डॉलर के बीच बचत होती है। यह अनुमान स्वास्थ्य सेवा की कम लागत, कर्मियों की बेहतर उत्पादकता और पहले से कम समय पूर्व मौतों पर आधारित है। स्वच्छता में कमी और खुले में शौच का महिलाओं और लड़कियों पर बेहिसाब असर पड़ता है। इससे उनके लिए उत्पीड़न और दुर्व्यवहार का खतरा बढ़ सकता है, व्यक्तिगत आवाजाही की उनकी आजादी पर पाबंदियां बढ़ सकती हैं और स्वच्छता सुविधाएं तथा मासिक धर्म के दौरान आवश्यक सामग्री सुलभ न होने से स्वास्थ्य के लिए जोखिम बढ़ सकते हैं। लड़कियां अब अपने स्कूलों में सुरक्षित, स्वच्छ‍

स्वच्छता की स्थिति में सुधार करना न सिर्फ सही दिशा में कदम है, बल्कि आर्थिक दृष्टि से भी समझदारी वाला कदम है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि स्वच्छता पर खर्च होने वाले हर डॉलर पर पांच डॉलर और 16 डॉलर के बीच बचत होती है

और अलग शौचालयों के लिए और महिलाओं को सार्वजनिक स्थ‍लों एवं कार्यस्थलों पर स्वच्छता सुविधाओं के लिए प्रतीक्षा करने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। टिकाऊ विकास लक्ष्य‍ 6 में सबके

लिए स्वच्छता का उद्देश्य रखा गया है, किंतु यह विषय सभी सतत विकास लक्ष्यों, विशेषकर स्वास्थ्य, पोषण, संवहनीय शहरों और लैंगिक समानता से जुड़े लक्ष्यों को हासिल करने के लिए

आवश्य्क है। (2 अक्टूबर, 2018 को नई दिल्ली में आयोजित महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय स्वच्छता सम्मेलन में दिए गए वक्तव्य का संपादित अंश)


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आवरण कथा

22 - 28 अक्टूबर 2018

स्वच्छता का ‘योग’

प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेन्द्र मोदी जब पहली बार संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करने पहुंचे तो उन्होंने विश्व शांति के लिए भारत की तरह संयुक्त राष्ट्र की भूमिका को अहम बताया। हालांकि उन्होंने इस संस्था में ढांचागत सुधार की भी पुरजोर वकालत की। इस अवसर पर योग को अंतरराष्ट्रीय मंच पर मान्यता दिलाने की उनकी मांग को आगे चलकर संयुक्त राष्ट्र ने स्वीकार किया नरेन्द्र मोदी / प्रधानमंत्री

स्थिरता की शक्ति समाहित है। अपार संभावनाओं से समृद्ध महादेश लैटिन अमेरिका स्थिरता एवं समृद्धि के साझा प्रयास में एकजुट हो रहा है। यह महादेश विश्वक समुदायों के लिए एक महत्त्वपूर्ण आधार स्तंभ सिद्ध हो सकता है।

र्वप्रथम मैं संयुक्त राष्ट्र महासभा के 69वें सत्र के अध्यक्ष चुने जाने पर आपको हार्दिक शुभकामनाएं देता हूं। भारत के प्रधानमंत्री के रूप में पहली बार आप सबको संबोधित करना मेरे लिए अत्यंत सम्मान की बात है। मैं भारतवासियों की आशाओं एवं अपेक्षाओं से अभिभूत हूं। उसी प्रकार मुझे इस बात का पूरा भान है कि विश्व को 1.25 बिलियन लोगों से क्या। अपेक्षाएं हैं। भारत वह देश है, जहां मानवता का छठवां हिस्सा आबाद है। भारत ऐसे व्यापक पैमाने पर आर्थिक व सामाजिक बदलाव से गुजर रहा है, जिसका उदाहरण इतिहास में दुर्लभ है।

शांतिपूर्ण वातावरण

‘वसुधैव कुंटुंबकम’

प्रत्येक राष्ट्र की, विश्व की अवधारणा उसकी सभ्यता एवं धार्मिक परंपरा के आधार पर निरूपित होती है। भारत चिरंतन विवेक समस्त विश्व को एक कुटंब के रूप में देखता है। और जब मैं यह बात कहता हूं तो मैं यह साफ करता हूं कि हर देश का अपना एक दर्शन होती है। मैं विचारधारा के संबंध में नहीं कह रहा हूं। ...और देश उस दर्शन की प्रेरणा से आगे बढ़ता है। भारत एक देश है, जहां वेदकाल से ‘वसुधैव कुंटुंबकम’ परंपरा रही है। प्रकृति के साथ संवाद, प्रकृति के साथ कभी संघर्ष नहीं, ये भारत के जीवन का हिस्सा है और भारत इस जीवन दर्शन के तहत आगे बढ़ता रहता है। प्रत्येक राष्ट्र की विश्व अवधारणा उसकी सभ्यता और उसकी दार्शनिक परंपरा के आधार पर निरूपित होती है। भारत का चिरंतन विवेक समस्त विश्व को, जैसा मैंने कहा - वसुधैव कुटुंबकम - एक कुटुंब के रूप में देखता है। भारत एक ऐसा राष्ट्र है, जो केवल अपने लिए नहीं, बल्कि विश्वपर्यंत न्याय, गरिमा, अवसर और समृद्धि के हक में आवाज उठाता रहा है। अपनी विचारधारा के कारण हमारा बहु-पक्षवाद में दृढ़ विश्वास है।

आशा और अपेक्षा

आज यहां खड़े होकर मैं इस महासभा पर एक टिकी हुई आशाओं एवं अपेक्षाओं के प्रति पूर्णतया सजग हूं। जिस पवित्र विश्वास ने हमें एकजुट किया है, मैं उससे अत्यंत प्रभावित हूं। बड़े महान सिद्धांतों और दृष्टिकोण के आधार पर हमने इस संस्था की स्थापना की थी। इस विश्वास के आधार पर कि अगर हमारे भविष्य जुड़े हुए हैं तो शांति, सुरक्षा, मानवाधिकार और वैश्विक आर्थिक विकास के लिए हमें साथ मिल कर काम करना होगा। तब

प्रकृति के साथ संवाद, प्रकृति के साथ कभी संघर्ष नहीं, ये भारत के जीवन का हिस्सा है और भारत इस जीवन दर्शन के तहत आगे बढ़ता रहता है

हम 51 देश थे और आज 193 देश के झंडे इस बिल्डिंग पर लहरा रहे हैं। हर नया देश इसी विश्वास और उम्मीद के आधार पर यहां प्रवेश करता है। हम पिछले 7 दशकों में बहुत कुछ हासिल कर सके हैं। कई लड़ाइयों को समाप्त किया है। शांति कायम रखी है। कई जगह आर्थिक विकास में मदद की है। गरीब बच्चों के भविष्य को बनाने में मदद दी है। भुखमरी हटाने में योगदान दिया है और इस धरती को बचाने के लिए भी हम सब सा‍थ मिलकर के जुटे हुए हैं।

लोकतंत्र की लहर

69वे संयुक्त राष्ट्र शांति मिशन में विश्व में ब्लू हेल्मेट को शांति के एक रंग की एक पहचान दी है।

आज समस्त विश्व में लोकतंत्र की एक लहर है। अफगानिस्तान में शांतिपूर्वक राजनीतिक परिवर्तन यह भी दिखलाता है कि अफगानी जनता की शां‍ति की कामना हिंसा पर विजय अवश्य पाएगी। नेपाल युद्ध से शांति और लोकतंत्र की ओर आगे बढ़ा है। भूटान के नए लोकतंत्र में एक नई ताकत नजर आ रही है। पश्चिम एशिया एवं उत्तर अफ्रीका में लोकतंत्र के पक्ष में आवाज उठाए जाने के प्रयास हो रहे हैं। ट्यूनिशिया की सफलता दिखा रही है कि लोकतंत्र की ये यात्रा संभव है। अफ्रीका में स्थिरता, शांति और प्रगति हेतु एक नई ऊर्जा एवं जागृति दिखाई दे रही है। हमनें एशिया और उसके पूरे अभूतपूर्व समृद्धि का अभ्युदय देखा है, जिसके आधार में शांति एवं

भारत अपनी प्रगति के लिए एक शांतिपूर्ण एवं स्थिर अंतरराष्ट्रीय वातावरण की अपेक्षा करता है। हमारा भविष्य हमारे पड़ोस से जुड़ा हुआ है। इसी कारण मेरी सरकार ने पहले ही दिन से पड़ोसी देशों से मित्रता और सहयोग बढ़ाने पर पूरी प्राथमिकता दी है और पाकिस्तान के प्रति भी मेरी यही नीति है। मैं पाकिस्तान से मित्रता और सहयोग बढ़ाने के लिए गंभीरता से शांतिपूर्ण वातावरण में बिना आतंक के साये के साथ द्विपक्षीय वार्ता करना चाहते हैं। लेकिन पाकिस्तान का भी यह दायित्व है कि उपयुक्त वातावरण बनाए और गंभीरता से द्विपक्षीय बातचीत के लिए सामने आये। इसी मंच पर बात उठाने से समाधान के प्रयास कितने सफल होंगे, इस पर कइयों को शक है। आज हमें बाढ़ से पीडि़त कश्मीर में लोगों की सहायता देने पर ध्यान देना चाहिए, जो हमने भारत में बड़े पैमाने पर आयोजित किया है। इसके लिए सिर्फ भारत में कश्मीर, उसी का ख्याल रखने पर रूके नहीं हैं, हमने पाकिस्तान को भी कहा, क्योंकि उसके क्षेत्र में भी बाढ़ का असर था। हमने उनको कहा कि जिस प्रकार से हम कश्मी‍र में बाढ़ पीड़ितों की सेवा कर रहे हैं, हम पाकिस्तान में भी उन बाढ़ पीड़ितों की सेवा करने के लिए हमने सामने से प्रस्ताव रखा था। हम विकासशील विश्व का हिस्सा हैं, लेकिन हम अपने सीमित संसाधनों को उन सभी के सा‍थ साझा करने की छूट दें, जिन्हें इनकी नितांत आवश्यकता है। दूसरी ओर आज विश्व बड़े स्तर के तनाव और उथल-पुथल की स्थितियों से गुजर रहा है। बड़े युद्ध नहीं हो रहे हैं, परंतु तनाव एवं संघर्ष भरपूर नजर आ रहा है, बहुतेरे हैं, शांति का अभाव है तथा भविष्य के प्रति अनिश्चितता है। आज भी व्यापक रूप से गरीबी फैली हुई है। एक होता हुआ एशिया प्रशांत क्षेत्र अभी भी समुद्र में अपनी सुरक्षा, जो कि इसके भविष्य के लिए आधारभूत महत्व रखती है, को लेकर बहुत चिंतित है।

वीजा विभाजन का खतरा

यूरोप के सम्मुख नए वीजा विभाजन का खतरा मंडरा रहा है। पश्चिम एशिया में विभाजक रेखाएं और आतंकवाद बढ़ रहे हैं। हमारे अपने क्षेत्र में


22 - 28 अक्टूबर 2018 आतंकवादी स्थिरतावादी खतरे से जूझना जारी है। हम पिछले चार दशक से इस संकट को झेल रहे हैं। आतंकवाद चार नए-नए रूप और नाम से प्रकट होता जा रहा है। इसके खतरे से छोटा या बड़ा, उत्तर में हो या दक्षिण में, पूरब में हो या पश्चिम में, कोई भी देश मुक्त नहीं है।

आतंकवाद की चुनौती

मुझे याद है, जब मैं 20 साल पहले विश्व के कुछ नेताओं से मिलता था और आतंकवाद की चर्चा करता था, तो उनके यह बात गले नहीं उतरती थी। वह कहते थे कि यह कानून और व्यवस्था की समस्या है। लेकिन आज धीरे-धीरे आज पूरा विश्व देख रहा है कि आज आतंकवाद किस प्रकार के फैलाव को पाता चला जा रहा है। परंतु क्या हम वाकई इन ताकतों से निपटने के लिए सम्मि‍लित रूप से ठोस अंतरराष्ट्रीय प्रयास कर रहे हैं और मैं मानता हूं कि यह सवाल बहुत गंभीर है। आज भी कई देश आतंकवादियों को अपने क्षेत्र में पनाह दे रहे हैं और आतंकवादियों को अपनी नीति का उपकरण मानते हैं और जब अच्छा आतंकवाद और बुरा आतंकवाद , ये बातें सुनने को मिलती है, तब तो आतंकवाद के खिलाफ लड़ने की हमारी निष्ठाओं पर भी सवालिया निशान खड़े होते हैं। पश्चिम एशिया में आतंकवाद की वापसी तथा दूर एवं पास के क्षेत्र पर इसके प्रभाव को ध्यान में रखते हुए सम्मिलित कार्रवाई का स्वागत करते हैं। परंतु इसमें क्षेत्र के सभी देशों की भागीदारी और समर्थन अनिवार्य है। अगर हम आतंकवाद से लड़ना चाहते हैं तो क्यों न सबकी भागीदारी हो, क्यों न सबका साथ हो और क्यों न उस बात पर आग्रह भी किया जाए। सी, स्पेस एवं साइबर स्पेस साझा समृद्धि के साथ-साथ संघर्ष के रंगमंच भी बने हैं। जो समुद्र हमें जोड़ता था, उसी समुद्र से आज टकराव की खबरें शुरू हो रही हैं। जो स्पेस हमारी सिद्धियों का एक अवसर बनता था, जो साइबर हमें जोड़ता था, आज इन महत्वपूर्ण क्षेत्रों में नए संकट नजर आ रहे हैं।

जी-ऑल

उस अंतरराष्ट्रीय एकजुटता की, जिसके आधार पर संयुक्त राष्ट्र की स्थापना हुई, जितनी आवश्‍यकता आज है, उतनी पहले कभी नहीं थी। आज अब हम इंटर-इंडिपेंडेंस कहते हैं तो क्या, हमारी आपसी एकता बढ़ी है। हमें सोचने की जरूरत है। क्या

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आवरण कथा

स्वच्छता जैसे बुनियादी क्षेत्र पर ध्यान

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आज बुनियादी स्वच्छता 2.5 बिलियन लोगों के पहुंच के बाहर है। 1.3 बिलियन लोगों को बिजली और 1.1 बिलियन लोगों को पीने का शुद्ध पानी उपलब्ध नहीं है

हिर है, प्रत्येक देश को अपने राष्ट्रीय उपाय करने होंगे, प्रगति व विकास को बल देने हेतु प्रत्येक सरकार को अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी। साथ ही हमारे लिए एक स्तर पर एक सार्थक अंतरराष्ट्रीय भागीदारी की आवश्यकता है, जिसका अर्थ हुआ, नीतियों को आप बेहतर समन्वय करें ताकि हमारे प्रयत्न, परस्पर संयोग को बढ़ावा दें तथा दूसरे को क्षति न पहुंचाएं। ये उसकी पहली शर्त है कि दूसरे को क्षति न पहुंचाएं। इसका यह भी अर्थ है कि जब हम अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक संबंधों की रचना करते हैं तो हमें एक दूसरे की चिंताओं व हितों का ध्यान रखना चाहिए। जब हम विश्व के अभाव के स्तर के विषय में सोचते हैं, आज बुनियादी स्वच्छता 2.5 बिलियन लोगों के पहुंच के बाहर है। आज 1.3 बिलियन लोगों को बिजली उपलब्ध नहीं है और आज 1.1 बिलियन लोगों को पीने का शुद्ध पानी उपलब्ध नहीं है। तब स्पष्ट होता है कि अधिक व्यापक व संगठित रूप से अंतरराष्ट्रीय कार्यवाही करने की प्रबल आवश्यकता है। हम केवल आर्थिक वृद्धि के लिए इंतजार नहीं कर सकते। भारत में मेरे विकास का एजेंडा के सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू इन्हीं मुद्दों पर केंद्रित हैं। मैं यह मानता हूं कि हमें 2015 के बाद के विकास के एजेंडे में इन्हीं बातों को केंद्र में रखना चाहिए और उन पर ध्यान देना चाहिए। रहने लायक तथा टिकाऊ विश्व की कामना के साथ कारण है कि संयुक्त जैसा इतना अच्छा प्लेटफार्म हमारे पास होने के बाद भी अनेक जी समूह बनाते चले गए हम। कभी जी 4 होगा, कभी जी 7 होगा, कभी जी 20 होगा। हम बदलते रहते हैं और हम चाहें या न चाहें, हम भी उन समूहों में जुड़े हैं। भारत भी उसमें जुड़ा है। लेकिन क्या आवश्यकता नहीं है कि हम जी 1 से आगे बढ़ कर के जी-ऑल की तरफ कदम उठाएं।

हम काम करें। इन मुद्दों पर ढेर सारे विवाद एवं दस्तावेज उपलब्ध हैं। लेकिन हम अपने चारों ओर ऐसी कई चीजें देखते हैं, जिनके कारण हमें चिंतित व आगाह हो जाना चाहिए। ऐसी भी चीजें हैं जिन्हें देखने से हम चिंतित होते जा रहे हैं। जंगल, पशु-पक्षी, निर्मल नदियां, जजीरें और नीला आसमान। हमारे भारतवर्ष में प्रकृति के प्रति आदर भाव अध्यात्म का अभिन्न अंग है। हम प्रकृति की देन को पवित्र मानते हैं और मैं आज एक और विषय पर भी ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं कि हम मौसम परिवर्तन की बात करते हैं। हम होलिस्टिक हेल्थ केयर की बात करते हैं। जब हम जड़- मूल

की तरफ लौटने की बात करते हैं तब मैं उस विषय पर विशेष रूप से आप से एक बात कहना चाहता हूं। योग हमारी पुरातन पारंपरिक अमूल्य देन है। योग मन व शरीर, विचार व कर्म, संयम व उपलब्धि की एकात्मकता का तथा मानव व प्रकृति के बीच सामंजस्य का मूर्त रूप है। यह स्वास्थ्य व कल्याण का समग्र दृष्टिकोण है। योग केवल व्या‍याम भर न होकर अपने आप से तथा विश्व व प्रकृति के साथ तादात्म्य को प्राप्त करने का माध्यम है। यह हमारी जीवन शैली में परिवर्तन लाकर तथा हम में जागरूकता उत्पन्न करके जलवायु परिवर्तन से लड़ने में सहायक हो सकता है।

आज अब हम इंटर-इंडिपेंडेंस कहते हैं तो क्या, हमारी आपसी एकता बढ़ी है। हमें सोचने की जरूरत है। क्या कारण है कि संयुक्त जैसा इतना अच्छा प्लेटफार्म हमारे पास होने के बाद भी अनेक जी समूह बनाते चले गए हम और जब संयुक्त अपने 70 वर्ष मनाने जा रहा है, तब ये जी-ऑल का वातावरण कैसे बनेगा। फिर एक बार यही मंच हमारी समस्याओं के समाधान का अवसर कैसे बन सके। इसकी विश्वसनीयता कैसे बढ़े, इसका सामर्थ्य कैसे बढ़े, तभी जा कर के यहां हम संयुक्त बात करते हैं। लेकिन टुकड़ों में बिखर जाते हैं, उसमें हम बच सकते हैं, एक तरफ तो हम यह कहते हैं कि हमारी नीतियां परस्पर जुड़ी हुई हैं और दूसरी तरफ हम जीरो संघ के नजरिए से सोचते हैं। अगर उसे लाभ होता है तो मेरी हानि होती है, कौन किसके लाभ में है, कौन किसके हानि में है, यह भी मानदंड के आधार पर हम आगे बढ़ते हैं। एक बहुत बड़ा वर्ग है, जिसके मन में है कि छोड़ो यार, कुछ नहीं बदलने वाला है, अब कुछ होने वाला नहीं है। ये जो निराशावादी और आलोचनावादी माहौल है, यह कहना आसान है। परंतु अगर हम ऐसा करते हैं तो हम अपनी जिम्मेदारियों से भागने

का जोखिम उठा रहे हैं। हम अपने सामूहिक भविष्य को खतरे में डाल रहे हैं। आइए, हम अपने समय की मांग के अनुरूप अपने आप को ढालें। हम वक्त की शांति के लिए कार्य करें। कोई एक देश या कुछ देशों का समूह विश्व की धारा को तय नहीं कर सकता है। वास्तविक अंतरराज्यीय होना, यह समय की मांग है और यह अनिवार्य है। हमें देशों के बीच सार्थक संवाद एवं सहयोग सुनिश्चित करना है। हमारे प्रयासों का प्रारंभ यहीं संयुक्त राष्ट्र में होना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार लाना, इसे अधिक जनतांत्रिक और भागीदारी परक बनाना हमारे लिए अनिवार्य है।

अप्रासंगिक होने का खतरा

20वीं सदी की अनिवार्यताओं को प्रतिबिं​िबत करने वाली संस्थाएं 21वीं सदी में प्रभावी सिद्ध नहीं होंगी। इनके सम्मुख अप्रासंगिक होने का खतरा


10 प्रस्तुत होगा, और भी आग्रह से कहना चाहता हूं कि पिछली शताब्दी के आवश्यकताओं के अनुसार जिन बातों पर हमने बल दिया, जिन नीति-नियमों का निर्धारण किया वह अभी प्रासंगिक नहीं है। 21वीं सदी में विश्व काफी बदल चुका है, बदल रहा है और बदलने की गति भी बड़ी तेज है। ऐसे समय यह अनिवार्य हो जाता है कि समय के साथ हम अपने आप को ढालें। हम परिवर्तन करें, हम नए विचारों पर बल दें। अगर ये हम कर पायेंगे तभी जाकर के हमारा relevance रहेगा। हमें अपने सभी मतभेदों को दरकिनार कर आतंकवाद से लड़ने के लिए सम्मिलित अंतरराष्ट्रीय प्रयास करना चाहिए। मैं आपसे यह अनुरोध करता हूं कि इस प्रयास के प्रतीक के रूप में आप कंप्रेहेंसिव कन्वेंशन ऑन इंटरनेशनल टेररिज्म को पारित करें। यह बहुत लंबे अरसे से लंबित है। इस पर बल देने की आवश्यकता है। इसीलिए, फिर एक बार भारत की तरफ से इस सम्माननीय सभा के समक्ष बहुत आग्रहपूर्वक मैं अपनी बात बताना चाहता हूं। हमें आउटर स्पेस और साइबर स्पेस में शांति, स्थिरता एवं व्यवस्था सुनिश्चित करनी होगी। हमें मिलजुल कर काम करते हुए यह सुनिश्चित करना है कि सभी देश अंतरराष्ट्रीय नियमों, मानदंडों का पालन करें। हमें संयुक्त राष्ट्र शांति मिशनों के पुनीत कार्यों को पूरी शक्ति प्रदान करनी चाहिए। वैश्विकरण ने विकास के नए ध्रुवों, नए उद्योगों और रोजगार के नए स्रोतों को जन्म दिया है। लेकिन साथ ही अरबों लोग गरीबी और अभाव में जी रहे हैं। कई देश ऐेसे हैं, जो विश्वव्यापी आर्थिक तूफान के प्रभाव से बड़ी मुश्किल से बच पा रहे हैं। लेकिन इन सब में बदलाव लाना जितना मुमकिन आज लग रहा है, उतना पहले कभी नहीं लगता था। तकनीक ने बहुत कुछ संभव कर दिखाया है। इसे मुहैया करने में होने वाले खर्च में भी काफी कमी आई है। यदि आप सारी दुनिया में फेसबुक और ट्विटर के प्रसार की गति के बारे में, सेलफोन के प्रसार की गति के बारे में सोचते हैं तो आपको यह विश्वास करना चाहिए कि विकास और सशक्तीकरण का प्रसार भी

आवरण कथा

22 - 28 अक्टूबर 2018

कितनी तेज गति से संभव है।

‘अंतरराष्ट्रीय योग दिवस’

आइए हम एक ‘अंतरराष्ट्रीय योग दिवस’ को आरंभ करने की दिशा में कार्य करें। अंतत: हम सब एक ऐतिहासिक क्षण से गुजर रहे हैं। प्रत्येक युग अपनी विशेषताओं से परिभाषित होता है। प्रत्येक पीढ़ी इस बात से याद की जाती है कि उसने अपनी चुनौतियों का किस प्रकार सामना किया। अब हमारे सम्मुख चुनौतियों के सामने खड़े होने की जिम्मेदारी है। अगले वर्ष हम 70 वर्ष के हो जाएंगे। हमें अपने आप से पूछना होगा कि क्या हम तब तक प्रतीक्षा करें तब हम 80 या 100 के हो जाएं। मैं मानता हूं कि जब हम 70 साल की यात्रा के बाद लेखाजोखा लें, कहां से निकले थे, क्यांे निकले थे, क्या मकसद था, क्या रास्ता था, कहां पहुंचे हैं, कहां पहुंचना है।

विश्व शांति के संबंध में भारत द्वारा उठाए गए कुछ ठोस कदम इस प्रकार हैं:

भा

मैं अकसर कहता हूं कि 70 साल अपने आप में एक बहुत बड़ा अवसर है। इस अवसर का उपयोग करें और उसे उपयोग करके एक नई चेतना के साथ नई प्राणशक्ति के साथ, नए उमंग और उत्साह के साथ, आपस में एक नए विश्वास साथ हम संयुक्त राष्ट्र की यात्रा को हम नया रूप रंग दें। इसलिए मैं समझता हूं कि ये 70 वर्ष हमारे लिए बहुत बड़ा अवसर है। आइए, हम संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार लाने के अपने वादे को निभाएं।

यह बात लंबे अरसे से चल रही है, लेकिन वादों को निभाने का सामर्थ्य हम खो चुके हैं। मैं आज फिर से आग्रह करता हूं कि आज इस विषय में गंभीरता से सोचें। आइए, हम अपने 2015 के बाद के विकास के एजेंडे के लिए अपनी प्रतिबद्धता को पूरा करें। आइए 2015 को हम विश्व की प्रगति प्रवाह को एक नया मोड़ देने वाले एक वर्ष के रूप में हम अविस्मरणीय बनाएं और 2015 एक नितांत नई यात्रा के प्रस्थान बिंदु के रूप में मानव इतिहास में दर्ज हो। यह हम सबकी सामूहिक जिम्मेदारी है। मुझे विश्वास है कि सामूहिक जिम्मेदारी को हम पूरी तरह निभाएंगे। (संयुक्त राष्ट्र महासभा में सितंबर, 2014 में दिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण का संपादित अंश)

विश्व शांति में भारत की भूमिका

भी विश्व शांति का प्रेमी कहलाया। विश्वशांति के क्षेत्र में जितने ठोस कदम भारत ने उठाए हैं, उतने किसी भी देश ने नहीं उठाए हैं।

रत बुद्ध और गांधी का देश है। भारत सदा से ही विश्व शांति का पक्षधर रहा है। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद जब भारत की वैदेशिक नीति बनी, तब उसका आधार भी विश्व शांति ही रखा गया। इतना ही नहीं, भारत का नया संविधान

आइए हम एक ‘अंतरराष्ट्रीय योग दिवस’ को आरंभ करने की दिशा में कार्य करें। अंतत: हम सब एक ऐतिहासिक क्षण से गुजर रहे हैं

• भारत ने संयुक्त राष्ट्र के सदस्य के रूप में विश्व शांति के अनेक प्रयास किए हैं। भारत संयुक्त राष्ट्र का सबसे बड़ा समर्थक है। • विश्व में विविध शक्ति गुटों का निर्माण विश्व शांति के लिए सबसे बड़ा खतरा है। यही कारण है कि भारत किसी भी गुट

में सम्मिलित नहीं हुआ। विश्वशांति कायम रखने के लिए भारत ने पंचशील सिद्धांतों का प्रतिपादन किया। • कोरिया और कांगो में संयुक्त राष्ट्र की ओर से भारतीय सेना ने शांति और सुव्यवस्था की स्थापना में महत्त्वपूर्ण योगदान प्रदान किया। • 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण किया था। उस समय भारत ने डटकर मुकाबला किया। यदि संघर्ष चलता तो तृतीय विश्व युद्ध भी हो सकता था, किंतु भारत ने विश्व शांति के उद्‌देश्य से लाया गया कोलंबो प्रस्ताव मान लिया था। • विश्व शांति की स्थापना के उद्‌देश्य से

भारत ने कश्मीर की समस्या को संयुक्त राष्ट्र में भेज दिया। • नवंबर 1988 में अपने पड़ोसी राष्ट्र मालद्वीप में सेना भेजकर जो सहायता की थी, उसकी विश्व भर में सराहना की गई। • श्रीलंका में भारत ने अपनी शांति सेना भेजकर सच्ची मानवता का परिचय दिया। स्पष्ट है कि भारत विश्व शांति के लिए हमेशा योगदान करता आया है, बल्कि उसके लिए हमेशा से प्रयत्नशील भी है। भारत सभी देशों के साथ मधुर संबंध स्थापित कर विश्व में शांति की स्थापना करना चाहता है। गुट-निरपेक्षता में भारत का पूर्ण विश्वास है।


22 - 28 अक्टूबर 2018

ग्लेडविन जेब

24 अक्टूबर 1945 – 1 फरवरी 1946

यूनाइटेड किंगडम द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अगस्त 1945 में वे नए संयुक्त राष्ट्र के गठन हेतु बनाई गई तैयारी समिति के कार्यवाहक सचिव नियुक्त हुए। अक्टूबर 1945 से फरवरी 1946 तक उन्होंने संयुक्त राष्ट्र के कार्यवाहक महासचिव के रूप में अपनी सेवाएं प्रदान की।

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आवरण कथा

संयुक्त राष्ट्र के महासचिव 1

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डैग हैमरस्क्जोंल्ड

ट्रीगवी ली

02 फरवरी 1946 – 10 नवंबर 1952

नॉर्वे नार्वे के विदेश मंत्री और पूर्व श्रमिक नेता रहे। 1951 में सोवियत संघ ने ली की पुनर्नियुक्ति पर वीटो लगाया। अमेरिका ने ली की पुनर्नियुक्ति के पक्ष में वोट किया। फलत: ली 5 के मुकाबले 45 वोटों विजयी हुए। सोवियत संघ से लगातार अनबन के कारण उन्होंने 1952 में अपने पद से इस्तीफा दे दिया था।

यू. थांट

10 अप्रैल 1953 – 18 सितंबर 1961

स्वीडन उम्मीदवारों की एक लंबी श्रृंखला के बाद जब कोई प्रतिनिधि नहीं चुना गया, तब संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के द्वारा डैग हैमरस्क्जोंल्ड को विकल्प के रूप में चुना गया, किंतु वे दुबारा 1957 में निर्विरोध चुने गए। सोवियत संघ उनके नेतृत्व में कांगो समस्या के दौरान गुस्से में आ गया था और सुझाव दिया था कि इस पद पर त्रिकोणीय उम्मीदवार का गठन किया जाए। हैमरस्क्जोंल्ड की मृत्यु हवाई दुर्घटना में हुई थी जब वे कांगो के लिए एक शांति मिशन पर थे।

30 नवंबर 1961 – 31 दिसंबर 1971

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कुर्त वॉल्डहाइम

01 जनवरी 1972 – 31 दिसंबर 1981

ऑस्ट्रिया वॉल्डहाइम ने एक प्रभावी अभियान की शुरुआत की। तीसरे दौर में चीन और ब्रिटेन से प्रारंभिक वीटो के बावजूद वे नए महासचिव चुने गए। 1976 में चीन ने फिर उनका विरोध किया, किंतु वह दूसरे मतपत्र पर नरम पड़ गया। 1980 में उनके तीसरे कार्यकाल हेतु किए गए नामांकन पर चीन ने फिर से वीटो का इस्तेमाल किया।

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बुतरस घाली

01 जनवरी 1992 – 31 दिसंबर 1996 मिस्र 7 गुटनिरपेक्ष आंदोलन के 102 सदस्यों ने जोर देकर कहा कि अगला महासचिव अफ्रीका से आना चाहिए। महासभा में बहुमत के कारण तथा चीन के समर्थन के फलस्वरूप गुटनिरपेक्ष आंदोलन से जुड़े सदस्यों के लिए किसी भी विपक्षी उम्मीदवार को ब्लॉक करने हेतु आवश्यक वोट था।

बान की मून

01 जनवरी 2007– 31 दिसंबर 2016

दक्षिण कोरिया 13 अक्टूबर 2006 को वे संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा आठवें महासचिव चुने गए। उनके कार्यकाल की एक अवधि की समाप्ति के पश्चात उन्हें पुन: 2011 में अगली अवधि के लिए चुन लिया गया है। महासचिव बनने से पहले वे जनवरी 2004 से नवंबर 2006 तक कोरिया गणराज्य के विदेश मंत्री रहे।

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म्यांमार थांट केवल डैग हैमरस्क्जोंल्ड के स्थान पर नए महासचिव नियुक्त ही नहीं हुए, बल्कि वे पहले एशियाई महासचिव भी बने। अगले वर्ष थांट पांच साल का कार्यकाल पूरा करने के लिए सर्वसम्मति से पुन: चुन लिए गए। इसी प्रकार वे अपने दूसरे कार्यकाल के लिए निर्वाचित हुए।

जेवियर पेरिज डी कुईयार

01 जनवरी 1982 – 31 दिसंबर 1991 पेरू पांच सप्ताह के चुनावी गतिरोध के बाद तंजानिया के सलीम अहमद सलीम के मुकाबले जेवियर पेरिज डी कुईयार निर्वाचित हुए। कुईयार इस पद पर निर्वाचित होने वाले पहले अमेरिकी महाद्वीप के निवासी थे। वे 1986 में अगली अवधि के लिए पुन: चुने गए।

कोफी अन्नान

01 जनवरी 1997 – 31 दिसंबर 2006

घाना 13 दिसंबर 1996 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने अन्नान के नाम की सिफारिश की ताकि वह पूर्व महासचिव डॉ. बुतरस घाली की जगह ले सकें। घाली के दूसरे कार्यकाल को अमेरिका के वीटो का सामना करना पड़ा था।

एंटोनियो गुटेरेस

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01 जनवरी 2017 – वर्तमान पुर्तगाल गुटेरेस, कुर्त वॉल्डहाइम (1972–1981) के बाद पश्चिमी यूरोप से चुने गए प्रथम महासचिव हैं। इसके अतिरिक्त वो ऐसे प्रथम महासचिव हैं, जो किसी सरकार के पूर्व मुखिया रहे हैं और उनका जन्म संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के बाद हुआ है। वो वर्ष 1995 से 2002 तक पुर्तगाल के प्रधानमंत्री रहे। इससे पूर्व वो समाजवादी इंटरनेशनल (1999–2005) और शरणार्थियों के लिए संयुक्त राष्ट्र उच्चायुक्त (2005–2015) के अध्यक्ष भी रह चुके हैं।


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राज्यनामा

22 - 28 अक्टूबर 2018

बेघर बच्चों के 'घर' के 25 साल पूरे

लातूर में आए विनाशकारी भूकंप के बाद पीड़ितों की मदद के लिए 1994 में 'एसओएस चिल्ड्रेंस विलेज लातूर' की स्थापना हुई थी

हाराष्ट्र के लातूर में 29 सितंबर, 1993 को आए विनाशकारी भूकंप के बाद पीड़ितों की मदद के लिए 1994 में 'एसओएस चिल्ड्रेंस विलेज लातूर' की स्थापना की गई थी। इस आपदा के कारण अनाथ और बेघर हुए बच्चों को एक ऐसा 'घर' मिला, जहां उनके समग्र उत्थान व भावनात्मक कल्याण के साथ उन्हें स्वावलंबी और जिम्मेदार नागरिक बनाया जा रहा है। भूकंप प्रभावित लातूर क्षेत्र में एसओएस इंडिया द्वारा शुरू की गई लगातार सहायता और प्रतिबद्ध सेवा का यह 25वां साल है।

इन 25 वर्षो में 'एसओएस इंडिया' ने कई प्रभावित परिवारों और परित्यक्त बच्चों का क्रमश: परिवार आधारित देखभाल (एफबीसी) और परिवार सुदृढ़ीकरण कार्यक्रम (एफएसपी) के माध्यम से पुनर्वास किया है। वर्तमान में 139 अनाथ एवं परित्यक्त बच्चे लातूर के अपने चिल्ड्रेन्स विलेज के 12 फैमिली होम्स में रह रहे हैं। यहां अनाथ एवं परित्यक्त बच्चों को परिवार जैसा वातावरण प्रदान करने के लिए एसओएस इंडिया के एफबीसी कार्यक्रम का डिजायन तैयार

लद्दाख क्षेत्र में त्वचा कैंसर के मामलों में वृद्धि

किया गया है, ताकि बच्चों में विश्वास भरा जा सके। एसओएस माताएं यह सुनिश्चित करती हैं कि उनके बच्चों में उनके संरक्षक, अनुशासनात्मक और मित्र के रूप में अच्छे मूल्य पैदा किए जाएं। ये लोग एसओएस चरित्र तैयार करती हैं और यही सबसे बड़ा कारण है कि एसओएस इंडिया दूसरों के साथ खड़ा है। उनकी प्रतिबद्धता और कड़ी मेहनत के कारण आज कुल 171 युवा (91 लड़के एवं 77 लड़कियां) इंजीनियर, डॉक्टर, शिक्षक, आईटी और हॉस्पिटैलिटी उद्योग पेशेवरों आदि के रूप में विभिन्न क्षेत्रों में स्थापित हैं। लातूर गांव में, एसओएस मां के रूप में, शकुंतला ने अभी तक 30 बच्चों को पालकर बड़ा किया है, जिनमें उनके छह बेटे और चार बेटियां स्थापित हो गए हैं और शादी कर ली है। साझा करने के लिए इस तरह की कई बेहतरीन कहानियां हैं। सोनू लातूर गांव की पहली लड़की थी, जिसने इंजीनियरिंग को एक पेशे के रूप में लिया। इस गांव के समग्र माहौल में पलने वाले बच्चों में अर्चना, ज्योति, शिवाजी, पद्मा आदि कई बच्चे शामिल हैं। एसओएस चिल्ड्रेंस विलेज ऑफ इंडिया की महासचिव, अनुजा बंसल कहती हैं, ‘लातूर के विनाशकारी भूंकप के बाद के पिछले 24 सालों के अपने कामों पर नजर डालने के लिए यह एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है। सालों तक, उदारतापूर्वक योगदान देने वाले अपने सह-

कर्मियों की कड़ी मेहनत और प्रतिबद्धता एवं हमारे प्रायोजकों एवं दाताओं के सहयोग बिना लातूर गांव के बच्चों के जीवन को प्रभावित करने वाली यह यात्रा संभव नहीं होती।’ अनुजा ने कहा, ‘यह देखकर मुझे काफी गर्व होता है कि हमारे बच्चों ने विकास किया है और उन्होंने अपने सपनों को पूरा करने में कोई बाधा नहीं आने दिया है। वर्तमान में हमारे एफबीसी कार्यक्रम के अंतर्गत पल रहे 139 बच्चों के अलावा हम लोग एफएसपी के अंतर्गत 398 कमजोर परिवारों के 940 बच्चों की जरूरतों को पूरा करने की कोशिश कर रहे हैं।’ उन्होंने आगे कहा, ‘हम लोग बच्चों में उद्यमशीलता एवं सॉफ्ट स्किल्स के विकास के लिए व्यक्तित्व विकास, अंग्रेजी संवाद और व्यावसायिक प्रशिक्षण आदि के ऊपर नियमित रूप से कार्यशालाओं का आयोजन करके बच्चों को सशक्त करने का सभी संभव प्रयास करते हैं।’ वर्ष 1964 में स्थापित एसओएस इंडिया एक गैर-सरकारी, गैर-लाभकारी, स्वैच्छिक चाइल्डकेयर संगठन है। इसने 'एसओएस भारतीय बाल ग्राम' की स्थापना की और स्थापना के समय से ही यह अनाथ एवं परित्यक्त बच्चों को प्यारी मां, भाई, बहन एवं एक प्यारा घर और एक समुदाय सहित परिवार जैसा माहौल प्रदान करता रहा है। एसओएस इंडिया का उद्देश्य इन बच्चों के लिए परिवार तैयार करना है। (आईएएनएस)

एक शोध से पाता चला है कि अत्यधिक ऊंचाई, पराबैंगनी किरणों की अधिकता, ऑक्सीजन की कमी और बैठे रहने वाली जीवनशैली के कराण लद्दाख में त्वचा कैंसर फैल रहा है

भा

रत के लद्दाख क्षेत्र में स्थानीय लोगों में गैस्ट्रो-इंटेस्टाइनल (जीआई) और त्वचा कैंसर के मामलों में वृद्धि हुई है। एक हालिया शोध में इस बात का खुलासा हुआ है। अध्ययन के मुताबिक अत्यधिक ऊंचाई, पराबैंगनीकिरण (यूवी) किरणों की अधिकता, ऑक्सीजन की कमी और बैठे रहने वाली जीवनशैली जीआई और त्वचा कैंसर के प्रमुख कारणों में शामिल हैं। शोध के मुताबिक, जीआई कैंसर में वृद्धि ज्यादातर अस्वास्थ्यकर और निष्क्रिय जीवनशैली के कारण होती है। बासी मीट खाने और गर्म पेय पदार्थो की अधिक खपत के कारण ऐसा होता है। जीआई कैंसर 40 साल से अधिक उम्र के पुरुषों में होना आम है। उन महिलाओं में भी यह अधिक होता है, जिन्हें रजोनिवृत्ति या मीनोपॉज हो चुका है। जीआई कैंसर से निपटने के लिए कैंसर उपचार

और जरूरी दवाओं तक सबकी पहुंच भी नहीं हो पाती है। हार्ट केयर फाउंडेशन (एचसीएफआई) के अध्यक्ष डॉ. केके अग्रवाल ने कहा, ‘भारत में कैंसर के मामलों की वृद्धि के पीछे न सिर्फ बेहतर जांच सुविधाओं का उपलब्ध होना है, बल्कि जीवनशैली में बदलाव भी इसका एक प्रमुख कारण है। कैंसर से होने वाली मौतों का लगभग एक तिहाई हिस्सा पांच प्रमुख व्यवहार और आहार संबंधी जोखिमों से संबंधित है, जैसे तंबाकू, उच्च बीएमआई, फलों व सब्जी की कम खपत, शारीरिक गतिविधि की कमी, और शराब का सेवन।’ उन्होंने कहा, ‘जागरूकता पैदा करना जरूरी हो गया है, क्योंकि बीमारी के शुरुआती चरणों में केवल 12.5 प्रतिशत रोगी ही उपचार करवाते हैं।

हालांकि कैंसर मामले बढ़ते जाने से यह रोग एक महामारी बन गया है, परंतु विडंबना यह है कि कैंसर की दवाएं बहुत महंगी हैं और आम आदमी तक इनकी पहुंच भी नहीं है। इस प्रकार, लोगों को किफायती दामों पर कैंसर दवाएं उपलब्ध कराना बहुत जरूरी है। सरकार को कैंसर की शुरुआती जांच सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त कदम उठाने चाहिए, क्योंकि यह एक तथ्य है कि शुरुआती जांच से कई जानें बचायी जा सकती हैं।’ डॉ. अग्रवाल ने बताया, ‘भारत में इलाज के लिए भारत में ही निर्माण जरूरी है। सबको समय पर इलाज मिल सके, यह सुनिश्चित करना भी आवश्यक है। इसमें चिकित्सा उपकरणों को भी शामिल किया गया है। इसका उद्देश्य सभी महत्वपूर्ण और जीवन रक्षा उपकरणों को सस्ती

कीमतों पर उपलब्ध और सुलभ बनाकर सभी के लिए किफायती स्वास्थ्य देखभाल के लक्ष्य को हासिल करना है।’ डॉ. अग्रवाल ने कैंसर की रोकथाम के लिए कुछ सुझाव देते हुए कहा, ‘किसी भी रूप में तंबाकू का उपयोग करने से बचें। चबाने वाला तंबाकू का संबंध माउथ कैविटी और पैंक्रियाज के कैंसर से है। स्वस्थ आहार का उपभोग करें। स्वस्थ वजन बनाए रखें। हर दिन शारीरिक गतिविधि न सिर्फ वजन घटाने, बल्कि फिट रहने के लिए भी महत्वपूर्ण है। खतरनाक आदतों से बचें। असुरक्षित सेक्स और इंजेक्शन को शेयर करने जैसी आदतें संक्रमण का कारण बन सकती हैं, जिससे बदले में कैंसर का खतरा बढ़ सकता है।’ (आईएएनएस)


22 - 28 अक्टूबर 2018

विज्ञान

साइकल चलाइए, कैंसर से बचिए की

एक शोध में यह बात सामने आई है जिसके मुताबिक, नियमित रूप से साइकिल चलाने से कैंसर का खतरा कम होता है

मती बाइक और लग्जरी कार हमेशा से स्टेट्स सिंबल रही हैं, लेकिन अब साइकल भी तेजी से स्टेटस सिंबल बनती जा रही है। बड़ी संख्या में लोग स्वस्थ रहने के लिए साइकल चला रहे हैं। साइक्लिंग एक बेहतरीन व्यायाम है जिसमें शरीर की सभी मांसपेशियां शामिल होती हैं और शरीर गतिशील रहता है। लेकिन साइकल चलाने के इसके अलावा भी कई और फायदे हैं। साइकल चलाकर दिल की बीमारियों के साथ ही असमय मौत से भी बचा जा सकता है। शोध में इस बात का खुलासा हुआ है कि साइकल चलाने से दिल की बीमारियों का खतरा 46 फीसदी तक कम हो जाता है। वहीं पैदल चलने से दिल की बीमारियों का खतरा 27 फीसदी घट जाता है। साइक्लिंग कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों से बचाने में सहायक होती है। हाल में हुए शोध में

यह बात सामने आई है जिसके मुताबिक, नियमित रूप से साइकिल चलाने से कैंसर का खतरा कम होता है। यह अध्ययन ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में प्रकाशित किया गया है। शोधकर्ताओं ने बताया कि ऑफिस तक साइकिल से जाना पैदल जाने से भी ज्यादा लाभकारी है। नियमित रूप से साइकिल चलने से कैंसर का खतरा 45 फीसदी तक कम होता है। शोध के दौरान 2 लाख 64 हजार 377 लोगों के आंकड़ों का अध्ययन किया गया, जिनकी औसत आयु 53 वर्ष थी। रिसर्च की मानें तो वजन कम करने के लिए आपको एक्सर्साइज के जरिए एक हफ्ते में कम से कम 2 हजार कैलरी बर्न करनी चाहिए और आपको जानकर हैरानी

होगी कि स्थिर और नियमित रूप से साइकल चलाने से हर घंटे 300 कैलरी बर्न होती है। ऐसे में आप जितना ज्यादा साइकल चलाएंगे आपकी कैलरी उतनी ज्यादा बर्न होगी और शरीर से फैट कम होगा। लेकिन इसके लिए बेहद जरूरी है कि आप साइकल चलाने के साथ ही हेल्दी डायट भी लें। विशेषज्ञों की मानें तो साइकल चलाने से न सिर्फ आपका हार्ट रेट बढ़ता हैख् बल्कि कैलोरीज भी बर्न होती है। नियमित रूप से साइकल चलाने से शरीर के सभी हिस्सों से फैट कम होना शुरू हो जाएगा जिसमें बेली फैट भी शामिल है। साइकलिंग की सबसे अच्छी बात यह है कि आप इसे बड़ी आसानी से अपने डेली रूटीन में शामिल कर सकते हैं। अगर आपको सामान लेने बाजार जाना है या फिर ऑफिस जाना या स्कूल जाना। इसके लिए कार या बाइक की बजाए साइकल का इस्तेमाल करें। साइकलिंग एक लो-इम्पैक्ट एक्सर्साइज है जिसे हर उम्र के लोग कर सकते हैं। (एजेंसी)

13 घुल रहा है समुद्री घोंघों का खोल ब्रिटेन और जापान के अनुसध ं ानकर्ताओं ने दावा किया है कि बढ़ रही सीओ2 की मात्रा से घोंघों के खोल की मोटाई, घनत्व, बनावट पर प्रतिकल ू प्रभाव पड़ रहा है

न और जापान के विश्वविद्यालयों ने ब्रिटेजलवायु परिवर्तन पर संयुक्त रूप से

किए गए एक अध्ययन में पाया कि बेहद अम्लीय समुद्रों में रहने वाले घोंघों के लिए जिंदा रहना बहुत मुश्किल साबित हो रहा है। ब्रिटेन के प्लाइमौथ विश्वविद्यालय और जापान के सुकुबा विश्वविद्यालय के अनुसंधानकर्ताओं ने समुद्र के पानी में बढ़ रहे कार्बन डाईऑक्साइड (सीओ2) के बड़े आकार वाले समुद्री घोंघों (शंख) के खोल पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन किया। अनुसंधानकर्ताओं ने पाया कि पानी में लगातार बढ़ रही सीओ2 की मात्रा से घोंघों के खोल की मोटाई, घनत्व, बनावट आदि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। अम्लीयता के कारण खोल घुल रहा है। इस अध्ययन का निष्कर्ष फ्रंटियर्स इन मरीन साइंस नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। अनुसंधानकर्ताओं ने चेतावनी दी है कि खोल वाले अन्य जीवों पर भी ऐसा ही प्रभाव पड़ रहा है। इससे उनके जीवन को खतरा उत्पन्न हो रहा है। सुकुबा विश्वविद्यालय के सहायक प्रोफेसर बेन हार्वे ने कहा कि समुद्रों का अम्लीकरण स्पष्ट रूप से समुद्री जीवन के लिए खतरा है। (एजेंसी)

अब रेलगाड़ियों में भी ब्लैक बॉक्स

हवाई जहाजों की तरह अब रेलवे ट्रेनों में भी ब्लैक बॉक्स लगाएगी भी हवाई जहाज की तरह देशब्लैकमें अबबॉक्सट्रेनोंकामें इस्तेमाल होगा। रेलवे के

एक अधिकारी ने कहा कि जांचकर्ताओं के लिए दुर्घटनाओं का पता लगाना और चालक दल के कार्यो का आकलन करना सुगम बनाने के लिए जल्द ही ट्रेनों में वॉइस रिकॉर्डर या ब्लैक बॉक्स होगा। रेलयात्रियों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए भारतीय रेल ने लोको कैब वॉइस रिकॉर्डिग (एलसीवीआर) डिवाइस इंजन में लगाने का फैसला किया है। यह जानकारी रेल मंत्रालय के एक अधिकारी ने दी। अधिकारी ने कहा कि यह सिस्टम विकास के क्रम में है।

इंजन में लगे वीडियो/वॉइस रिकॉर्ड रिस्टम से जांचकर्ताओं को महत्वपूर्ण आंकड़े प्राप्त होंगे, जोकि उनको हादसे के कारणों के लिए जिम्मेदार घटनाओं के तार जोड़ने में मदद करेंगे। साथ ही, इससे संचालन संबंधी समस्यओं और चालक दलों के निष्पादन समेत मानवीय कारकों के बारे में भी जानने में मदद मिलेगी। फिलहाल, ब्लैकबॉक्स का इस्तेमाल वायुयान में ही होता है। इसमें दो अलग-अलग उपकरण होते हैं। एक में उड़ान के आंकड़ो की रिकॉर्डिग होती है और दूसरे में कॉकपिट की ध्वनि। यह हवाई जहाज के पिछले हिस्से में होता है, जहां वे किसी दुर्घटना की

स्थिति में सुरक्षित बचे रहते हैं। रेलवे ने पिछले महीने सेंसर युक्त स्मार्ट कोच उतार है जिनमें बेयरिंग, ह्वील और रेल ट्रैक में

गड़बड़ी का पता चल सकता है। पहला स्मार्ट कोच का अनावरण 25 सितंबर को उत्तर प्रदेश के रायबरेली स्थित मॉडर्न कोच फैक्टरी में किया गया। अधिकारी ने बताया कि स्मार्ट कोच में लगे ब्लैक बॉक्स में बहुआयामी संचार फलक है जो यात्रियों और कोच की दशाओं के बारे में वास्तविक समय पर जानकारी देता है। (आईएएनएस)


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पुस्तक अंश

13 गांधी जी के लिए उनका विलायत प्रवास कई कारणों से महत्वपूर्ण था। उनकी सत्य के प्रति निष्ठा के साथ अहिंसा को लेकर जिस विचारसंस्कार के कारण बाद में पूरी दुनिया प्रभावित हुई, उसके बीज संस्कार उनके अंदर कैसे पड़े, यह उनके विलायत के अनुभवों में साफ दिखता है। अहम यह भी है कि आहार जैसे विषय को उन्होंने न सिर्फ अहिंसा से जोड़े, बल्कि इस बात को लेकर तार्किकता के साथ मानवीयता के साथ जोड़कर देख रहे थे

प्रथम भाग

22 - 28 अक्टूबर 2018

आहार और अहिंसा

छोड़े और प्रयोग भी छोड़ा। यह एक सूक्ष्म रहस्य है और ध्यान में रखने योग्य। विलायत में मैंने मांस की तीन व्याख्याएं पढ़ी थी। एक के अनुसार मांस का अर्थ पशु-पक्षी का मांस था। अतएव ये व्याख्याकरा उनका त्याग करते थे, पर मच्छी खाते थे, अंडे तो खाते ही थे। दूसरी व्याख्या के अनुसार साधारण मनुष्य जिसे जीव के रूप में जानता हैं, उसका त्याग किया जाता था। इसके अनुसार मच्छी त्याज्य थी, पर अंडे ग्राह्य थे। तीसरी व्याख्या में साधारणतया जितने भी जीव माने जाते हैं, उनके और उनसे उत्पन्न होने वाले पदार्थों के त्याग की बात थी। इस व्याख्या के अनुसार अंडों का और दूध का भी त्याग बंधनकारक था। यदि मैं इनमें से पहली व्याख्या को मानता , तो मच्छी भी खा सकता था। पर मैं समझ गया कि मेरे लिए तो माताजी की व्याख्या ही बंधनकारक है। अतएव यदि मुझे उनके सम्मुख ली गई प्रतिज्ञा का पालन करना हो तो अंडे खाने ही न चाहिए। इस कारण मैंने अंडों का त्याग किया। पर मेरे लिए यह बहुत कठिन हो गया, क्योंकि बारीकी से पूछताछ करने पर पता चला कि अन्नाहार भोजन-गृह में भी अंडोंवाली बहुत चीजें बनती थी। तात्पर्य यह कि वहां भी भाग्यवश मुझे तब कर परोसने वालों से पूछताछ करनी पड़ी थी, जब तक कि मैं अच्छा जानकार न हो गया, क्योकि कई तरह के 'पुडिंग' में और कई तरह के 'केक' में तो अंडे होते ही थे। इस कारण एक तरह से तो मैं जंजाल से छूटा, क्योंकि थोड़ी और बिल्कुल सादी चीजें ही ले सकता था। दूसरी तरफ थोड़ा आघात भी लगा, क्योंकि जीभ से लगी हुई कई चीजों का मुझे त्याग करना पड़ा था। पर वह आघात क्षणिक था। प्रतिज्ञा-पालन का स्वच्छ, सूक्ष्म और स्थायी स्वाद उस क्षणिक स्वाद की तुलना में मुझे अधिक प्रिय लगा। पर सच्ची परीक्षा तो आगे होने वाली थी, और वह एक दूसरे व्रत के निमित्त से। जिसे राम रखे, उसे कौन चखे? इस अध्याय को समाप्त करने से पहले प्रतिज्ञा के अर्थ के विषय में कुछ कहना जरुरी है। मेरी प्रतिज्ञा माता के सम्मुख किया हुआ एक करार था। दुनिया में बहुत से झगडे़ केवल करार के अर्थ के कारण उत्पन्न होते हैं। इकरारनामा कितनी ही स्पष्ट भाषा में क्यों न लिखा जाए, तो

आर्थिक दृष्टि तो मेरे सामने थी ही। उन दिनों एक पंथ ऐसा था, जो चाय-कॉफी को हानिकारक मानता था और कोको का समर्थन करता था। मैं यह समझ चुका था कि केवल उन्हीं वस्तुओं का सेवन करना योग्य है, जो शरीरव्यापार के लिए आवश्यक हैं। इस कारण मुख्यतः मैंने चाय और कॉफी का त्याग किया और कोको को अपनाया। भोजन-गृह के दो विभाग थे। एक में जितने पदार्थ खाओ उतने पैसे देने होते थे। इनमें एक बार में शिलिंग-दो शिलिंग भी खर्च हो जाता था। इस विभाग में अच्छी स्थिति के लोग जाते थे। दूसरे विभाग में छह पेनी में तीन पदार्थ और डबल-रोटी का एक टुकड़ा मिलता था। जिन दिनों मैंने खूब किफायतशारी शुरू की थी, उन दिनों मैं अक्सर छह पेनीवाले विभाग में जाता था। इन प्रयोगों के साथ उप-प्रयोग तो बहुत हुए। कभी स्टार्च वाला आ ह ा र छोड़ा, कभी सिर्फ डबल रोटी और फल पर ही रहा, कभी पनीर, दूध और अंडों का ही सेवन किया। यह आखिरी प्रयोग उल्लेखनीय है। यह पंद्रह दिन भी नहीं चला। स्टार्च-रहित आहार का समर्थन करने वालों ने अंडों की खूब स्तुति की थी और यह सिद्ध किया था कि अंडे मांस नहीं हैं। यह तो स्पष्ट है कि अंडे खाने से किसी जीवित प्राणी को दुख नहीं पहुंचता। इस दलील के भुलावे में आकर मैंने माताजी के सम्मुख की हुई प्रतिज्ञा के रहते भी अंडे खाए, पर मेरा वह मोह क्षणिक था। प्रतिज्ञा का नया अर्थ करने का मुझे स्टार्च-रहित आहार का समर्थन करने वालों ने अंडों की खूब स्तुति की थी और कोई अधिकार न था। अर्थ तो प्रतिज्ञा करानेवाले का ही माना यह सिद्ध किया था कि अंडे मांस नहीं हैं। यह तो स्पष्ट है कि अंडे खाने से किसी जा सकता था। मांस न खाने की प्रतिज्ञा कराने वाली माता को अंडों का तो ख्याल हो ही नहीं सकता था, इसे मैं जानता जीवित प्राणी को दुख नहीं पहुंचता। इस दलील के भुलावे में आकर मैंने माताजी के सम्मुख की हुई प्रतिज्ञा के रहते भी अंडे खाए, पर मेरा वह मोह क्षणिक था था। इस कारण प्रतिज्ञा के रहस्य का बोध होते ही मैंने अंडे


22 - 28 अक्टूबर 2018

भी भाषाशास्त्री 'राई का पर्वत' कर देंगे। इसमे सभ्यअसभ्य का भेद नहीं रहता। स्वार्थ सबको अंधा बना देता हैं। राजा से रंक तक सभी लोग करारों के खुद को अच्छे लगने वाले अर्थ करके दुनिया को, खुद को और भगवान को धोखा देते हैं। इस प्रकार पक्षकार लोग जिस शब्द अथवा वाक्य का अपने अनुकूल पड़नेवाला अर्थ करते हैं, न्यायशास्त्र में उसे द्वि-अर्थी मध्यपद कहा गया हैं। सुवर्ण न्याय तो यह है कि विपक्ष ने हमारी बात का जो अर्थ माना हो, वही सच माना जाए। हमारे मन में जो हो वह खोटा अथवा अधूरा है। और ऐसा ही दूसरा सुवर्ण न्याय यह है कि जहां दो अर्थ हो सकते हैं, वहीं दुर्बल पक्ष जो अर्थ करे, वही सच माना चाहिए। इन दो सुवर्ण मार्गों का त्याग होने से ही अक्सर झगड़े होते हैं और अधर्म चलता हैं। इस अन्याय की जड़ असत्य हैं। जिसे सत्य के ही मार्ग पर जाना हो, उसे सुवर्ण मार्ग सहज भाव से मिल जाता है। उसे शास्त्र नहीं खोजने पड़ते। माता ने 'मांस' शब्द का जो अर्थ माना और जिसे मैंने उस समय समझा, वही मेरे लिए सच्चा था। वह अर्थ नहीं जिसे मैं अपने अधिक अनुभव से या अपनी विद्वत्त के मद मे सीखा-समझा था। इस समय तक के मेरे प्रयोग आर्थिक और आरोग्य की दृष्टि से होते थे। विलायत मे उन्होंने धार्मिक स्वरुप ग्रहण नही किया था। धार्मिक दृष्टि से मेरे कठिन प्रयोग दक्षिण अफ्रीका में हुए, जिन की छानबीन आगे करनी होगी। पर कहा जा सकता हैं कि उनका बीज विलायत में बोया गया था। जो आदमी नया धर्म स्वीकार करता है, उसमें उस धर्म के प्रचार का जोश उस धर्म में जन्मे हुए लोगों की अपेक्षा अधिक पाया जाता है। विलायत में तो अन्नाहार एक नया धर्म ही था और मेरे लिए भी वह वैसा ही माना जाएगा, क्योंकि बुद्धि से तो मैं मांसाहार का हिमायती बनने के बाद ही विलायत गया था। अन्नाहार की नीति को ज्ञानपूर्वक तो मैंने विलायत में ही अपनाया था। अतएव मेरी स्थिति नए धर्म में प्रवेश करने-जैसी बन गई थी और मुझ में नवधर्मी का जोश आ गया था। इस कारण इस समय मैं जिस बस्ती में रहता था, उसमें मैंने अन्नाहारी मंडल की स्थापना करने का निश्चय किया। इस बस्ती का नाम बेजवॉटर था। इसमें सर एडविन आर्नल्ड रहते थे। मैंने उन्हें उपसभापति बनने को निमंत्रित किया। वे बने। डॉ. ओल्डफील्ड सभापति बने। मैं मंत्री बना। यह संस्था कुछ समय तक तो अच्छी चली, पर कुछ महीनों के बाद इसका अंत हो गया। क्योंकि मैंने अमुक मुद्दत के बाद अपने रिवाज के अनुसार वह बस्ती छोड़ दी। पर इस छोटे और अल्प अवधि के अनुभव से मुझे संस्थाओं का निर्माण करने और उन्हें चलाने का कुछ अनुभव प्राप्त हुआ।

18. लज्जाशीलता मेरी ढाल

अन्नाहारी मंडल की कार्यकारिणी में मुझे चुन तो लिया गया और उसमें मैं हर बार हाजिर भी रहता था, पर बोलने के लिए जीभ खुलती ही न थी। डॉ.

पुस्तक अंश

अन्नाहार की नीति को ज्ञानपूर्वक तो मैंने विलायत में ही अपनाया था। अतएव मेरी स्थिति नए धर्म में प्रवेश करने-जैसी बन गई थी और मुझ में नवधर्मी का जोश आ गया था। इस कारण इस समय मैं जिस बस्ती में रहता था, उसमें मैंने अन्नाहारी मंडल की स्थापना करने का निश्चय किया। इस बस्ती का नाम बेजवॉटर था ओल्डफील्ड मुझसे कहते, 'मेरे साथ तो तुम काफी बात कर लेते हो, पर समिति की बैठक में कभी जीभ ही नहीं खोलते हो। तुम्हें तो नर-मक्खी की उपमा दी जानी चाहिए।' मैं इस विनोद को समझ गया। मक्खियां निरंतर उद्यमी रहती हैं, पर नर-मक्खियां बराबर खाती-पीती रहती हैं और काम बिलकुल नहीं करतीं। यह बड़ी अजीब बात थी कि जब दूसरे सब समिति में अपनी-अपनी सम्मति प्रकट करते, तब मैं गूंगा बनकर ही बैठा रहता था। मुझे बोलने की इच्छा न होती हो सो बात नहीं, पर बोलता क्या? मुझे सब सदस्य अपने से अधिक जानकार मालूम होते थे। फिर किसी विषय में बोलने की जरूरत होती और मैं कुछ कहने की हिम्मत करने जाता, इतने में दूसरा विषय छिड़ जाता। यह चीज बहुत समय तक चली। इस बीच

समिति में एक गंभीर विषय उपस्थित हुआ। उसमे भाग न लेना मुझे अन्याय होने देने जैसा लगा। गूंगे की तरह मत देकर शांत रहने में नामर्दगी मालूम हुई। 'टेम्स आयर्न वर्कस' के मालिक हिल्स मंडल के सभापति थे। कहा जा सकता है कि मंडल उनके पैसे से चल रहा था। समिति के कई सदस्य तो उनके आसरे ही निभ रहे थे। समिति में डॉ. एलिंसन भी थे। उन दिनों संतानोत्पत्ति पर कृमित्र उपायों से अंकुश रखने का आंदोलन चल रहा था। डॉ. एलिंसन उन उपायों के समर्थक थे और मजदूरों में उनका प्रचार करते थे। मि. हिल्स को ये उपाय नीति-नाशक प्रतीत हुए। उनके विचार में अन्नाहारी मंडल केवल आहार के ही सुधार के लिए नहीं था, बल्कि वह एक नीतिवर्धक मंडल भी था। इसीलिए उनकी राय थी कि डॉ. एलिंसन के समान घातक विचार रखनेवाले

15 लोग उस मंडल में नहीं रहने चाहिए। इसलिए डॉ. एलिंसन को समिति से हटाने का एक प्रस्ताव आया। मैं इस चर्चा में दिलचस्पी रखता था। डॉ. एलिंसन के कृमित्र उपायों-संबंधी विचार मुझे भयंकर मालूम हुए थे, उनके खिलाफ मि. हिल्स के विरोध को मैं शुद्ध नीति मानता था। मेरे मन में उनके प्रति बड़ा आदर था। उनकी उदारता के प्रति भी आदर भाव था। पर अन्नाहार-संवर्धक मंडल में से शुद्ध नीति के नियमों को न माननेवाले का उसकी अश्रद्धा के कारण बहिष्कार किया जाए, इसमें मुझे साफ अन्याय दिखाई दिया। मेरा खयाल था कि अन्नाहारी मंडल के स्त्री-पुरुष संबंध विषयक मि. हिल्स के विचार उनके अपने विचार थे। मंडल के सिद्धांत के साथ उनका कोई संबंध न था। मंडल का उद्देश्य केवल अन्नाहार का प्रचार करना था, दूसरी नीति का नहीं। इसीलिए मेरी राय यह थी कि दूसरी अनेक नीतियों का अनादर करनेवाले के लिए भी अन्नाहार मंडल में स्थान हो सकता है। समिति में मेरे विचार के दूसरे सदस्य भी थे। पर मुझे अपने विचार व्यक्त करने का जोश चढ़ा था। उन्हें कैसे व्यक्त किया जाए, यह एक महान प्रश्न बन गया। मुझमें बोलने की हिम्मत नहीं थी, इसीलिए मैंने अपने विचार लिखकर सभापति के सम्मुख रखने का निश्चय किया। मैं अपना लेख ले गया। जैसा कि मुझे याद है, मैं उसे पढ़ जाने की हिम्मत भी नहीं कर सका। सभापति ने उसे दूसरे सदस्य से पढ़वाया। डॉ. एलिंसन का पक्ष हार गया। अतएव इस प्रकार के अपने इस पहले युद्ध में मैं पराजित पक्ष में रहा। पर चूंकि मैं उस पक्ष को सच्चा मानता था, इसलिए मुझे संपूर्ण संतोष रहा। मेरा कुछ ऐसा खयाल है कि उसके बाद मैंने समिति से इस्तिफा दे दिया था। मेरी लज्जाशीलता विलायत में अंत तक बनी रही। किसी से मिलने जाने पर भी, जहां पांच-सात मनुष्यों की मंडली इकट्ठा होती वहां मैं गूंगा बन जाता था। एक बार मैं वेंटनर गया था। वहां मजमुदार भी थे। वहां के एक अन्नाहार घर में हम दोनों रहते थे। 'एथिक्स ऑफ डायेट' के लेखक इसी बंदरगाह में रहते थे। हम उनसे मिले। वहां अन्नाहार को प्रोत्साहन देने के लिए एक सभा की गई। उसमें हम दोनों को बोलने का निमंत्रण मिला। दोनों ने उसे स्वीकार किया। मैंने जान लिया था कि लिखा हुआ भाषण पढ़ने में कोई दोष नहीं माना जाता। मैं देखता था कि अपने विचारों को सिलसिले से और संक्षेप में प्रकट करने के लिए बहुत से लोग लिखा हुआ पढ़ते थे। मैंने अपना भाषण लिख लिया। बोलने की हिम्मत नहीं थी। जब मैं पढ़ने के लिए खड़ा हुआ, तो पढ़ न सका। आंखों के सामने अंधेरा छा गया और मेरे हाथपैर कांपने लगे। मेरा भाषण मुश्किल से फुलस्केप का एक पृष्ठ रहा होगा। मजूमदार ने उसे पढ़कर सुनाया। मजूमदार का भाषण तो अच्छा हुआ। श्रोतागण उनकी बातों का स्वागत तालियों की गड़गड़ाहट से करते थे। मैं शरमाया और बोलने की अपनी असमर्थता के लिए दुखी हुआ। (अगले अंक में जारी)


16 खुला मंच

22 - 28 अक्टूबर 2018

लोगों के लिए उदाहरण स्थापित करना दूसरों को प्रभावित करने का एकमात्र साधन है – अल्बर्ट आइंस्टीन

असरकारी साबित हुई उज्ज्वला योजना

चार वर्ष पहले देश के सिर्फ 55 प्रतिशत परिवारों में ही रसोई गैस पर खाना बनता था, वहीं आज यह आंकड़ा 87 प्रतिशत पहुंच गया

रकारी संकल्प, अभियान और योजनाएं अगर महज सरकारी न होकर असरकारी भी साबित होती हैं, तो उसका देशव्यापी प्रभाव पड़ता है। दुर्भाग्य से बीते कुछ दशकों में यह धारणा मजबूत हुई है कि सरकारी योजनाएं और अभियान महज कागजों पर मजबूत दिखते हैं, जमीन पर उसका अमल और असर नदारद दिखता है। पर यह स्थिति अब बदल रही है। सिर्फ योजना की ही बात करें तो बदले हालात की गवाही देती है प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना। यह योजना जिस उद्देश्य के साथ शुरू हुई थी, वह उद्देश्य तेजी के साथ पूरा हो रहा है। सरकार ने गरीब महिलाओं को चूल्हे के धुएं से आजादी दिलाने और उनके बेहतर स्वास्थ्य को ध्यान में रख कर उज्ज्वला योजना शुरू की थी। इसके तहत गरीब परिवारों की महिलाओं को मुफ्त में एलपीजी कनेक्शन उपलब्ध कराया जाता है। आज इसी योजना का असर है कि देश में साफ ईंधन यानी गैस पर खाना बनाने वाले परिवारों की संख्या में भी भारी इजाफा हुआ है। गौरतलब है कि चार वर्ष पहले देश के सिर्फ 55 प्रतिशत परिवारों में ही रसोई गैस पर खाना बनता था, वहीं आज यह आंकड़ा 87 प्रतिशत पहुंच गया है। यानी रसोई गैस पर खाना वाले परिवारों की संख्या में रिकॉर्ड 32 फीसदी की वृद्धि हुई है। मोदी सरकार की इस स्कीम के तहत बीपीएल परिवारों की वयस्क महिलाओं के नाम पर मुफ्त एलपीजी कनेक्शन दिया जाता है। इस योजना के तहत सात श्रेणियों में से लाभार्थियों का चयन किया जाता है। इसमें एससी-एसटी परिवार, प्रधानमंत्री आवास योजना ग्रामीण के लाभार्थी, अंत्योदय अन्न योजना, जंगल में रहने वाले लोग, अति पिछड़े लोग, चाय बागानों में काम करने वाले आदिवासी, नदियों के बीच बने द्वीपों पर रहने वाले लोग शामिल हैं। अब तक कुल 5 करोड़ 64 लाख से अधिक मुफ्त गैस कनेक्शन दिए जा चुके हैं। सरकार का वर्ष 2020 तक आठ करोड़ परिवारों को मुफ्त गैस कनेक्शन मुहैया कराने का लक्ष्य है।

टॉवर फोनः +91-120-2970819

(उत्तर प्रदेश)

अभिमत

कुलभूषण उपमन्यु

स्वतंत्र लेखक और हिमालय नीति अभियान के अध्यक्ष

स्वच्छ ईंधन की दरकार और एथनोल

पर्यावरण प्रदूषण की समस्या के इस दौर में ऊर्जा के क्षेत्र में एथनोल के प्रयोग पर जोरदार चर्चा चल रही है, जो पर्यावरण के लिए वरदान हो सकता है

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ट्रोल और डीजल की दिनों-दिन बढ़ रही कीमतों के बीच वैकल्पिक ईंधन के रूप में एथनोल के प्रयोग से न केवल प्रदूषण पर लगाम लगेगी, बल्कि वर्तमान में उपलब्ध ईंधनों से कम से कम 30 प्रतिशत सस्ता होने के कारण इससे आम उपभोक्ताओं को बड़ी राहत भी मिल सकती है। एथनोल के प्रयोग से परिवहन के क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव आ सकता है और यह डीजल का विकल्प बन सकता है। पर्यावरण प्रदूषण की समस्या के इस दौर में ऊर्जा के क्षेत्र में एथनोल के प्रयोग पर जोरदार चर्चा चल रही है, जो पर्यावरण के लिए वरदान हो सकता है। भारत वर्ष 2013 के आकलन के अनुसार प्रति दिन 3.7 मिलियन बैरल पेट्रोलियम उत्पाद उपयोग करता है। जबकि स्वयं भारत लगभग 1 मिलियन बैरल पेट्रोलियम तरल ईंधन का ही उत्पादन कर पाता है। चीन, अमेरिका, और रूस के बाद भारत दुनिया में चौथा सबसे बड़ा ऊर्जा का उपभोक्ता है। तरल पेट्रोलियम ईंधन की मांग अधिकतर परिवहन और औद्योगिक क्षेत्र में है। यह मांग लगातार बढ़ने ही वाली है। खनिज तेल पर ईंधन के लिए निर्भरता दुनिया भर में मजबूरी की हद तक पहुंच गई है। सौर ऊर्जा आदि विकल्प अभी तक उतने भरोसे मंद नहीं बन सके हैं। किंतु पेट्रोलियम ईंधन के साथ समस्या यह है कि एक तो यह प्रदूषण कारक है। घनी आबादी वाले दिल्ली जैसे शहरों की हालत जग जाहिर है, जहां अब सांस लेना भी दूभर होता जा रहा है।

सरकारों के आगे भी यह एक बड़ी चुनौती पैदा हो गई है। सरकारों ने इस दिशा में कार्य करना आरंभ तो कर दिया है, किंतु जिस धीमी गति से यह चल रहा है, उससे समस्या पार पाना संभव नहीं हो पा रहा है। दूसरी समस्या खनिज तेल की उपलब्धता लगातार घटते जाने का खतरा है। भारत को अपनी जरूरत का 65 प्रतिशत के लगभग खनिज तेल आयात करना पड़ता है। यह हमारे लिए भारी खर्च का बोझ बनने के साथसाथ कूटनीतिक दबाव का कारण भी बना रहता है। यदि भारत की स्थिति को ध्यान में रख कर सोचें तो अपने संसाधनों पर निर्भरता को बढ़ाना ही एक अच्छा विकल्प हो सकता है। इसीलिए एथनोल को तरल ईंधन के विकल्प के रूप में विकसित करना और मान्यता देना जरूरी हो गया है। एथनोल प्रदूषणकारी नहीं है और भारत में इसके उत्पादन के लिए बहुत कच्चा माल भी है। एथनोल बनाने के लिए गन्ने का शीरा, सड़े गले फल,सड़ा गला मक्का, गेहूं काम आ सकता है। यह पहली पीढ़ी का एथनोल है। भारत में इसका उत्पादन आरंभ हो चुका है, किंतु अभी मामला शुरुआती दौर में ही है। इस पहली पीढ़ी के एथनोल को बनाने के लिए उन सभी पदार्थों को प्रयोग किया जा सकता है जिनमें शर्करा की अच्छी मात्रा उपलब्ध है। शर्करा को खमीर में सड़ा कर आसवन विधि द्वारा एथनोल बना लिया

भारत सरकार ने पेट्रोल में 10 प्रतिशत एथनोल मिलाने की शुरुआत की है इसे आगे 2030 तक 22 प्रतिशत तक बढ़ाने की योजना है। ब्राजील में तो पेट्रोल में एथनोल मिलाने के साथ-साथ शुद्ध एथनोल से चलने वाले वाहनों का प्रचलन बढ़ रहा है। एथनोल प्रदूषण रहित ईंधन है


22 - 28 अक्टूबर 2018 जाता है। इस पहली पीढ़ी के एथनोल के साथ समस्या यह है कि जिस गति से तरल ईंधन की मांग बढ़ती जा रही है उस गति से और उतनी मात्रा में इसके लिए वांछित कच्चा माल पैदा नहीं किया जा सकता। खास कर इससे कृषि क्षेत्र में अन्न उत्पादन की क्षमता पर बुरा असर पड़ सकता है। इसीलिए अन्न सुरक्षा से कोई समझौता नहीं किया जा सकता। फिर भी काफी सारा कच्चा माल बिना खेती को हानि पहुंचाए ही उपलब्ध हो जाता है। जैसे कि गन्ने से खांड बनाने के बाद शीरा उपउत्पाद बच जाता है। इसका सही आर्थिक प्रयोग करके किसानों को भी गन्ने की बेहतर लागत दी जा सकेगी और फालतू पदार्थ का सदुपयोग हो जाएगा। इसी तरह सड़े गले फल, और अनाज भी इस काम में आ सकते हैं। हिमाचल के निचले क्षेत्रों, सिरमौर, सोलन, बिलासपुर, हमीरपुर, कांगड़ा और चंबा में गोला नाख जैसे फलों को प्रोत्साहित करके एथनोल बनाने के काम में ला सकते हैं, इससे किसानों को भी अतिरिक्त आय के साधन उपलब्ध होंगे। उत्तराखंड के निचले शिवालिक क्षेत्रों में भी गोला नाख उत्पादन की संभावना है। इसमें पर्याप्त शर्करा होती है किंतु यह खाने के लिए अच्छी पसंद नहीं है। अभी भारत सरकार ने पेट्रोल में 10 प्रतिशत एथनोल मिलाने की शुरुआत की है इसे आगे 2030 तक 22 प्रतिशत तक बढ़ाने की योजना है। ब्राजील में तो पेट्रोल में एथनोल मिलाने के साथ-साथ शुद्ध एथनोल से चलने वाले वाहनों का प्रचलन बढ़ रहा है। एथनोल प्रदूषण रहित ईंधन है। एथनोल की खपत लगातार बढ़ाने की जरूरत है, ताकि उसी अनुपात में पेट्रोलियम की खपत कम होती जाए। इसके लिए हमें पहली पीढ़ी के एथनोल के साथ-साथ दूसरी पीढ़ी का एथनोल बनाने की शुरुआत भी करनी होगी। दूसरी पीढ़ी के एथनोल के लिए सब तरह के वानस्पतिक अवशेष कच्चे माल के रूप में प्रयोग किए जा सकते हैं। खास कर धान का पुआल और गेहूं की तूड़ी भी एथनोल बनाने के काम आ सकती है। सभी तरह का वनों में पड़ा वानस्पतिक कचरा भी काम आ सकेगा। वनस्पति से एथनोल बनाने के तीन चरण हैं। पहला प्राथमिक उपचारण है जिसमें वनस्पति से लिग्निन और सेलुलोस को अलग किया जाता है। दूसरे चरण में सेलुलोस को हाईड्रोलीसिस विधि से शर्करा में परिवर्तित किया जाता है और तीसरे चरण में शर्करा को खमीर करके सड़ा कर आसवन से एथनोल तैयार किया जाता है। दूसरी पीढ़ी का एथनोल बनाने से किसानों को कृषि अवशेषों के अच्छे दाम मिल सकेंगे और उन्हें जला कर प्रदूषण फैलाने की संभावना भी समाप्त हो जाएगी। वनों से फालतू अवशेष इकठ्ठा करने से लेकर एथनोल बनाने तक बड़े स्तर पर रोजगार भी पैदा हो सकेगा। ग्लोबल वार्मिंग के इस दौर में हम एथनोल का उपयोग बढ़ा कर खनिज पेट्रोलियम उत्पादों के उपयोग के कारण होने वाले कार्बन डाईआक्साइड के उत्सर्जन का स्तर भी लगा तार कम करने में सफल हो सकते हैं, जिससे जलवायु परिवर्तन को ले कर अपनी प्रतिबद्धता पूरी करना भी आसान हो जाएगा।

ओशो

संकल्प-समर्पण और स्त्री-पुरुष

ऐसा मनुष्य खोजना मुश्किल है, जो पूरा संकल्पवान हो। ऐसा मनुष्य भी खोजना मुश्किल है, जो पूरा समर्पण की तैयारी में हो। मनुष्य तो दोनों का जोड़ है

द्वानों ने पहले से कह रखा है कि कोई पुरुष पूरा पुरुष नहीं, कोई स्त्री पूरी स्त्री नहीं। आधुनिकतम खोजें कहती हैं कि हर मनुष्य के भीतर दोनों हैं। पुरुष के भीतर छिपी हुई स्त्री है, स्त्री के भीतर छिपा हुआ पुरुष है। जो फर्क है स्त्री और पुरुष में, वह प्रबलता का फर्क है, एंफैसिस का फर्क है। इसीलिए पुरुष स्त्री में आकर्षित होता है, स्त्री पुरुष में आकर्षित होती है। कार्ल गुस्ताव जुंग का महत्वपूर्ण देन इस सदी के विचार को है। उनकी अन्यतम खोजों में जो महत्वपूर्ण खोज है, वह है कि प्रत्येक पुरुष उस स्त्री को खोज रहा है, जो उसके भीतर ही छिपी है और प्रत्येक स्त्री उस पुरुष को खोज रही है, जो उसके भीतर ही छिपा है। इसीलिए यह खोज कभी पूरी नहीं हो पाती। जब आप किसी को पसंद करते हैं तो आपको पता नहीं कि पसंदगी का एक ही अर्थ होता है कि आपके भीतर जो स्त्री छिपी है या पुरुष छिपा है, उससे कोई पुरुष या स्त्री बाहर मेल खा रही है, इसीलिए आप पसंद करते हैं। लेकिन वह मेल पूरा कभी नहीं हो पाता, क्योंकि आपके भीतर जो प्रतिमा छिपी है, वैसी प्रतिमा बाहर खोजनी असंभव है। इसीलिए कभी थोड़ा मेल बैठता है, लेकिन फिर मेल टूट जाता है। या कभी थोड़ा मेल बैठता है, थोड़ा नहीं भी बैठता है। इसी के बीच बाहर सब चुनाव है। लेकिन चुनाव की विधि क्या है? हमारे भीतर एक प्रतिमा

rat.com sulabhswachhbha

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20 09

संगोष्ी

भारत में गांधीवादी होने का अर्थ

आरएनआई नंबर-DELHIN

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ल​ीक से परे

महान दार्शनिक और विचारक

वि

खुला मंच

व्यसतितव

प्रकृलत और सौंद्य्थ का क्ालसक कलव

्वच्छता

अस्रर पर ्वच्छता के लिए ततपर राष्ट्र

41/2017-19

डाक पंजी्यन नंबर-DL(W)10/22

/2016/71597

बदिते भारत का साप्ालह

वर्थ-2 | अंक-44 |15 -

` 10/21 अक्टूबर 2018 मूल्य

कालाहांडी

विकास की चमकीली इबारत लिए नहीं, बसलक ऐसे आज कािाहांडी गरीबी के है, लजसे देख कर लकसी लवकास के लिए चचा्थ में ं ी संवाद’ के ‘कािाहाड का भी चेहरा लखि उठे। लवकास के क्ेत्र में इस जररए ओलडशा सरकार ने ने-समझने का एक क्ेत्र की सफिता को देख पिे्फाम्थ सजा्या

है, एक चित्र है, उसे हम खोज रहे हैं कि वह कहीं बाहर मिल जाए। तो एक तो उपाय यह है कि हम उसे बाहर खोज लें, जो कि असफल ही होनेवाला है। एक सुख है, जो मेरे भीतर की स्त्री से बाहर की स्त्री का मेल हो जाए तो मुझे मिलता है। वह क्षणभंगुर है। फिर एक और मिलन भी है कि मेरे भीतर का पुरुष मेरे भीतर की स्त्री से मिल जाए। वह मिलन शाश्वत है। सांसारिक आदमी बाहर खोज रहा है, योगी उस मिलन को भीतर खोजने लगता है और जिस दिन भीतर की दोनों शक्तियां मिल जाती हैं, उस दिन पुरुष-पुरुष नहीं रह जाता, स्त्री-स्त्री नहीं रह जाती। उस दिन दोनों के पार चेतना हो जाती है। उस दिन व्यक्ति खण्डित न होकर अखंड आत्मा हो जाता है। जब हम कहते हैं कि संकल्प का मार्ग, तो इसका मतलब हुआ कि जो व्यक्ति बहुलता से पुरुष है, गौण रूप से स्त्रैण है, उसका मार्ग है। लेकिन उसके मार्ग पर भी थोड़ा-सा संकल्प, संकल्प के पीछे थोड़ा-सा समर्पण होगा, क्योंकि वह जो छाया की तरह

कालाहांडी का विकास साल 2016 की बरसात का मौसम था और शायद अगस्त का महीना। भारत के कम चर्चित राज्य ओडिशा के बेहद पिछले इलाके कालाहांडी की एक मार्मिक खबर पूरे देश में फैली हुई थी। एक व्यक्ति अपने कंधे पर अपनी पत्नी की लाश उठाए 12 किलोमीटर तक पैदल चला था। दरअसल उस व्यक्ति के कंधों पर सिर्फ उसकी पत्नी का शव नहीं था, ये उस पूरे समाज की शव यात्रा था, जो असंवेदनशीलता की हदें पार कर चुका है। लेकिन अब कालाहांडी में बदलाव की बहार है। कालाहांडी अनाज का कटोरा बन चुका है। सरकार के इन प्रयासों को नमन! विकास की चमकीली इबारत को सलाम! ललित, हरियाणा

उसकी स्त्री है, उसका भी अनुदान होगा। और जो व्यक्ति समर्पण के मार्ग पर चल रहा है, उसके भी भीतर छिपा हुआ पुरुष है, और छाया की तरह संकल्प भी होगा। इसका क्या– व्यक्ति के भीतर क्या ताल-मेल है? साधनाओं में कोई ताल-मेल नहीं है। इसे ऐसा समझें। जब कोई व्यक्ति समर्पण के लिए तय करता है, तब यह तय करना तो संकल्प है। अगर आप तय करते हैं कि किसी के लिए सब कुछ समर्पित कर दें, तो अभी समर्पण का यह जो निर्णय आप ले रहे हैं, यह तो संकल्प है। इतने संकल्प के बिना तो समर्पण नहीं होगा। जो व्यक्ति तय करता है कि मैं संकल्प से ही जीऊंगा, जो निर्णय करता हूं, उसको ही श्रम से पूरा करूंगा, यह संकल्प से शुरुआत हो रही है। लेकिन जो निर्णय किया है वह निर्णय कुछ भी हो सकता है। उस निर्णय के प्रति पूरा समर्पण करना पड़ेगा। जो संकल्प से शुरू करता है उसे भी समर्पण की जरूरत पड़ेगी। जो समर्पण से शुरू करता है उसे भी संकल्प की जरूरत पड़ेगी, लेकिन वे गौण होंगे, छाया की तरह होंगे। व्यक्ति तो दोनों का जोड़ है, स्त्री-पुरुष का। इसीलिए क्या महत्वपूर्ण है आपके भीतर, वह आपकी साधनापद्धति होगी। लेकिन दोनों साधना पद्धतियां अलग होंगी। दोनों के मार्ग, व्यवस्थाएं, विधियां अलग होंगी। मैं जिस साधना पद्धति का प्रयोग करता हूं, वह संकल्प से शुरू होती है। लेकिन पद्धति वह समर्पण की है।

रोमांस के कवि हिंदी मध्यम के बच्चों के लिए अंगेजी की पढ़ाई कभी सहज नहीं रही। लेकिन कुछ लेखक ऐसे थे, जिनका लिखा हम सभी ने अपनी मैट्रिक की पढ़ाई में दिल से पढ़ा था। ऐसे ही एक अंग्रेजी के कवि थे, विलियम वर्ड्सवर्थ। जिनकी कविताओं ने हर पढ़ने वाले इंसान पर बहुत प्रभाव डाला है। ‘सुलभ स्वच्छ भारत’ की अबकी बार की प्रति में उन पर लिखा आलेख दिल को छू गया, साथ ही बचपन के दिन भी याद आ गए। प्रकृति और रोमांस को लेकर उनकी कविताओं में जिस तरह की सहजता और खुद से जुड़ जाने वाला वर्णन मिलता है, वह अद्भुत है। देवव्रत, दिल्ली


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फोटो फीचर

22 - 28 अक्टूबर 2018

नायाब संग्रहालय

जकार्ता में कीट-पतंगों का एक नायाब संग्रहालय है। इस संग्रहालय का भ्रमण करने के लिए तो दुनिया भर से लोग आते ही हैं यह शोधार्थियों के लिए भी अहम ठिकाना है

फोटोः शिप्रा दास


22 - 28 अक्टूबर 2018

फोटो फीचर

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स्वास्थ्य

22 - 28 अक्टूबर 2018

बायो-इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से स्वास्थ्य क्षेत्र में क्रांति

वर्ष 2020 तक स्थायी बीमारियों की दर 57 प्रतिशत तक बढ़ने की आशंका है। ऐसे में स्वास्थ्य सेवा संबंधी चुनौतियों से निपटने के लिए चिकित्सा, जैविक तथा इंजीनियरिंग विज्ञान, मैटेरियल डिजाइन और नवाचार प्रणालियों को एकीकृत रूप से उपयोग किया जा रहा है

वै

डॉ. स्वाति सुबोध

श्विक स्तर पर लोगों की उम्र और उनको होने वाली बीमारियों के आंकड़े तेजी से बदल रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक वर्ष 2050 तक 65 साल से अधिक उम्र के लोगों की संख्या दोगुनी हो जाएगी, जो दुनिया की कुल आबादी के लगभग 17 प्रतिशत के बराबर होगी। वर्ष 2020 तक स्थायी बीमारियों की दर 57 प्रतिशत तक बढ़ने की आशंका है। ये आंकड़े भविष्य में स्वास्थ्य संबंधी विषम परिस्थितियों से निपटने के लिए गुणवत्तापूर्ण एवं प्रभावी स्वास्थ्य सेवाओं की आवश्यकता पर जोर दे रहे हैं। रोगियों की बढ़ती संख्या को देखते हुए उनकी देखभाल संबंधी सेवाएं अस्पतालों के बजाय मरीजों के घर पर केंद्रित हो रही हैं। इस तरह अस्पताल में सिर्फ गंभीर बीमारियों के लिए ही देखभाल को बढ़ावा मिलेगा। ऐसे में मरीज के शारीरिक और जैव-भौतिक मानकों की निरंतर निगरानी और संबंधित सूचनाओं को वास्तविक समय में हेल्थकेयर प्रदाताओं को भेजना जरूरी है। इन चुनौतियों से निपटने के लिए चिकित्सा, जैविक तथा इंजीनियरिंग विज्ञान, मैटेरियल डिजाइन और नवाचार प्रणालियों को एकीकृत रूप से

उपयोग किया जा रहा है। पेसमेकर और इमेजिंग सिस्टम जैसे पुराने उत्पादों की जगह सामान्य फिटनेस ट्रैकिंग और हृदय गति की निगरानी करने वाले ऐसे उत्पाद लाए जा रहे हैं, जिन्हें आसानी से उपयोग किया जा सकता है। शोधकर्ता स्वास्थ्य समस्याओं के निर्धारण और उसे रिकॉर्ड करने तथा विश्लेषण करने के लिए छोटे-छोटे बायोइलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के विकास और परीक्षण की ओर अपना ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। किसी तरह का नुकसान न पहुंचाने वाले ऐसे बायो-इलेक्ट्रॉनिक त्वचा सेंसर तैयार किए गए हैं, जिनके आशाजनक परिणाम मिल रहे हैं। ये सेंसर लार, आंसू और पसीने में उपस्थित तत्वों के आधार पर मनुष्य में तनाव के स्तर का आकलन कर सकते हैं। कोर्टिसोल, लैक्टेट, ग्लूकोज और क्लोराइड आयनों के मापन द्वारा मधुमेह और सिस्टिक फाइब्रोसिस की पहचान करने में भी ये मदद कर सकते है। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, दिल्ली के शोधकर्ताओं

ने मधुमेह के लिए लार के नमूनों में ग्लूकोज का पता लगाने वाला एक बायोसेन्सर विकसित किया है। इसके परिणाम सीधे उपयोगकर्ता के स्मार्टफोन पर देखे जा सकते हैं। भारत में इस तरह के कई अध्ययन अभी जारी हैं। फैशन के लिए पहने गए गहने की तरह दिखने वाले संवाहक जैल और पैच सेंसर भी हृदय संबंधी, मस्तिष्क और मांसपेशियों की गतिविधि को रिकॉर्ड करने के लिए विकसित किए जा रहे हैं जो परंपरागत रक्त विश्लेषण और नैदानिक परीक्षणों के पूरक हो सकते हैं। मेकेनो-एकास्टिक त्वचा सेंसर तैयार किए जा रहे हैं जो बोलने की शैली और निगलने जैसी आंतरिक ध्वनियों को मापकर पक्षाघात से गुजरे रोगियों की स्थिति में हो रहे सुधार का मात्रात्मक मापन कर सकते हैं। रोगों के उपचार के लिए ऐसे छोटे-छोटे मिनिस्कल इंप्लांट्स तैयार किए गए हैं, जिनको शरीर के अंदर प्रत्यारोपित किया जाता है और फिर वे दवा को सीधे उसी जगह पर पहुंचाते हैं,

पेसमेकर और इमेजिंग सिस्टम जैसे पुराने उत्पादों की जगह सामान्य फिटनेस ट्रैकिंग और हृदय गति की निगरानी करने वाले ऐसे उत्पाद लाए जा रहे हैं, जिन्हें आसानी से उपयोग किया जा सकता है

जहां उसकी जरूरत होती है। इन इंप्लांटों में उन अंगों तक भी पहुंचने की क्षमता है, जिनके अंदर पहुंचना मुश्किल होता है। इन उपकरणों से एक ओर दवाओं के दुष्प्रभाव और विषाक्तता को कम किया जा सकेगा, वहीं दूसरी ओर दवा का पूरा असर रोग विशेष पर पड़ सकेगा। इन उपकरणों से ऐसे रोगी, जिनकी विशेष रूप से लंबे समय तक देखभाल करने की जरूरत है या वे किसी संज्ञान संबंधी मनोरोग से पीड़ित हैं, की सेवाएं सुनिश्चित की जा सकती हैं। हाल में अनुमोदित डिजिटल गोली के उपयोग की दिशा में यह एक अच्छा कदम हो सकता है। हृदय की अनियमित धड़कनों, स्नायु विकारों और संज्ञानात्मक बाधाओं जैसी स्थितियों के इलाज के लिए कुछ प्रत्यारोपण हृदय या मस्तिष्क के ऊतकों को बिजली के झटकों द्वारा उत्तेजित भी कर सकते हैं। आंखों में कृत्रिम रेटिना और कानों में काक्लियर इंप्लांट्स जैसे अन्य प्रत्यारोपण क्षतिग्रस्त ऊतकों को ठीक करके फिर से काम करने लायक बना देते हैं। शरीर के अंदर सूक्ष्म उपकरणों से किए जाने वाले ऐसे प्रयोग, जिनको चिकित्सकीय भाषा में 'बायोसेक्यूटिकल्स' के नाम से जाना जाता है, का उपयोग पारंपरिक चिकित्सीय विकल्पों को नया रूप दे सकते हैं। भारत में, इस क्षेत्र में काफी काम शुरू हो चुका है। कुछ अध्ययनों के शुरुआती परीक्षणों के सकारात्मक परिणाम भी मिले हैं। आईआईटी, खड़गपुर के शोधकर्ताओं ने इस साल के शुरुआत में कैंसर कोशिकाओं के बायो-इंपीडिमेट्रिक विश्लेषण किए थे, जिसमें उन्होंने प्रयोगशाला में सामान्य कोशिकाओं की तुलना में कैंसर कोशिकाओं की आक्रामकता का मापन विद्युत क्षेत्र प्रतिबाधा द्वारा किया था। इस अध्ययन के निष्कर्ष साइंटिफिक रिपोर्ट्स जर्नल में प्रकाशित हुए थे। इसी साल जर्नल सेंसर्स में प्रकाशित एक और अध्ययन में आईआईटी, दिल्ली के शोधकर्ताओं ने काफी कम कीमत वाले सेंसर-आधारित कृत्रिम अंग तैयार किए हैं, जिनका उपयोग करके अपंग लोग भी सामान्य रूप से चल सकते हैं। आईआईटी, खड़गपुर एक बायोइलेक्ट्रॉनिक्स इनोवेशन लेबोरेटरी स्थापित कर रहा है, जिसका उद्देश्य ऐसे बैटरी मुक्त इंप्लांट करने योग्य सूक्ष्म इंजीनियरिंग तंत्र तैयार करना है, जिनको मस्तिष्क, तंत्रिका, मांसपेशियों या रीढ़ की हड्डी के विकारों के इलाज के लिए उपयोग किया जा सकेगा। इन युक्तियों से उन अंगों में क्षतिग्रस्त ऊत्तकों को ठीक करके फिर से काम करने लायक बनाया


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स्वास्थ्य

परफ्यूम और हेयर जेल से बन रही है धुंध भारत जैसे देश में, जहां दूरदराज के इलाकों में डॉक्टरों की कमी के कारण समय पर इलाज नहीं हो पाता, वहां ये आधुनिक उपकरण महत्वपूर्ण हो सकते हैं जाएगा। सिक्के के आकार का यह प्रस्तावित इंप्लांट वायरलेस से संचालित होगा और पुनर्वास तथा सर्जरी के दौरान मस्तिष्क गतिविधियों का पता लगाने में उपयोग होने वाले परीक्षणों, जैसेइलेक्ट्रिक सिमुलेशन, बायो-पोटेंशियल रिकॉर्डिंग और न्यूरो-केमिकल सेंसिंग का एकीकृत रूप होगा। अभी सिर्फ रोगी की जांच के समय के ही आंकड़े मिल पाते हैं। बायो-इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के उपयोग से 24 घंटे के आंकड़े एकत्रित होते रहेंगे। इससे रोगियों की स्वास्थ्य स्थिति के लिए बेहतर प्रबंधन किए जा सकेंगे। विभिन्न मरीजों के एकत्रित आंकड़ो से कृत्रिम बुद्धिमत्ता एल्गोरिदम और पूर्वानुमानित उपकरण विकसित करने में मदद मिल सकती है। इन उपकरणों से प्राप्त परिणाम चिकित्सा विशेषज्ञों द्वारा सामान्य तौर पर किए जा रहे परीक्षणों से मेल खा रहे हैं। कई बार इनके प्रदर्शन अपेक्षाकृत बेहतर देखे गए हैं। भारत जैसे देश में, जहां दूरदराज के इलाकों में डॉक्टरों की कमी के कारण समय पर इलाज नहीं हो पाता, वहां ये आधुनिक उपकरण महत्वपूर्ण हो सकते हैं। हालांकि, इन उपकरणों के उपयोग की शुरुआत के पहले आंकड़ो के मानकीकरण, उनकी सुरक्षा और गोपनीयता से संबंधित तथ्यों की परख और नियमकानून बनाया जाना जरूरी है। अगले कुछ वर्षों में, स्वास्थ्य निगरानी, तंत्रिका प्रोस्थेटिक्स और जैव रासायनिक प्रोस्थेटिक्स के जरिए इस क्षेत्र में बड़े बदलाव देखे जा सकते हैं। हालांकि, बाजार की थाह लेने के लिए निगरानी उपकरणों का परीक्षण शुरू हो चुका है। पर, प्रत्यारोपण या इंप्लांट्स को स्वास्थ्य केंद्रों तक पहुंचने में 5-10 साल का समय लग सकता है, क्योंकि इन्हें विकास और नियामक प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है।

चीन में बढ़ते वायु प्रदूषण के लिए हेयर स्प्रे, परफ्यूम और एयर रिफ्रेशर में पाए जाने वाले वाष्पशील कार्बनिक यौगिकों को जिम्मेदार बताया है

ची

न के विशेषज्ञों ने देश में बढ़ते वायु प्रदूषण के लिए हेयर स्प्रे, परफ्यूम और एयर रिफ्रेशर में पाए जाने वाले वाष्पशील कार्बनिक यौगिकों को जिम्मेदार बताया है। बीजिंग में को छायी जबरदस्त धुंध के बीच विशेषज्ञों ने यह दावा किया है। बीजिंग में वायु गुणवत्ता सूचकांक 213 तक पहुंच गया, जिसे विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने ‘अत्यंत अस्वास्थ्यकर’ की श्रेणी में वर्गीकृत किया है। बीजिंग में 2.10 करोड़ से अधिक लोग रहते हैं। यहां हर साल वायु प्रदूषण की समस्या रहती है। बीजिंग में प्रदूषण के लिए चार-स्तरीय चेतावनी प्रणाली है। इसमें उच्चतम चेतावनी लाल है, इसके बाद नारंगी, फिर पीली और अंत में नीली चेतावनी

होती है। नारंगी चेतावनी का मतलब है कि वायु गुणवत्ता सूचकांक के लगातार तीन दिनों के लिए 200 से अधिक होने का अनुमान है। हाई अलर्ट के दौरान, भारी प्रदूषक वाहनों और निर्माण कचरे वाले ट्रकों का चलना प्रतिबंधित कर दिया जाता है। कुछ निर्माण फर्मों की ओर से उत्पादन में कटौती की जाती है। बीजिंग नगर पर्यावरण संरक्षण ब्यूरो ने बताया कि जनवरी से सितंबर तक, बीजिंग में पीएम 2.5 की औसत सांद्रता में पिछले वर्ष की तुलना में 16.7 प्रतिशत की गिरावट हुई है। बीजिंग और चीन के उत्तरी हिस्से में भारी प्रदूषण और ऑटोमोबाइल के उत्सर्जन की वजह से प्रदूषण के कारणों पर कई अध्ययन किए गए हैं। (एजेंसी)

इस कारण हवा हुई खतरनाक

 विशेषज्ञों ने खराब वायु गुणवत्ता के लिए वाष्पशील कार्बनिक यौगिकों (वीओसी) को जिम्मेदार बताया

 वीओसी कार्बन आधारित रसायनों का एक समूह है, जो कमरे के तापमान पर आसानी से वाष्पित हो जाता है  पेंट और सफाई उत्पादों जैसे कई आम घरेलू सामग्रियों और उत्पादों से भी वीओसी निकलता है

 वीओसी यौगिकों में पीएम 2.5 का स्तर 12 प्रतिशत के करीब होता है

ऐसे आई कमी

 हाल के वर्षों में सरकार द्वारा शुरू किए गए उपायों के बाद से प्रदूषण में कुछ हद तक गिरावट आई है  2015 से किए गए इन उपायों में कोयले का सीमित इस्तेमाल और प्रदूषण उद्योगों को क्षेत्र से बाहर स्थानांतरित करना शामिल है  चीन वर्षों से धुंध के खिलाफ कठिन संघर्ष रहा है। इसने कुछ चीनी क्षेत्रों में जीवन प्रत्याशा में कटौती की है  सरकार ने अपने नागरिकों से जबरदस्त प्रदूषण के दिनों में खुद को बचाने के लिए मास्क और एयर प्यूरीफायर खरीदने को कहा है


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स्वच्छता

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गांबिया

एक ऐसा देश जो लंबे समय तक राजनीतिक तौर पर अस्थिर रहा हो, वहां विकास, स्वास्थ्य और स्वच्छता जैसे मुद्दों पर बहुत संतोषजनक स्थिति की कल्पना नहीं की जा सकती है। पर ताज्जुब है कि इन विपरीत स्थितियों के गांबिया की स्थिति अपेक्षित रूप से अच्छी है

राजनीतिक अस्थिरता से स्वच्छता अप्रभावित

गां

एसएसबी ब्यूरो

बिया अफ्रीका के सबसे छोटे ऐसे देशों में से एक है, जहां पश्चिम अफ्रीकी देशों की तुलना में आजादी के बाद से राजनीतिक स्थिरता काफी देर तक रही है। वर्ष 1994 के एक खूनी तख्तापलट के बाद यायहा जमेह ने राष्ट्रपति के तौर पर देश की सत्ता अपने हाथों में ली। बीते 22 वर्षों से चल रहा उनका शासलकाल साल 2016 में खत्म हो गया। वैसे राजनीतिक तौर पर स्थिरता को लेकर गांबिया आज भी पूरी तरह निश्चिंत नहीं है। गौरतलब है कि 2016 में चौंका देने वाले चुनाव परिणाम सामने आए और विरोधी दल के एडम बैरो नए राष्ट्रपति चुन लिए गए। हालांकि यायहा जमेह ने चुनावों में अनिमितताओं का आरोप लगाते हुए सत्ता नवनिर्वाचित राष्ट्रपति के हाथों में देने से इनकार कर दिया।

स्वच्छता की स्थिति

एक ऐसा देश जो लंबे समय तक राजनीतिक तौर पर अस्थिर रहा हो, वहां विकास, स्वास्थ्य और स्वच्छता जैसे मुद्दों पर बहुत संतोषजनक स्थिति

की कल्पना नहीं की जा सकती है। पर ताज्जुब ही है कि इन विपरीत स्थितियों के गांबिया की स्थिति अपेक्षित रूप से काफी अच्छी है। बात करें स्वच्छता की तो 61 फीसद से ज्यादा शहरी आबादी उन्नत और सुरक्षित स्वच्छता सेवाओं का इस्तेमाल कर रही है। एक ऐसा देश जहां रोजगार और गरीबी एक बड़ी समस्या है, यह आंकड़ा उम्मीद से कहीं ज्यादा है। गांबिया के ग्रामीण क्षेत्रों में भी 50 फीसदी से ज्यादा आबादी तक उन्नत और सुरक्षित स्वच्छता सेवाओं की पहुंच सुनिश्चित हो चुकी है।

शुद्ध पेयजल आपूर्ति

गांबिया में प्रमुख जल स्रोत के रूप में एक नदी भर है, जिसके प्रवाह पथ के साथ गांबिया का क्षेत्रफल और भूगोल तय होता है। बावजूद इसके वहां जल प्रबंधन की स्थिति काफी संतोषजनक है। वहां के शहरों में 94 फीसदी से ज्यादा आबादी तक स्वच्छ जल पहुंच रहा है, ग्रामीण क्षेत्रों में भी यह आंकड़ा 84 फीसदी से ज्यादा है। साफ है कि स्वच्छता और पेयजल में से स्वच्छता क्षेत्र में अभी भी गांबिया को काफी प्रगति करनी है, पर इस देश के नागरिक संस्कार और परंपराओं को देखकर लगता है कि

खास बातें

61 फीसद शहरी आबादी तक उन्नत स्वच्छता सेवाओं की पहंुच शहरों में 94 फीसदी से ज्यादा आबादी तक स्वच्छ जल पहुंच रहा है कृषि क्षेत्र देश की अर्थव्यवस्था में 30 फीसदी का योगदान करता है वह इस चुनौती पर खरा उतरने में सक्षम है।

क्षेत्र और भूगोल

एक तरफ से अटलांटिक सागर और तीन तरफ़ से सेनेगल से घिरे गांबिया में लंबी राजनीतिक अस्थिरता के कारण कुछ खास विकास नहीं हुआ। गांबिया नदी देश के बीचोंबीच से हो कर गुजरती है,


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गांबिया में प्रमुख जल स्रोत के रूप में एक नदी भर है, जिसके प्रवाह पथ के साथ गांबिया का क्षेत्रफल और भूगोल तय होता है। बावजूद इसके वहां जल प्रबंधन की स्थिति काफी संतोषजनक है लेकिन इसके बावजूद देश की केवल 16 फीसदी जमीन खेती के लिए उपलब्ध है। दरअसल गांबिया एक पतली सी पट्टी वाला देश है, जो गांबिया नदी की धारा की दिशा में बढ़ता गया है। इसकी चौड़ाई अधिकतम 50 किलोमीटर है। जाहिर है कि वहां पानी की बड़ी समस्या है। जो पानी उपलब्ध भी है, उसके वितरण और प्रबंधन को लेकर स्थिति अच्छी नहीं है। गांबिया में जमीन की उर्वरा शक्ति भी काफी क्षीण है, इश कारण वहां ज्यादातर एक ही चीज़ की खेती होती है, वो है मूंगफली।

अर्थव्यवस्था

गांबिया एक उदारवादी, बाजार-आधारित अर्थव्यवस्था है, जिसमें देश के कृषि क्षेत्र का बहुत योगदान है। कृषि क्षेत्र देश की अर्थव्यवस्था में 30 फीसदी का योगदान करता है। देश की जीडीपी

में मूंगफली उत्पादन का 6.9, अन्य फसलों का 8.3, मवेशियों का 5.3, मत्स्य-ग्रहण का 1.8 और वानिकी का 0.5 फीसदी योगदान है। उद्योगों का अर्थव्यवस्था में फीसदी योगदान है।लगभग एक तिहाई जनसंख्या यहां अंतरराष्ट्रीय गरीबी रेखा की सीमा 1.25 डॉलर प्रतिदिन से नीचे है। साफ है कि विकास के साथ गरीबी गांबिया के लिए बड़ी चुनौती है। यहां राजस्व का एक बड़ा हिस्सा विदेशी मुद्रा से आता है, क्योंकि देश से बाहर रहने वाले गांबिया के नागरिक पैसे भेजते हैं। अटलांटिक सागर से सटे इलाके में कई रिज़ार्ट हैं जहां काफी पर्यटक आते हैं।

घाना से जुड़ा इतिहास

वर्तमान गांबिया कभी घाना साम्राज्य और सोंघाई साम्राज्य का भाग था। इस क्षेत्र के प्रथम लिखित

पेयजल और स्वच्छता स्वच्छ या शोधित शहरी : 94.2% आबादी ग्रामीण : 84.4% आबादी

(2015 तक अनुमानित)

(2015 तक अनुमानित)

पेयजल स्रोत

अस्वच्छ या अशोधित

शहरी : 5.8% आबादी ग्रामीण : 15.6% आबादी कुल : 9.8% आबादी

अस्वच्छ या पारंपरिक

शहरी : 38.5% आबादी ग्रामीण : 45% आबादी कुल : 41.1% आबादी

स्वच्छता सुविधाएं

कुल : 90.2% आबादी

ग्रामीण : 55% आबादी कुल : 58.9% आबादी

गांबियाः कुछ तथ्य

दस्तावेज नौवीं और दसवीं शताब्दियों में अरब व्यापारियों द्वारा लिखे गए थे। अरब व्यापारियों ने इस क्षेत्र में दासों, सोने और हाथी-दांत के व्यापार के लिए ट्रांस-सहारा व्यापार मार्ग की स्थापना की थी। 15वीं सदी में पुर्तगालियों ने समुद्री व्यापार मार्गों की स्थापना की। उस समय गांबिया, माली साम्राज्य का भाग था।

जलवायु

गांबिया की सामान्य जलवायु उष्ण कटिबंधीय है। जून से नवंबर तक के दौरान देश में ग्रीष्म ऋतु होती है और यह वर्षा-काल भी होता है। नवंबर से मई तक, तापमान अपेक्षाकृत कम होता है जलवायु शुष्क होती है। गांबिया का मौसम पड़ोस के सेनेगल, दक्षिणी माली और उत्तरी बेनिन के समान ही है।

इस्लामी गणराज्य

स्वच्छ व उन्नत शहरी : 61.5% आबादी

स्रोत : सीआईए वर्ल्ड फैक्टबुक (जनवरी, 2018)

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स्वच्छता

गांबिया आधिकारिक रूप से इस्लामी गणराज्य है। इसकी उत्तरी, पूर्वी और दक्षिणी सीमा सेनेगल से मिलती है, पश्चिम में समुद्र से लगा छोटा सा तटीय क्षेत्र है। देश का नाम गांबिया नदी पर से पड़ा है, जिसके प्रवाह के रास्ते इसकी सीमा लगी हुई है। 18 फरवरी, 1965 को गांबिया ब्रिटेन से स्वतंत्र हुआ और राष्ट्रमंडल में सम्मिलित हो गया। बांजुल गांबिया की राजधानी है, लेकिन सबसे बड़ा महानगर सेरीकुंदा है। गांबिया अन्य पश्चिम अफ़्रीकी देशों के साथ ऐतिहासिक दास व्यापार का एक भाग था, जो गांबिया नदी पर उपनिवेश स्थापित करने का एक प्रमुख कारण था, प्रथम पुर्तगालियों द्वारा और बाद में अंग्रेजों के द्वारा।

जनसंख्या : 18 लाख क्षेत्रफल : 11,295 वर्ग किलोमीटर भाषाएं : आधिकारिक भाषा अंग्रेजी। इसके अलावा मानदिंका, वोलोफॉ और फूला भी प्रचलन में मुद्रा : दालासी

जनसांख्यिकी

गांबिया में कई मूल के लोग रहते हैं और उनके बीच आपसी मतभेद बहुत कम हैं। हर मूल और समुदाय के लोग अपनी भाषा और परंपराओं को सहेजे हुए हैं। इनमें सबसे विशाल समूह मांदिका जनजाति है। इसके बाद क्रमशः फूला, वोलोफ, जोला और सेराहूले जनजातियां हैं। देश में जनसंख्या का 0.23 फीसदी गैअफ्रीकी हैं। इनमें यूरोपीय और लेबनानी मूल के लोग मुख्य रूप से हैं। देश की 90 प्रतिशत जनसंख्या इस्लाम धर्म की अनुयायी हैं और शेष में से अधिकांश ईसाई धर्मावलंबी हैं। गांबिया की लगभग 63 फीसदी जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों मे निवास करती है, लेकिन अधिक से अधिक युवा नौकरी और शिक्षा की खोज में राजधानी और अन्य बड़े नगरों की ओर पलायन कर रहे हैं। वर्ष २००३ के आंकड़ों से यह भी पता लगता है की ग्रामीण और नगरीय क्षेत्रों की जनसंख्या का अंतर पट रहा है क्योंकि अधिक से अधिक क्षेत्रों को नगरीय क्षेत्र घोषित किए जा रहे हैं। नगरों की ओर होते पलायन, विकास परियोजनाओं और आधुनिकीकरण के चलते अधिक से अधिक गांबियाई पश्विमी संस्कृति के संपर्क में आ रहे हैं, लेकिन पारंपरिक रूप से विस्तरित परिवार पर बल और देशावरी पोशाक और उत्सव, वहां अभी भी दैनिक जीवन का अभिन्न अंग हैं।


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व्यक्तित्व

नए सभ्यता विमर्श की लेखनी नोबेल विजेता नायपॉल के लिए सबसे बड़ा सम्मान वह नया पाठक समाज है, जिसने नए कलेवर के साहित्य को अपनी स्टडी टेबल पर जगह देना जरूरी समझा। इस पाठक समाज के लिए नायपॉल हमेशा अपनी कृतियों में जीवित रहेंगे, संवादरत रहेंगे खास बातें 17 अगस्त, 1932 को कैरेबियाई देश त्रिनिडाड में जन्म हुआ 2001 में उन्हें साहित्य के क्षेत्र का नोबेल पुरस्कार मिला नायपॉल का सबसे चर्चित उपन्यास ‘ए हाउस फॉर मिस्टर बिस्वास’ है

22 - 28 अक्टूबर 2018

वीएस नायपॉल

भा

प्रेम प्रकाश

भारतीय मूल के नायपॉल को 1971 में 39 की उम्र में बुकर प्राइज मिला था और साल 2001 में उन्हें साहित्य के क्षेत्र का नोबेल पुरस्कार मिला। नायपॉल भारतवंशी जरूर थे पर भारत को लेकर उनके जिस तरह के विचार रहे, उसे लेकर भारतीय प्रबुद्ध वर्ग हमेशा चकित-भ्रमित रहा

रत देश और भारतीय समाज को लेकर आज अंतरराष्ट्रीय धारणा क्या है? यह सवाल अगर आपकी भी जिज्ञासा में शामिल है तो आपको कई अनेपिक्षत जवाबों के लिए तैयार रहना होगा। भारत को लेकर एक ऐसा ही अनेपिक्षत विमर्श को लेकर सामने आए विद्याधर सूरज प्रसाद नायपॉल यानी वीएस नायपॉल। बार-बार अपने लेखों, वक्तव्यों और पुस्तकों के कारण चर्चा में रहने वाले नायपॉल हाल में अपने निधन की दुखद वजह से चर्चा में रहे। कई साल बाद ऐसा हुआ जब पूरी दुनिया में साहित्य से लेकर मीडिय जगत ने एक साहित्यकार के निधन को न सिर्फ प्रमुखता से लिया, बल्कि इस बहाने उनके कृतित्व और विचारों का सिंहावलोकन भी किया। भारतीय मूल के नायपॉल को 1971 में 39 की उम्र में बुकर प्राइज मिला था और साल 2001 में उन्हें साहित्य के क्षेत्र का नोबेल पुरस्कार मिला। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी नायपॉल के निधन पर शोक प्रकट किया।

साल 1951 में प्रकाशित हुई थी। नायपॉल का सबसे चर्चित उपन्यास ‘ए हाउस फॉर मिस्टर बिस्वास’ है। इसे लिखने में उन्हें 3 साल से भी ज्यादा वक्त लगा था। नायपॉल एक क्रांतिकारी लेखक थे। खुलकर लिखने और बोलने के कारण वे आजीवन चर्चा में रहे। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की पैरोकारी वे हमेशा करते रहे। 1992 में उन्होंने यह कहकर लोगों को चौंका दिया था कि स्पेन ने अपने राष्ट्रीय स्मारकों का पुनर्निर्माण कराया है, वैसा ही भारत में भी होना चाहिए। यह उनकी विचारधारा का किसी खास पक्ष में झुकाव के बजाय उनकी यह सांस्कृतिक-समझ थी। अपनी इस समझ को लेकर उन्होंने इतिहास और वर्तमान दोनों को ही नितांत नए और मौलिक तरीके से देखा-समझा।

त्रिनिडाड में जन्म

भारत को लेकर विचार

वीएस नायपॉल का पूरा नाम विद्याधर सूरजप्रसाद नायपॉल है। उनका जन्म 17 अगस्त, 1932 को कैरेबियाई देश त्रिनिडाड के चगवानस में हुआ था। उन्होंने अपनी पढ़ाई-लिखाई वहीं रहकर की थी। बाद में उन्होंने प्रतिष्ठित ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से पढ़ाई की।

पहली किताब

नायपॉल की पहली किताब ‘द मिस्टिक मैसर’

इससे पहले नायपॉल ने भारत की स्वतंत्रता के बाद 1950 में लिखा कि भारत में अंधेरा है। फिर दुबारा 1975 में भारत आकर लिखा-पिछड़ा, दलित, महिला सब लोग अपनी आवाज उठा रहे हैं। बाद के सालों में वे देश की भाषागत और रचनात्मक स्थितियों को लेकर कई बार असंतोष जता चुके थे। दरअसल, वे भारत को काल निरपेक्षता के साथ नहीं देख पाते थे। उन्हें बार-बार भारतीय इतिहास में दर्ज वह अस्थिर अतीत सालता रहा, जिसके कारण यहां

के लोगों ने मानसिक और सांस्कृतिक स्तर पर बहुत कुछ झेला है। हालांकि आखिरी दम तक उन्होंने भारत को लेकर अपनी धारणा और विशेषज्ञता को अधूरा माना। खुद उनके ही शब्दों में, ‘मुझे ऐसा नहीं लगता, मैंने भारत के बारे में काफी लिखा है। मैंने भारत के बारे में सिर्फ चार किताबें, दो उपन्यास और बहुत से निबंध भर लिखे हैं।’

भारतीय प्रबुद्ध वर्ग

यह भी कम दिलचस्प नहीं कि नायपॉल भारतवंशी जरूर थे पर भारत को लेकर उनके जिस तरह के विचार रहे, उसे लेकर भारतीय प्रबुद्ध वर्ग हमेशा चकित-भ्रमित रहा। उन्होंने कई बार भारत को गुलामों का देश कहा। एक ऐसे दौर में जब देश के अंदर प्रखर राष्ट्रवाद की लहर चल रही है, समाज और साहित्य को एक रंग-एक चश्मे के साथ देखने की दरकारें हिलोरें मार रही हैं, तो नायपॉल को सुनने, उनके साथ आलोचकीय संवाद में उतरने जोखिम भला कौन उठाए। आज जब नायपॉल नहीं हैं तो यहां-वहां अखबारों में और एक-दो टीवी चैनलों के डिबेट में नायपॉल की भारत को लेकर सोच पर कुछ कहा-सुनी हुई, अन्यथा उनकी छवि ज्यादातर लोगों के लिए एक भारत विरोधी की ही रही है। अगर कोई चाहे तो उनमें और सलमान रश्दी में समानता का एक समान धरातल भी ढूंढ़ सकता है।


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जब नायपॉल और कर्नाड आए आमने-सामने

नायपॉलनामा पूरा नाम : विद्याधर सूरज प्रसाद नायपॉल

जन्म और परिवार - दादा-दादी मजदूरी करने के लिए भारत से त्रिनिडाड चले गए थे, जहां 17 अगस्त 1932 को उनका जन्म हुआ - उनका पारिवारिक नाम नेपाल देश से लिया गया है जो पहले नेपाल और फिर नायपॉल बन गया है - नायपॉल के परिवार में उनके पिता, भाई और भतीजे भी लेखन के कार्य से जुड़े हुए हैं - ऑक्सफोर्ड में बी.लिट की परीक्षा में वे फेल हो गए थे। ख्याति - 1971 में बुकर प्राइज, 2001 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार। इसके अलावा जॉन लिलवेलीन रीज पुरस्कार, दी सोमरसेट मोगम अवॉर्ड, दी होवथोरडन पुरस्कार, द डब्लू.एच. स्मिथ साहित्यिक सम्मान, द डेविड कोहेन पुरस्कार आदि - 2009 में ‘द टाइम्स’ पत्रिका ने उन्हें 50 महान ब्रिटिश साहित्यकारों की सूची मे सातवां स्थान दिया था। प्रमुख कृतियां नायपॉल की कुछ उल्लेाखनीय कृतियों में इन ए फ्री स्टे​ेट (1971) ए वे इन द वर्ल्डी (1994), हाफ ए लाइफ (2001) और मैजिक सीड्स (2004) शामिल हैं।

‘ए हाउस फॉर मिस्टर बिस्वास’

भारत को लेकर नायपॉल की सोच को किसी आलोचकीय कसौटी पर ले जाने से पहले जरूरी है कि हम इस महान लेखक की रचनात्मक दुनिया को जानें-समझें। दिलचस्प है कि अपने उपन्यासों और लंबे यात्रा वृतांतों के कारण जाने गए नायपॉल पहली बार विश्व साहित्य में चर्चा में भी आए तो वह भारत के कारण ही। 1961 में उनका चौथा उपन्यास आया था- ‘ए हाउस फॉर मिस्टर बिस्वास’। यह औपन्यासिक वृतांत था तो त्रिनिदाद का। पर कहानी का एक आंतरिक सिरा भारत से भी गहरे तौर पर जुड़ा था। गौरतलब है कि नायपॉल के पूर्वज गोरखपुर से त्रिनिदाद पहुंचे थे। ये लोग गिरमिटिया मजदूरी करने त्रिनिदाद ले जाए गए थे। वहां उनसे गन्ने के खेतों में काम लिया जाता था। ‘ए हाउस फॉर मिस्टर बिस्वास’ उपन्यास का मुख्य चरित्र नायपॉल के पिता की जिंदगी से काफी प्रभावित है। नायपॉल के पिता भी रचनात्मक लेखन में आगे बढ़ना चाहते थे। पर प्रवासी जिंदगी की त्रासदी ने उन्हें मन की करने के बजाए बेमन का सहने के लिए विवश किया। इस औपन्यासिक वृतांत में किशोर नायपॉल के भीतर चल रहे द्वंद्व की भी परछाई है। दरअसल, आज अगर नायपॉल पूरी दुनिया में पढ़े जाते हैं, तो अपनी इन्हीं रचनात्मक संवेदनाओं के कारण जिसमें एक तरफ युद्ध और औपनिवेशिक अन्याय का बड़ा वितान है, तो वहीं दूसरी तरफ दासता के दौर में जी रहे उन लोगों की पीड़ा है, जिन्हें बेबसी में अपना घर-बार छोड़कर सात समंदर पार गिरमिटिया मजदूर के तौर पर जहाजों से जबरन ढोकर ले जाया गया।

हरीश त्रिवेदी की राय

वरिष्ठ अंग्रेजी आलोचक हरीश त्रिवेदी ने नायपॉल को ‘भारत से निर्मम ममता रखने वाला लेखक’

बताया है। उनकी इस निर्मम ममता को समझने के लिए यह जान लेना जरूरी है कि नायपॉल जब भी भारत की बात करते थे तो वे इसे बस एक भौगौलिक और राजनीतिक इकाई नहीं मानते थे। उनकी नजर में भारत एक बहु-विकसित से ज्यादा बहु-विस्तारित सभ्यता है, एक सघन संस्कृति है, जिसने अपने सर्वाइवल के लिए कई तरह की यातनाएं झेली है। जो गिरमिटया इन यातनाओं के कारण विदेश पहुंचे, आज उनके उद्यम और उपलब्धि पर हम भले लाख नाज करें, पर यह नाज कई सवालों को जन्म देता है। पहला और सबसे सवाल तो यह कि भारत की सभ्यतागत बहुलता में यह उदारता लगातार कैसे कम होती चली गई कि वह अपनों के लिए ही दामन समेटने लगी। इतिहास में इसके एक नहीं, कई उदाहरण हैं। दूसरा सवाल यह कि कम से कम दौ सौ साल की औपनिवेशिक और शाही दासता काटने वाले देश का चिंतन और मानस आज भी किन-किन स्तरों पर स्वाधीन नहीं है। यह एक ऐसी कचोट है, जो नायपॉल को ताउम्र सालती रही और इसी ने उन्हें भारत से निर्मम ममता रखने वाला लेखक बनाया।

सभ्यता विमर्श की नई दृष्टि

भारतीय समाज और यहां विकसित हुई आधुनिक संस्कृति का सामना करने को नायपॉल के न रहने पर भी भारत में कम ही लोग तैयार होंगे। पर यही नायपॉल की खूबी है कि वह दुनिया में एक नए तरह के सभ्यता विमर्श आगे बढ़ाते हैं। इस विमर्श के केंद्र में भारत है तो साथ ही यूरोप और लातिन अफ्रीकी देश भी हैं। इस विमर्श ने पूरी दुनिया में उत्तर आधुनिक सभ्यता चिंतन को कई स्तरों पर झकझोरा है। विकास और उपलब्धि के जिन पैमानों पर आज हम विभिन्न देशों के सामाजिक-राजनीतिक नेतृत्व को

व्यक्तित्व

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छह साल पहले मुंबई में आयोजित जिस समारोह में नायपॉल को सम्मानित किया जाना था, उसमें गिरिश कर्नाड ने उनकी कड़ी आलोचना की थी। बाद में इस विवाद में उन लोगों का पक्ष हावी रहा जो नायपॉल की रचनात्मक श्रेष्ठता को असंदिग्ध मानते हैं

ह बात आज से करीब छह साल पुरानी है। आधुनिक अंग्रेजी साहित्य के भारतीय मूल के लेखक वीएस नायपॉल तब अपनी किसी नई किताब या उपन्यास की वजह से नहीं बल्कि साहित्यिक बिरादरी में उनके खिलाफ उठे विरोध के स्वरों की वजह से चर्चा में थे। इसमें अहम बात यह थी कि मशहूर नाट्यकर्मी और साहित्यकार गिरीश कर्नाड ने वीएस नायपॉल की कड़ी आलोचना की थी। कर्नाड ने नायपॉल की आलोचना करते हुए कहा था कि उन्हें भारतीय इतिहास में मुसलमानों के योगदान के बारे में कोई जानकारी नहीं है। कर्नाड ने नायपॉल को ‘संगीत की कद्र न करने वाला’ और सम-सामयिक विषयों पर एक ‘गैर भरोसेमंद लेखक’ करार दिया था। दिलचस्प है कि कर्नाड ने ये मुंबई के उस साहित्य उत्सव के दौरान कहीं, जिसमें नायपॉल को साहित्य में उनके योगदान के लिए सम्मानित किया गया था। हालांकि कर्नाड ने जब ये टिप्पणियां कीं, तब नायपॉल वहां मौजूद नहीं थे। कर्नाड ने मुंबई के इस साहित्य उत्सव में नायपॉल को सम्मानित किए जाने के फैसले पर ही सवाल उठाए थे। आंकते हैं, नायपॉल उस पूरे स्केल को ही खतरनाक मानते हैं। स्केल का यह खतरा आज भारत में कितना है, इसे बताने की जरूरत नहीं।

पचास वर्ष तक लेखन

‘ए फ्लैग ऑन द आइलैंड’ (1967), ‘इन ए फ्री स्टेनट’ (1971), ‘ए वे इन द वर्ल्ड’ (1994), ‘हॉफ ए लाइफ’ (2001) और ‘मैजिक सीड्स’

हालांकि तब नायपॉल के उपन्यास ‘ए हाउस फॉर मिस्टर बिस्वास’ का हिंदी में अनुवाद करने वाले भारतीय साहित्यकार नीलाभ ने इस पूरे विवाद को गैर जरूरी बताया था। उनका तब का वक्तव्य है- ‘मैं वी एस नायपॉल की लेखनी का कायल हूं। मैंने उनके उपन्यास ‘ए हाउस फॉर मिस्टर बिस्वास’ का अनुवाद किया है और मैं उसे भारतीय मूल के लोगों पर लिखा गया पहला बड़ा उपन्यास मानता हूं।’ अश्क ने अपनी बातों में यह भी जोड़ा गिरीश कर्नाड किसी के बारे में कुछ भी कह सकते हैं लेकिन किसी को चुप कराने का हक उन्हें नहीं है। उनके अनुसार न तो वे वीएस नायपॉल के वकील हैं, न ही सलमान रश्दी के लेकिन वे एक लेखक की स्वाधीनता के समर्थक हैं। इसीलिए वे इस पूरे मुद्दे के इस तरह उछाले जाने का ही विरोध करते हैं। गिरीश कर्नाड के विरोध पर नायपॉल ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा था कि उन्होंने भारत पर पर्याप्त लिख लिया, अब और नहीं लिखेंगे। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि भारत को लेकर निश्चित रूप से उनकी एक गहरी समझ है पर वे भारत विशेषज्ञ नहीं। भारत एक बड़ा देश ही नहीं एक बड़े विमर्श का भी नाम है। (2004) जैसी कृतियों के लेखक वीएस नायपॉल ने नोबेल से लेकर बुकर तक कई सम्मान अपने पचास साल से लंबे लेखन में पाए। पर उनका सबसे बड़ा सम्मान वह नया पाठक समाज है, जिसने नए कलेवर के साहित्य को अपनी स्टडी टेबल पर जगह देना जरूरी समझा। इस पाठक समाज के लिए नायपॉल हमेशा अपनी कृतियों में जीवित रहेंगे, संवादरत रहेंगे।


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पुस्तक अंश

22 - 28 अक्टूबर 2018

मंगोलिया

17 मई, 2015: मंगोलिया के स्टेट पैलेस में औपचारिक स्वागत के दौरान गार्ड ऑफ ऑनर का निरीक्षण करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी

पीएम मोदी ने कहा कि यह उनके लिए विशेष सौभाग्य की बात है कि वह ऐसे समय पर यहां आए हैं, जब दो महत्वपूर्ण मील के पत्थर हमें एक बना रहे हैं – पहला यह कि मंगोलिया में लोकतंत्र के 25 वर्ष पूरे हो रहे हैं और दूसरा, दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंधों के 60 वर्ष पूरे हो रहे हैं। 17 मई को मंगोलियाई संसद, जिसे आधिकारिक तौर पर ‘स्टेट ग्रेट खुरल’ के नाम से जाना जाता है, को संबोधित करते हुए मोदी ने दोनों देशों के बीच विकास साझेदारी, आर्थिक संबंध, रक्षा सहयोग और राजनयिक

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आज भारतीय और मंगोलियाई दुनिया को बता रहे हैं कि दिलों और दिमाग के बंधन, दूरियों की बाधाओं को दूर करने की ताकत रखते हैं। यह बंधन मंगोलिया के भिक्षुओं के माध्यम से फलता-फूलता है जो हर साल आध्यात्मिक शिक्षा के लिए भारत आते हैं, और सैकड़ों अन्य लोग जो शिक्षा और प्रशिक्षण के लिए वहां जाते हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी संबंधों पर जोर दिया। मंगोलिया की यात्रा राष्ट्रपति सखियागिन एल्बेगदोर्ज की मुलाकात के साथ संपन्न हो गई।

17 मई, 2015: मंगोलिया की राजधानी उलान बतोर में ‘मिनी नादाम महोत्सव’ में पारंपरिक मंगोलियाई संगीत वाद्य यंत्र ‘योचिन’ बजाते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी

से 17 मई, 2015 के बीच मंगोलिया की दो दिवसीय यात्रा किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री की पहली यात्रा थी। इस यात्रा में बातचीत के बाद 14 द्विपक्षीय समझौते किए गए, जिनमें मंगोलिया की आर्थिक क्षमता और बुनियादी ढांचे का विस्तार करने के लिए एक अरब अमरीकी

डालर की क्रेडिट लाइन देने का समझौता भी शामिल था। मंगोलिया जाने पर अपनी खुशी व्यक्त करते हुए मोदी ने कहा कि यह एक ऐसा देश है जो भारत की "एक्ट ईस्ट" नीति का अभिन्न अंग है। उन्होंने कहा कि मंगोलिया और भारत की नियति एशिया प्रशांत के भविष्य के साथ काफी निकटता से जुड़ी हुई है।

7 मई, 2015: मंगोलिया के राष्ट्रुपति सखियागिन एल्बेगदोर्ज से मिलते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी


22 - 28 अक्टूबर 2018

दक्षिण कोरिया

पुस्तक अंश

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18 मई, 2015: दक्षिण कोरिया की राजधानी सियोल में संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव बान की मून से मुलाकात करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दक्षिण कोरिया में भारतीय समुदाय के लिए संबोधन

भारत को अब वैश्विक क्षितिज पर एक उभरते हुए सितारे के रूप में देखा जा रहा है। (7 जुलाई 2015)

18 मई, 2015: दक्षिण कोरिया की राजधानी सियोल में छठवें ‘एशियन लीडरशिप फोरम’ को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी

क्षिण कोरिया में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्रपति पार्क गुन-हे के साथ प्रतिनिधिमंडल स्तरीय वार्ता की। दोनों देशों ने द्विपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिसमें दो करों से बचने और दोनों देशों की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषदों के बीच परामर्श सहयोग शामिल थे। भारत और दक्षिण कोरिया ने दोनों देशों के

18 मई, 2015: सियोल में राष्ट्रीय कब्रिस्तान में एक पुष्पांजलि समारोह में भाग ले रहे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी

बीच अधिक उड़ानों, फिल्मों का सह-निर्माण, एनीमेशन और प्रसारण कार्यक्रम, विद्युत ऊर्जा विकास और नए ऊर्जा उद्योग, युवा मामलों, सड़क परिवहन और राजमार्गों, समुद्री परिवहन और रसद के क्षेत्र में सहयोग और भारत में आधारभूत और विकास परियोजनाओं के लिए 10 अरब डॉलर के सहयोग पर भी समझौते किए। प्रधानमंत्री मोदी ने ‘एशियाई नेतृत्व मंच (एशियन लीडरशिप फोरम)’ को भी संबोधित किया। यहां वह शीर्ष दक्षिण कोरियाई सीईओ’ज से मुलाकात की और उनसे भारत में बड़े निवेश करने और मेक इन इंडिया पहल में भाग लेने का आग्रह किया। उन्होंने ‘दक्षिण कोरिया गणराज्य में भारत के मित्र’ नामक कार्यक्रम में भाषण दिया और सभी से 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस कार्यक्रम में भाग लेने का आग्रह किया।

पहले भारत की ‘पूर्व की ओर देखो (लुक ईस्ट पालिसी)’ नीति थी। लेकिन मेरी सरकार ने ‘एक्ट ईस्ट’ नीति अपनाई है, जिसको बहुत महत्व दिया जा रहा है। भारत को अब वैश्विक क्षितिज पर एक उभरते हुए सितारे के रूप में देखा जा रहा है। साथ ही यह अहसास भी हुआ है

18 मई, 2015: दक्षिण कोरिया की राजधानी सियोल में राष्ट्रपति पार्क गुन-हे और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी

हम द्विपक्षीय संबंधों को एक विशेष रणनीतिक साझेदारी में बदलने के लिए सहमत हुए हैं...

कि ब्रिक्स (BRICS) "आई (I)" के बिना पूरा नहीं होगा। विश्व बैंक, आईएमएफ, मूडी इत्यादि जैसे सभी वैश्विक रेटिंग संस्थानों ने अलग-अलग मंचों और विभिन्न संदर्भों में स्वीकार किया है कि पूरी दुनिया में भारत सबसे तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था है।

हमने एक ऐसे रिश्ते की नींव रखी है, जो साझा मूल्य वाले दो प्रमुख एशियाई देशों में होनी चाहिए।... हम रक्षा प्रौद्योगिकी और भारत में रक्षा उपकरणों के निर्माण में हमारे सहयोग को और गहरा बनाने का इरादा रखते हैं। यह क्षेत्र भारत में बड़े अवसर प्रदान करता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी (अगले अंक में जारी)


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समारोह

22 - 28 अक्टूबर 2018

‘प्रेरक व्यक्तित्व हैं डॉ. गोयनका’

नई दिल्ली के दीनदयाल उपाध्याय मार्ग स्थित प्रवासी भवन सभागार में आर्यावर्त साहित्य-संस्कृति-संस्थान नई दिल्ली की ओर से प्रसिद्ध साहित्कार डॉ. कमल किशोर गोयनका का 80वां जन्मदिवस उत्सव-पूर्वक मनाया गया

डॉ. अशोक कुमार ज्योति

ब्धप्रप्तिष्ठ साहित्यकार, प्रेमचंदविशेषज्ञ, दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व हिंदी-प्राध्यापक और लगभग 60 पुस्तकों के लेखक-संपादक डॉ. कमलकिशोर गोयनका का 80वां जन्मदिन-समारोह 12 अक्टूबर, 2018 को नई दिल्ली के दीनदयाल उपाध्याय मार्गस्थित प्रवासी-भवन-सभागार में आर्यावर्त साहित्यसंस्कृति-संस्थान, नई दिल्ली की ओर से उत्सवपूर्वक मनाया गया। दिल्ली, एनसीआर तथा हरियाणा के अन्य स्थलों से पधारे साहित्यकारों, साहित्यिक संस्थाओं के प्रतिनिधियों और अनेक संस्थानों की छात्र-छात्राओं ने डॉ. गोयनका के स्वस्थ एवं दीर्घायु जीवन की शुभकामनाएं दीं। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए प्रसिद्ध नाटककार दयाप्रकाश सिन्हा ने डॉ. गोयनका से अपने ३० वर्ष पुराने संबंधों की अनेक बातों को याद करते हुए कहा कि ये निरंतर कार्य करने वाले लेखक हैं। ये स्वयं तो लिखते ही हैं, दूसरों को भी लेखन के लिए प्रेरित करते रहते हैं और अनेक विषयों का भी सुझाव देते रहते हैं। उन्होंने कहा कि प्रेमचंद-साहित्य पर कार्य कर गोयनका जी ने एक इतिहास बनाया है और अनेक मानदंड निर्धारित किए हैं। इस अवसर पर कार्यक्रम के मुख्य अतिथि दिल्ली लाइब्रेरी बोर्ड और इंद्रप्रस्थ साहित्य भारती के अध्यक्ष डॉ. रामशरण गौड़ ने डॉ. गोयनका को देश का एक सावधान आलोचक बताया और उनके द्वारा किए गए कार्यों को नई पीढ़ी के लिए प्रेरणाप्रद बताया। उन्होंने डॉ. गोयनका को जीवेद शरदः शतम की शुभकामना दी। दिल्ली विश्वविद्यालय में सिंधी

के प्रोफेसर डॉ. रवि टेक चंदानी ने कहा कि मैं विगत ३० वर्षों से डॉ. गोयनका जी को जानता हूं। ये अपने पास आनेवाले लोंगो को सदैव आगे बढ़ने कि प्रेरणा देते रहते हैं। उन्होंने कहा कि प्रेमचंद पर इन्होंने जितना काम किया है, उससे लोग प्रेमचंद के परिवार के सदस्यों को कम और डॉ. गोयनका को ज्यादा खोजने लगे हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफेसर डॉ. अवनिजेश अवस्थी ने कहा कि गोयनका जी बहुत ही विषम परिस्थितियों में राष्ट्रवादी विचारधारा के लिए संघर्ष करते रहे और वे उसमें सफल रहे हैं। पी.जी.डी.ए.वी. कॉलेज के प्राचार्य डॉ. मुकेश अग्रवाल ने कहा कि हम उस पीढ़ी के व्यक्ति हैं, जिसने सदैव गोयनका जी से बहुत कुछ सीखा है। उन्होंने गांधी के पत्रकारिता विषयक और प्रेमचंद पर किए गए उनके कार्यों को महत्वपूर्ण बताया। दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी की प्रोफेसर डॉ. कुमुद शर्मा ने अपने उद्गार में कहा कि डॉ. गोयनका जी छोटे शहर बुलंदशहर से चलकर दिल्ली आए और यहां अनेक संघर्ष करते हुए एक सम्मानजनक स्थान बनाया है और इसमें देश, समाज और राष्ट्र के प्रति इनकी निष्ठा और कठिन परिश्रम इनका संबल रहा। वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. नारायण कुमार ने कहा कि डॉ. गोयनका का एक पक्ष अंतरराष्ट्रीय है, उन्होंने प्रवासी साहित्य पर काफी कार्य किया है और इसके लिए दुनिया भर के लेखक और साहित्यिक समाज इनका आदर करता है। उन्होंने 'गांधी हिंदी-भाषा-लिपि विचार कोष' को उनकी प्रमुख शोध कृति बताया। डॉ. उमाशंकर मिश्र ने विशेषरूप से पंडित दीनदयाल उपाध्याय पर किए गए उनके कार्यों को रेखांकित किया। माखनलाल

‘डॉ. गोयनका स्वयं तो लिखते ही हैं, दूसरों को भी लेखन के लिए प्रेरित करते रहते हैं और अनेक विषयों का भी सुझाव देते रहते हैं। उन्होंने कहा कि प्रेमचंद-साहित्य पर कार्य कर गोयनका जी ने एक इतिहास बनाया है और अनेक मानदंड निर्धारित किए हैं’ चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ.अरुण कुमार भगत ने डॉ. गोयनका के अभिवावकत्व रूप की चर्चा करते हुए कहा कि वे नई पीढ़ी की पढाई-लिखाई से लेकर रोजगार तक की चिंता करते हैं और सबको उचित परामर्श और सहयोग करते हैं। प्रो. भगत ने कहा कि हम जैसे अनेकों युवकों को वे राष्ट्रहित में लेखन और कर्म करने की प्रेरणा देते हैं. भीवानी से पधारे कवि-लेखक डॉ. रमाकांत शर्मा ने अपनी काव्य-पंक्तियों से डॉ. गोयनका जी को 80वें जन्मदिन की शुभकामनाएं देते हुए कहा -- 'जिनके पावन प्यार का कहीं ओर न छोर, सबके हितचिंतक सदा कमल किशोर। अपने उद्गार में डॉ. कमल किशोर गोयनका ने कहा कि मैं अपने परिवार की सारी संपदा छोड़कर दिल्ली आ गया इस संकल्प को लेकर कि मुझे प्रोफेसर बनना है और ईश्वर ने मुझे उसमें सफलता दी। उन्होंने कहा कि देश में राष्ट्रवादी विचारकोंलेखकों का काफी विरोध होता रहा है, किंतु मेरे जैसे कुछ लेखकों ने उसकी परवाह नहीं की और अपने

लेखन में लगे रहे। उन्होंने आज की कार्यक्रम में आए सभी लोगों का धन्यवाद किया और कहा कि मैं 100 वर्षों तक जीना चाहता हूं, पर काम करते हुए। इस अवसर पर ऑथर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के महासचिव डॉ. शिवशंकर अवस्थी, साहित्य समन्वय मंच के अध्यक्ष रामगोपाल शर्मा, हिन्दुस्तानी साहित्य अकादमी के अध्यक्ष सुधाकर पाठक तथा सलाहकार विजय कुमार राय, केंद्रीय हिंदी संसथान की दिल्ली केंद्र के निदेशक डॉ. प्रमोद कुमार शर्मा, उत्कर्ष साहित्यिक संस्था, कानपुर के अध्यक्ष डॉ. प्रदीप दीक्षित, प्रभात प्रकाशन के प्रभात कुमार, यश पब्लिकेशन के शांतिस्वरूप शर्मा, सुलभ इंटरनेशनल के प्रतिनिधि डॉ. अशोक कुमार ज्योति, वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती सविता चड्ढा, साहित्य अकादमी के संपादक कुमार अनुपम, अधिवक्ता शंकर कुमार झा, चंदन कुमार, डॉ. शिवानंद तिवारी, राष्ट्रीय उर्दू विकास परिषद् के अध्यक्ष डॉ. अकील अहमद, कथाकार इंद्रेश राजपूत, डॉ. सुधीर रिंटन, डॉ. रुद्रेश नारायण मिश्र, डॉ. सौरव मालवीय, डॉ. राकेश योगी, कमल संदेश पत्रिका के सहायक संपादक संजीव सिन्हा, डॉ. मणिकांत ठाकुर, बीरेंद्र चौधरी, प्रभात मिश्र, डॉ. जीतेन्द्र वीर कालरा, डॉ. लहरीराम मीणा आदि के साथ केंद्रीय हिंदी संस्थान, दिल्ली केंद्र, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय और दिल्ली स्कूल ऑफ जर्नलिज्म की छात्र-छात्राओं ने शाल, माला, पुष्पगुच्छ एवं उपहार भेंट कर डॉ. गोयनका जी को 80वें जन्मदिन की शुभकामनाएं दीं। कार्यक्रम का प्रारम्भ सरस्वती माता के चित्र पर पुष्पांजलि के साथ हुई, जिसका संचालन डॉ. अशोक कुमार ज्योति ने किया।


22 - 28 अक्टूबर 2018

देबायन मुखर्जी

खेल

दरिद्रता और दर्द के बीच सफलता की इबारत

शियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीतने वाली भारत की पहली हेप्टाथलीट स्वप्ना बर्मन दर्द और दरिद्रता के बीच रहते हुए सफलता की इबारत लिखने में कामयाब हुईं। गरीबी और शारीरिक विकृति ने इस चैंपियन खिलाड़ी की राह में जीवन के हर मोड़ पर बाधा डालने की कोशिश की, लेकिन अपने साहस और समर्पण के दम पर स्वप्ना ने हर एक बाधा को पार करते हुए इतिहास में अपना नाम दर्ज किया। स्वप्ना ने हालांकि एशियाई खेलों में इतिहास रचने के बाद यह स्वीकार किया था कि उनकी प्राथमिकता सोने का तमगा हासिल करने से कहीं ज्यादा सरकारी नौकरी हासिल करना था, क्योंकि इससे न सिर्फ उनकी बल्कि उनके परिवार की माली हालत सुधर सकती थी। इसकी पीछे कारण यह था कि स्वप्ना ने अपनी अब की जिंदगी गरीबी में बिताई है, लेकिन इसके बावजूद उन्होंने इसे अपनी सफलता की राह की बाधा नहीं बनने दिया। स्वप्ना ने कहा, ‘मैं जब अपने मोहल्ले में ऊंची कूद का अभ्यास करती थी और स्थानीय प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेती थी, तब मेरा एक ही लक्ष्य था। मैं किसी तरह कोई सरकारी नौकरी पाना चाहती थी। उस समय वही मेरा सपना था।’ स्वप्ना अपने मातापिता की चार संतानों में सबसे छोटी है। उनके माता-पिता को अभी तक अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। उत्तर बंगाल में राजबोंशी

एशियायी खेलों में स्वर्ण पदक जीतने वाली स्वप्ना ने अपनी अब की जिंदगी गरीबी में बिताई है, लेकिन इसके बावजूद उन्होंने इसे अपनी सफलता की राह की बाधा नहीं बनने दिया

जनजाति से ताल्लुक रखने वाली स्वप्ना की मां घरों में काम करने के अलावा अतिरिक्त आमदनी के लिए चाय बगानों में भी काम करती थी। सात साल पहले लकवाग्रस्त होकर बिस्तर पकड़ने से पहले स्वप्ना के पिता पंचानन बर्मन वैन रिक्शा चलाते थे। स्वप्ना ने बताया, ‘आजीविका चलाने के लिए मेरे अन्य तीन भाईबहन संघर्ष करते थे। मैं सबसे छोटी हूं, इसीलिए मेरे पिता ने सोचा कि मैं खेलों से अगर कुछ कमा लूं तो इससे परिवार को मदद मिलेगी।’ अगस्त में हुए एशियाई खेलों में दो दिन के कार्यक्रम में सात दौर के कड़े मुकाबले में कुल 6,026 अंक हासिल कर अपने कैरियर का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाली स्वप्ना ने न सिर्फ वित्तीय बाधाओं को पार किया,

आजीविका चलाने के लिए मेरे अन्य तीन भाई-बहन संघर्ष करते थे। मैं सबसे छोटी हूं, इसीलिए मेरे पिता ने सोचा कि मैं खेलों से अगर कुछ कमा लूं तो इससे परिवार को मदद मिलेगी- स्वप्ना

बल्कि अपने दोनों पैरों की छह-छह अंगुलियों की परेशानियों को भी मात दी। उसने कहा, ‘मेरी बस एक ही ख्वाहिश थी की कोई नौकरी मिले।’ स्वप्ना ने कहा, ‘मेरा सपना अब अपने देश को आगे ले जाना और आप सबको गौरवान्वित करना है।" उन्होंने कहा कि उनके साथ अब अलग तरह से बर्ताव नहीं होना चाहिए क्योंकि अभी तो सफर की शुरुआत ही हुई है।’ स्वप्ना ने जकार्ता में दांत के संक्रमण के बावजूद पहला स्थान हासिल किया। दांत के दर्द को कम करने के लिए उन्होंने पूरी स्पर्धा के दौरान दर्दनिवारक टेप का इस्तेमाल किया। उन्होंने बताया, ‘अपनी स्पर्धा से पहले मैं कुछ नहीं खा पाई थी। मैं इतनी बीमार थी कि आपको बता नहीं सकती। मैं सिर्फ यह जानती थी कि मुझे जीतना है, क्योंकि मेरे वर्षो का संघर्ष इसी पर निर्भर था।’ स्वप्ना के इस सफर की शुरुआत घोशपारा गांव जाने वाली धान के खेतों की पगडंडी से हुई, जहां उन्होंने पहली बार दौड़ लगाई थी। ट्रैक व फील्ड

एथलीट हरिशंकर रॉय को भी प्रशिक्षण देने वाले सुभाष सरकार लंबे समय तक स्वप्ना के कोच रहे। उन्होंने अपनी यादों को ताजा करते हुए कहा, ‘मैंने सबसे पहले 2011 में जलपाईगुड़ी में स्वप्ना को एक झलक देखा था। वहां मेरे कुछ विद्यार्थी थे, जिन्होंने मुझसे कहा कि सर, इसे अपने साथ कोलकाता ले जाइए। वह बहुत अच्छी है।’ सरकार 1992 से भारतीय खेल प्राधिकरण (साई) के प्रशिक्षिक रहे हैं। उन्होंने कहा कि छोटी और गठीली कद-काठी की स्वप्ना से शुरुआत में वह प्रभावित नहीं हुए, लेकिन रायकोटपारा स्पोर्टस एसोसिएशन के सचिव समीर दास ने उनसे स्वप्ना को अपने साथ ले जाने का आग्रह किया। साई के पूर्वी केंद्र में 2012 में आने से

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पहले वह प्रशिक्षण लेती रहीं। सरकार बताया कि समीर का इसी साल जून में निधन हो गया, लेकिन उन्होंने चेतावनी दी थी कि स्वप्ना को अगर उचित मार्गदर्शन व प्रोत्साहन नहीं मिलेगा तो वह अपनी मां के साथ चाय बगान में काम करने लगेगी। वर्ष 2011 में लुधियाना में स्कूल स्तर की स्पर्धा में स्वप्ना को ऊंची कूद में स्वर्ण पदक मिला। कोच सरकार फिर भी प्रभावित नहीं थे, लेकिन अगले कुछ साल में स्वप्ना ने आकर्षक प्रदर्शन किया। सरकार ने कहा, ‘मैं उसकी प्रतिभा को देखकर हैरान था। वर्ष 2012 में उसने ऊंची कूद में 57,61,63,67 और 71 अंक हासिल किए। उसने ऊंची कूद में जूनियर स्तर की राष्ट्रीय स्पर्धा में दो-तीन बार रिकॉर्ड कायम की। वह औसत से बेहतर थी।’ सरकार उसके बाद स्वप्ना को ऊंची कूद से हेप्टाथलॉन में ले आए। स्वप्ना 17 साल की उम्र में 17वीं फेडरेशन कप सीनियर एथलेटिक्स चैंपियनशिप में शामिल हुईं और उसने 5,400 अंक हासिल कर दक्षिण कोरिया में आयोजित होने वाले एशियाई खेल के लिए क्वालीफाई किया। वर्ष 2014 के एशियाई खेल वह पांचवें स्थान पर रहीं। सामाजिक समस्याओं और पीठ की चोट के कारण 2015 से 2016 के बीच वह खेल से बाहर रहीं। वह वापस घर लौट चुकी थी और दोबारा मैदान में नहीं उतरने का मन बना चुकी थीं। लेकिन कोच सरकार उसे दोबारा खेल में लेकर आए और वह 2017 में एशियाई एथलेटिक्स चैंपियनयशीप में सोना जीतने में कामयाब रहीं। एशियाई खेलों से पहले सब कुछ योजनाबद्ध तरीके से चल रहा था और स्वप्ना 6,200 अंक के दायरे को पार करने को लेकर आश्वस्त थी लेकिन पटियाला में राष्ट्रीय शिविर के दौरान टखने की चोट, घुटने की नस में खिंचाव और पेट के निचले हिस्से में तकलीफ के कारण उसके अभियान पर एक बार फिर खतरे का बादल छा गया। सरकार ने हालांकि कहा कि इस बार वह हार नहीं मानने वाली थी, जबकि एथलेटिक्स फेडरेशन के अधिकारी भी उसकी फिटनेस को लेकर आश्वस्त नहीं थे। स्वप्ना का अगला लक्ष्य 2020 में टोक्यो में होने वाला ओलंपिक है। 2019 में वह हालांकि किसी बड़ी प्रतियोगिता में हिस्सा नहीं ले पाएंगी, क्योंकि उन्हें जल्द स्वस्थ होने की आवश्यकता है।स्वप्ना ने कहा, ‘अगर मैं दांत में भयानक दर्द के बीच पदक जीत सकती हूं तो मुझे यकीन है कि मैं पूरी तरह फिट होने के बाद भविष्य में और बेहतर प्रदर्शन कर सकती हूं।’


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सुलभ संसार

सुलभ अतिथि

इंडिया न्यूज से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार जयप्रकाश मिश्र, पूर्वांचल समाज, नई दिल्ली के अध्यक्ष व सूर्योत्सव के सह प्रबंध संपादक, पूर्वांचल फाउंडेशन, फाउंडेशन के अध्यक्ष एसके सिंह और नोएडा इंस्टीट्यूट ऑफ इंजीनियरिंग एंड

22 - 28 अक्टूबर 2018

टेक्नोलॉजी के छात्र विक्रमादित्य के सुलभ ग्राम पधारने पर वहां सुबह की प्रार्थना सभा में उनका शॉल ओढ़ाकर स्वागत किया गया। सुलभ ग्राम से विदा लेते समय इन अतिथियों ने सुलभ के आतिथ्य की काफी प्रशंसा की।

सुलभ ग्राम पहुंचने वाले सामान्य आगंतुकों में चार्टर्ड अकाउंटेंट अनुभा रस्तोगी, रूबी सचदेवा और नीरज जोशी ने सुलभ ग्राम के दौरे के दौरान यहां चल रही गतिविधियों और प्रदर्शित मॉडलों में खूब दिलचस्पी ली।

सुलभ ग्राम के दौरे पर आए नई दिल्ली स्थित जर्मन दूतावास से आए गण्यमान्य अतिथियों को शॉल ओढ़ाकर स्वागत किया गया। इन सभी ने सुलभ के कार्यों और उसकी विविधि गतिविधियों की काफी सराहना की। खासतौर पर मल्ट पर्पस टेबल टॉप टॉयलेट को देखकर वे काफी अभिभूत हुए, जिसका कभी शिकार के दौरान ब्रिटिश लोग इस्तेमाल करते थे।

बुद्धि का प्रयोग पूजा

क राजा अपने मंत्री के साथ जंगल में शिकार पर निकले। जंगल की यात्रा के दौरान राजा की उंगली कट गई और रक्त बहने लगा। यह देख मंत्री ने राजा से कहा –चिंता न करें राजन ! भगवान जो करता है, अच्छे के लिए करता है। राजा पीड़ा से व्याकुल थे, ऐसे में मंत्री का कथन सुन क्रोध से तमतमा उठे। क्रोध में आकर राजा ने मंत्री को अपने कारावास में डाल देने की आज्ञा दी। राजा का आदेश का पालन करते हुए उनकें सिपाहियों ने तुरत ही मंत्री को पकड़कर कारावास में डाल दिया।

इस तरफ राजा यात्रा आगे बढ़ने लगे, कुछ दूर ही चले थे कि नरभक्षियों के एक दल ने उन्हें पकड़ लिया। उनकी बलि देने की तैयारी होने लगी। तभी, उनकी कटी उंगली देख नरभक्षियों का पुजारी बोला –अरे ! इसका तो अंग भंग है,

इसकी बलि स्वीकार नहीं की जा सकती। राजा को छोड़ दिया गया । जीवनदान मिला तो राजा को अपने प्रभुभक्त मंत्री की याद आई और अपनी गलती का बोध हुआ। वे तुरत भाग कर अपने राज्य वापस लौटे और जिस कारावास

में मंत्री को रखा था वहा जाकर मंत्री को प्रेमपूर्वक गले लगाया। सारी घटना सुनाई और पूछा कि मेरी उंगली कटी तो इससे भगवान ने मेरी जान बचाई, पर तुम्हें मैंने इतना अपमानित किया तो उसमें तुम्हारा क्या भला हुआ ? मंत्री मुस्करा और बोले –राजन ! यदि मैं भी आपके साथ होता तो अभी आपके स्थान पर, मेरी बलि चढ़ चुकी होती, इसीलिए भगवान जो भी करते हैं, मनुष्य के भले के लिए ही करते हैं। कहीं बार हमारे जीवन में भी ऐसी घटनाएं घटती है, जो हमें उस वक्त अच्छी नहीं लगतीं, लेकिन वो आगें जाकर हमारे लिए अच्छा साबित होता है। इसीलिए अगर आपके जीवन में भी कुछ ऐसा घटे तो चिंता मत करिए नकारात्मक सोच को पनपने न दें और उस घटना के पीछे के सकारात्मक पहलुओं को देखें, फिर आप भी कहने लगेंगे जो होता है वो अच्छे के लिए ही होता है।


22 - 28 अक्टूबर 2018

आओ हंसें

जीवन मंत्र

पत्नी : तुमने मेरे साथ धोखा किया है ? संता : क्यों जानेमन क्या हुआ? पत्नी : तुमने बताया ही नहीं कि तुम्हारी रानी नाम की पहले से एक पत्नी है। संता : मैंने तेरे पापा को बताया तो था, कि तुझे बिल्कुल रानी की तरह रखूंगा।

राय नहीं मांग रही

सु

अपने खराब मूड के समय बुरे शब्द न बोलें खराब मूड को बदलने के बहुत मौके मिलेंगें पर शब्दों को बदलने के नहीं

नाम का धोखा

डोकू -45

रंग भरो

पत्नी सब्जी लेते समय पति से बोली : पत्नी – 2 किलो मटर ले लूं? पति : ले लो। पत्नी : मैं तुम्हारी राय नहीं मांग रही हूं। पूछ रही हूं। क्या छील लोगे इतना? पति बेहोश।

सुडोकू का हल इस मेल आईडी पर भेजेंssbweekly@gmail.com या 9868807712 पर व्हॉट्सएप करें। एक लकी व‌िजते ा को 500 रुपए का नगद पुरस्कार द‌िया जाएगा। सुडोकू के हल के ल‌िए सुलभ स्वच्छ भारत का अगला अंक देख।ें

सुडोकू-44 का हल विजेता का नाम मिताली श्रीवास्तव ​पटना

महत्वपूर्ण तिथियां

• 24 अक्टूबर विश्व पोलियो दिवस, संयक्त ु राष्ट्र स्थापना दिवस, विश्व विकास सूचना दिवस • 26 अक्टूबर गणेशशंकर विद्यार्थी जयंती

बाएं से दाएं

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इंद्रधनुष

1. डरपोकपन (4) 4. लेख आदि को जाँचना, सही करना (4) 6. सलमा सितारे का काम (4) 7. आगे की सेना (3) 8. सुंदर स्त्री (4) 10. खल, चूरी, भूसे व पानी का मिश्रण (2) 11. मनौती (3) 12. चौकीदारी (3) 13. नमक (2) 14. कमल (4) 15. आय (3) 16. विष्णु का एक नाम (4) 18. हीरे की खान (4) 19. योद्धा (4)

वर्ग पहेली-44 का हल

ऊपर से नीचे

1. शरीर (2) 2. चंद्रमा (3,2) 3. सितारे का चिह्न (3) 4. जीवन दायिनी औषधि (4) 5. आँखों को अच्छा लगने वाला (6) 9. युद्ध में वीरता दिखाने वाला योद्धा (3,3) 10. वस्तुएँ, सामग्री (3) 12. आकाश में स्थित सभी तत्वों से आच्छादित वायुमंडल (5) 13. नुकीला (4) 15. सम्मान, मान (3) 17. कत्थे की लकड़ी (2)

कार्टून ः धीर

वर्ग पहेली - 45


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न्यूजमेकर

अनाम हीरो

22 - 28 अक्टूबर 2018

गुरबचन सिंह

पर्यावरण प्रेम की मिसाल

जो लोग पराली नहीं जलाते उस घर में ही रिश्ता करते हैं गुरबचन

दि पर्यावरण को बचाना है तो पंजाब के तरनतारन के किसान गुरबचन सिंह जैसा जज्बा जरूरी है। गुरबचन खुद तो पराली नहीं ही जलाते, दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करते हैं। 40 एकड़ जमीन के मालिक हैं। वह वर्ष 2000 में धान की कटाई के बाद पराली को आग लगाने से तौबा कर चुके हैं। 2008 से पराली न जलाने के इतने अच्छे नतीजे आने लगे कि उन्होंने फैसला किया कि अपने बच्चों की शादी वहीं करेंगे, जहां पराली को आग नहीं लगाई जाती। गुरबचन सिंह ने अपने बड़े बेटे गुरदेव सिंह का रिश्ता उस घर में किया, जिन्होंने पराली न जलाने

का संकल्प लिया। आने वाले दिनों में गुरबचन सिंह अपनी लड़की की शादी भी उसी घर में करने जा रहे हैं, जिस परिवार ने उनकी बेटी को बहू बनाने से पहले ही पराली न जलाने की कसम ली है। गुरबचन सिंह अपनी बेटी के लिए नई हैप्पी सीडर मशीन भी खरीद ली है। वह अपने पिता गुरदेव सिंह के साथ मिलकर खेती करते हैं। ग्रेजुएश्न तक पढ़ाई कर चुके किसान गुरबचन सिंह ने बताया कि 2008 में गेहूं की कटाई के बाद पहली बार हैप्पी सीडर मशीन का प्रयोग करके उन्हें काफी लाभ हुआ। हैप्पी सीडर मशीन इस परिवार को इतनी रास आई कि

अभय आश्तेकर

सम्मान का विज्ञान

वे पीएयू के इंजीनियर विभाग के अधिकारी एचएस सिद्धू व हैप्पी सीडर मशीन बनाने वाली सोसायटी को धन्यवाद करते नहीं थकते। सिंह ने बताया कि पराली न जलाकर हैप्पी सीडर मशीन के प्रयोग से इतना लाभ हुआ कि धान की फसल बिना किसी खाद व स्प्रे के होती है। केवल गेहूं की फसल के दौरान आधी खाद डालनी पड़ती है। इस फसल में

न्यूजमेकर

आइंस्टीन पुरस्कार से सम्मानित होंगे प्रो. अभय आश्तेकर

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र दशकों से गुरुत्वाकर्षण विज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण शोध कर रहे भारतीय-अमेरिकी प्रोफेसर अभय आश्तेकर को प्रतिष्ठित आइंस्टीन पुरस्कार से सम्मानित किया जाएगा। अमेरिकन फिजिकल सोसाइटी द्वारा दिए जाने वाले पुरस्कार के तहत विजेता को 10 हजार डॉलर का इनाम दिया जाता है। महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन के नाम पर दिए जाने वाले इस पुरस्कार की शुरुआत 1999 में हुई थी। पेंसलवेनिया स्टेट यूनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट फॉर ग्रैविटेशन एंड द कॉसमास के निदेशक अभय को यह पुरस्कार सामान्य सापेक्षता, ब्लैक होल के सिद्धांत व क्वांटम फिजिक्स के क्षेत्र में बेहतरीन योगदान के लिए दिया जा रहा है। पुरस्कार पाने को लेकर उत्साहित अभय ने कहा, ‘स्कूल में पढ़ने के दौरान मैंने न्यूटन के सिद्धांत और गुरुत्व बल की सार्वभौमिकता को जाना। जिस बल के कारण कोई भी सामान धरती पर नीचे आता है उसी बल के कारण पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है। यह बहुत उत्साहित करने वाला था। उसके बाद ही मैंने इस विज्ञान को समझने का मन बना लिया था। इसी से मुझे अंतरिक्ष, समय और प्रकृति से जुड़े सवालों के जवाब मिल सकते थे।' भारत से हाई स्कूल की पढ़ाई कर चुके अभय ने 1974 में यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो से पीएचडी की डिग्री ली। वह फ्रांस, कनाडा और भारत में महत्वपूर्ण पदों पर काम कर चुके हैं।

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किसी स्प्रे की जरूरत नहीं पड़ती। इतना ही नहीं फसल का झाड़ भी बढ़ता है। उन्होंने बताया कि पहली बार 1.24 लाख में चार किसानों ने मिलकर हैप्पी सीडर मशीन खरीदी थी। इस मशीन ने चारों घरों की पौ बारह कर डाली। अब किसान गुरबचन सिंह रोज एक दर्जन के करीब उन किसानों को पराली न जलाने लिए प्रेरित करते हैं।

प्रीति गोयल

इंसानियत की प्रीति

पंजाब में रह रही महिला को नगालैंड में रह रहे उसके परिजनों से मिलाया

जाब में लहरागागा की आईएएस अधिकारी प्रीति गोयल ने अनीता को अपने बिछड़े परिवार के साथ मिलाकर एक मिसाल कायम की है। हालांकि प्रीति को उसे परिवार से मिलाने में करीब 2 वर्ष का समय लगा। लहरागागा का रहने वाला वकील चंद नागालैंड में फौज की नौकरी करता था। नौकरी के दौरान वकील चंद की मुलाकात अनीता के साथ हुई और दोनों में प्यार हो गया। बाद में दोनों ने 1967 में प्रेम विवाह कर लिया और लहरागागा आकर रहने लगे। पर अनीता हमेशा अपने नागालैंड में रह रहे परिजनों को याद कर रोती रहती थी। यहां तक कि वह अपने घर का पता भी भूल गई थी। उसको सिर्फ इतना ही याद थी कि उसका पिता अस्पताल में काम करता था और उसका घर एक थिएटर के पास था। अनीता प्रीति के पड़ोस में ही रहती हैं। प्रीति ने अनीता को वचन दिया कि वह एक दिन उसे उसके परिवार के साथ जरूर मिलवाएगी। यह वचन उसने करीब 10 वर्ष पहले किया था। इस दौरान प्रीति कई जगहों पर तैनात रही। उसने अपने अन्य आईपीएस दोस्तों की मदद ली, जो नागालैंड के रहने वाले थे। आखिरकार अनीता को उसके परिवार से मिलाने में प्रीति सफल हुई।

आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597; संयुक्त पुलिस कमिश्नर (लाइसेंसिंग) दिल्ली नं.-एफ. 2 (एस- 45) प्रेस/ 2016 वर्ष 2, अंक - 45


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