सुलभ स्वच्छ भारत - वर्ष-2 - (अंक 32)

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व्यक्तित्व

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स्त्री संघर्ष का घोषणापत्र

स्वच्छता

22 पुस्तक अंश

सुंदरता और स्वच्छता आधारभूत संरचना की द्वीपमाला का विस्तार

24 कही-अनकही

29

एक्टिंग का स्कूल डाक पंजीयन नंबर-DL(W)10/2241/2017-19

आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597

बदलते भारत का साप्ताहिक

sulabhswachhbharat.com

वर्ष-2 | अंक-32 | 23 - 29 जुलाई 2018

अब मिथिला में ‘सुलभ जल’

देश के शहरों में करीब 9.7 करोड़ लोगों को पीने का साफ पानी नहीं मिलता। गांवों में तो 70 फीसदी लोग प्रदूषित जल पीने को विवश है। ऐसे में स्वच्छता से आगे कदम बढ़ाते हुए सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक सुलभ जल की किफायती तकनीक लेकर सामने आए हैं

मा

एसएसबी ब्यूरो

नव अस्तित्व के लिए पानी सबसे जरूरी है। लेकिन आज पूरी दुनिया में जल संकट धीरे-धीरे विकराल होता नजर आ रहा है। इस संकट की गंभीरता को इस रूप में भी समझा जा सकता है कि लोगों को अन्य कार्यों के लिए तो छोड़िए, पीने तक के लिए शुद्ध पेयजल नहीं मिल पा रहा है। जल संसाधनों की प्रचुरता के बावजूद स्थितियां विकट हैं। हमारे अपने देश में बिहार की बात करें तो यहां नदियों का जाल बिछा है। फिर भी वह जल-संकट की समस्या से जूझ रहा है।

खास तौर पर बिहार के पश्चिमी हिस्से में भू-जल स्तर धीरे-धीरे नीचे की ओर जाने लगा है। लोग बूंद-बूंद पानी के लिए तरसने लगे हैं। राज्य का लोक स्वास्थ्य अभियंत्रण विभाग लोगों को पानी उपलब्ध कराने में सफल नहीं हो पा रहा है। राज्य में कम से कम 20 जिले ऐसे हैं, जो कम वर्षा की वजह से बीते एक दशक में कई बार सूखे की चपेट में आए हैं।

सुलभ की बड़ी पहल

ऐसे में बिहार के लोगों के लिए शुद्ध पेयजल मुहैया कराने की बड़ी पहल सुलभ संस्था की तरफ से की गई है। सुलभ प्रणेता ने हाल में ही डॉ. विन्देश्वर पाठक ने प्रदेश के दरभंगा जिले में पेयजल समस्या का समाधान


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आवरण कथा

खास बातें दरभंगा में ‘सुलभ जल’ ब्रांड की महत्वाकांक्षी परियोजना का शुभारंभ दिसंबर तक यहां के लोगों को मिलने लगेगा शुद्ध पेयजल 50 पैसे प्रति लीटर के किफायती मूल्य पर लोगों को मिलेगा पानी

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गंदे पानी को शुद्ध कर 50 पैसे में एक लीटर पानी मुहैया कराया जाएगा।

सुलभ प्रणेता ने रखी नींव

सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक डॉ. विन्देश्वर पाठक ने इस परियोजना की नींव रखी। इस मौके पर दरभंगा के विधायक संजय सरावगी और जिलाधिकारी चंद्रशेखर प्रसाद सिंह मौजूद थे। इस मौके पर सुलभ प्रणेता डॉ. पाठक ने कहा, ‘यह दुनिया में पहला मौका है, जब हमें नई प्रौद्योगिकी के प्रयोग से नाम मात्र की लागत से शुद्ध पेयजल बनाने में कामयाबी मिली है। गांव के लोगों को इसका सीधा लाभ मिलेगा।’

और परियोजनाएं भी शुरू होंगी

करने के लिए एक नवोन्मेषी योजना की शुरुआत की है। इस परियोजना के तहत प्रदूषित जल का शोधन कर पेयजल उपलब्ध करवाया जाएगा। यह योजना सरकार की एजेंसियों के साथ समन्वय करते हुए शुरू की गई है। लोगों को प्रदूषित पेयजल पीने की बाध्यता को देखते हुए सुलभ ने अपने कार्यक्षेत्र का विस्तार किया है और वह पश्चिम बंगाल से लेकर बिहार तक लोगों को किफायती दरों पर पेयजल उपलब्ध कराने का बीड़ा अपने कंधों पर उठाया है।

इस प्रायोगिक परियोजना का कार्यान्वयन नागरिक प्राधिकरणों के सहयोग से किया जाएगा और बाद में इसे प्रदेश के दूसरे हिस्सों में भी शुरू किया जाएगा। प्रयोग के आधार पर इससे पहले पश्चिम बंगाल के 24 परगना, मुर्शिदाबाद और नादिया जिलों में सुलभ जल की परियोजना शुरू की गई थी, जहां पानी में आर्सेनिक पाया जाता है। फ्रांसीसी संगठन के साथ मिलकर सुलभ द्वारा तीन साल पहले शुरू की गई यह योजना वहां सफल रही।

दरभंगा में ‘सुलभ जल’

सुलभ की पहल से शुरू हुई इस नई जल शुद्धीकरण परियोजना के तहत 8,000 लीटर पेयजल रोज तैयार किया जाएगा, जिस पर लागत खर्च काफी कम होगा। डॉ. पाठक ने इस बारे में बताते हुए कहा, ‘सुलभ के इस उपकारी कार्य के तहत महज 50 पैसे प्रति लीटर की दर से पीने का पानी उपलब्ध कराया जाएगा। हरिबोल तालाब पर स्थापित संयंत्र का संचालन बगैर लाभ के आधार पर किया जाएगा और इसका प्रबंधन दरभंगा नगर निगम के स्वयं सहायता समूह द्वारा किया जाएगा।’

बात करें दरभंगा की तो गर्मी के दिनों में यहां पेयजल का गंभीर संकट बना रहता है। जिले में दूषित गंदा जल मिलता है। वैसे जल का यह प्रदूषण बिहार के कई दूसरे हिस्सों में भी आर्सेनिक-फ्लोराइड और आयरन की अधिकता के तौर पर देखने को मिलता है। लोग जो पानी पीने को मजबूर हैं उसमें आयोडीन की मात्रा आमतौर पर काफी कम होती है। दरभंगा में एक छोटे से तालाब में शुरू की गई इस परियोजना में फ्रांसीसी तकनीक का इस्तेमाल किया गया है। इस प्रौद्योगिकी के जरिए तालाब के

कम लागत में जल शुद्धीकरण

यह दुनिया में पहला मौका है, जब हमें नई प्रौद्योगिकी के प्रयोग से नाम मात्र की लागत से शुद्ध पेयजल बनाने में कामयाबी मिली है। गांव के लोगों को इसका सीधा लाभ मिलेगा – डॉ. विन्देश्वर पाठक दिसंबर से जलापूर्ति

सुलभ प्रणेता डॉ. पाठक ने इस महत्वाकांक्षी परियोजना का शिलान्यास करने के बाद कार्यक्रम को संबोधित करते हुए कहा कि जिस बिहार की माटी ने उन्हें जन्म दिया, उस माटी के प्रति उनका जो कर्ज है, उसे पूरा करने का वह हरसंभव प्रयास करते रहेंगे। दरभंगा के लोगों को इस परियोजना से इस वर्ष दिसंबर से पानी की आपूर्ति शुरू हो जाएगी। उन्होंने कहा कि समाज ने उसी को याद रखा है जो समाज की सेवा करता है।

बड़ी सौगात

डॉ. पाठक ने कहा कि आज देश की सबसे बड़ी समस्या स्वच्छ जल की कमी है। इसकी वजह से लोगों को कई तरह की बीमारियों का सामना करना पड़ रहा है। मिथिला की धरती पानी से लबालब है,

लेकिन औद्योगीकरण, बढ़ती जनसंख्या और खेती में बढ़ते कीटनाशकों और खाद के इस्तेमाल से आज जल स्रोत प्रदूषित हो गए हैं। ऐसे माहौल में सुलभ की यह परियोजना दरभंगा के लोगों के लिए बड़ी सौगात साबित होगी।

रोजगार सृजन भी

इस परियोजना में मशीन स्थापित करने की लागत 20 लाख रुपए होगी, जिसमें फ्रांसीसी संगठन, सुलभ और ग्रामीणों की साझेदारी होगी। स्थानीय लोग और एनजीओ की ओर से इसका रख-रखाव किया जाएगा। पाठक ने कहा कि इस परियोजना में रोजगार का भी सृजन होगा।

बड़ी समस्या

कुछ समय पूर्व केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने देश


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आवरण कथा

मधुबनी स्टेशन की सुंदरता पर फिल्म सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक एवं रेलवे स्वच्छता मिशन के ब्रांड एंबेसेडर डॉ. विन्देश्वर पाठक की परिकल्पना एवं निर्देशन में इस डाक्यूमेंट्री की शूटिंग शुरू

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हार का मधुबनी रेलवे स्टेशन विगत कुछ महीनों से अपने अनोखे सौंदर्य को लेकर चर्चा में है। पूरे स्टेशन परिसर को जिस तरह मशहूर मधुबनी पेंटिंग से संवारा गया है, उसकी चर्चा विदेशी मीडिया तक में रही है। मधुबनी पेंटिंग के जरिए इस स्टेशन के सौंदर्यीकरण को लेकर एक डाक्यूमेंट्री फिल्म की शूटिंग शुरू हो चुकी है। सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक एवं रेलवे स्वच्छता मिशन के ब्रांड एंबेसेडर डॉ. विन्देश्वर पाठक की परिकल्पना एवं निर्देशन में इस डाक्यूमेंट्री की शूटिंग शुरू हुई है। यह फिल्म पूरी तरह स्वच्छता पर आधारित है। कैसे एक गंदे रेलवे स्टेशन (मधुबनी) को मधुबनी पेंटिंग ने स्वच्छता में पूरे देश में दूसरा स्थान दिलाया गया, उस अभिनव पहल से जुड़े तमाम चरणों और प्रकरणों पर यह फिल्म केंद्रित है। इस फिल्म में जगत जननी माता सीता को भी दर्शाया जा रहा है। इस फिल्म में मुंबई के दो कलाकार दीक्षा निशा एवं परितोष सेन के अलावा स्थानीय मधुबनी पेंटिंग से जुड़े कई कलाकार भूमिका निभा रहे हैं। फिल्म के निर्देशक डॉ. विन्देश्वर पाठक बताते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जो सपना है, उसे समस्तीपुर के डीआरएम आरके जैन साकार कर रहे हैं। मधबुनी पेंटिंग ने रेलवे स्टेशन की सुंदरता बढ़ा दी। उन्होंने बताया कि स्वच्छता

स्वच्छता के लिहाज से मधुबनी पेंटिंग का इस्तेमाल इसलिए भी अहम है, क्योंकि इससे लोग गंदगी नहीं करेंगे – डॉ. विन्देश्वर पाठक के लिहाज से मधुबनी पेंटिंग का इस्तेमाल इसीलिए भी अहम है, क्योंकि इससे लोग गंदगी नहीं करेंगे। इससे जहां गांधी जी का सपना साकार होगा, वहीं मधुबनी पेंटिंग से लोगों को रोजगार भी मिलेगा। इस मौके पर समस्तीपुर के डीआरएम आरके जैन, रेलवे के वित्त अधिकारी गणनाथ झा, कई रेल अधिकारी और मधुबनी

पेंटिंग के कलाकार मौजूद थे। इस मौके पर डॉ. पाठक ने स्टेशन को अपनी पेंटिंग से संवारने वाले कलाकारों को सम्म​ानित भी किया। गौरतलब है कि दो चरणों में इस रेलवे स्टेशन को मधुबनी पेंटिंग्स से संवारने का कार्य पूरा किया गया है। प्लेटफार्म सहित स्टेशन परिसर के लगभग आधा किलोमीटर के क्षेत्रफल

में कलाकारों की अलग-अलग टीम द्वारा सीता जन्म, राम-सीता वाटिका मिलन, धनुष भंग, जयमाल, कृष्ण लीला, माखन चोरी, कलिया मर्दन, कृष्ण रास, राधा-कृष्ण रास, विद्यापति, ग्रामीण जीवन, मिथिला के लोक नृत्य व त्योहार सहित तकरीबन 4 दर्जन विषयों पर कलाकृतियां उकेरी गई हैं। मधुबनी चित्रकला पारंपरिक रूप से इस पूरे इलाके की पहचान है। इस लोककला की बढ़ती ख्याति की ही देन है कि बीते करीब 6 दशक में यहां के 5 कलाकारों को पद्मश्री पुरस्कार मिल चुका है। यही नहीं, मधुबनी जिले के 10 हजार से अधिक कलाकारों को मधुबनी पेंटिंग्स के माध्यम से रोजगार मिल रहा है। मधुबनी रेलवे स्टेशन का नया इंद्रधनुषी रूप भारतीय रेलवे द्वारा शुरू किए ‘रेल स्वच्छ मिशन’ की सफलता की कहानी बयां करता है। मधुबनी स्टेशन कभी भारत के गंदे स्टेशनों में शुमार था, पर आज इस स्टेशन की दीवारों और फुटओवर ब्रिज पर यहां की परंपरागत मधुबनी पेंटिंग की सज्जा देखते ही बनती है। मधुबनी स्टेशन की काया पलट करने में 225 कलाकारों की मेहनत है। गौरतलब है कि भारतीय रेलवे ने ‘रेल स्वच्छ मिशन’ के तहत इस स्टेशन में सफाई अभियान चलाया था, जिसमें कलाकारों ने वेतन की मांग न करते हुए 14 हजार वर्ग फीट की दीवार तो ट्रेडिशनल मिथिला स्टाइल में पेंट किया। उल्लेखनीय है कि कुछ माह पूर्व जब सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक और स्वच्छ रेल मिशन के ब्रांड एंबेसडर डॉ. विन्देश्वर पाठक ने मधुबनी स्टेशन के वेटिंग रूम में बनी पेंटिंग का जब निरीक्षण किया था, तो वे इसे देखकर अभिभूत रह गए थे।


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आवरण कथा

23 - 29 जुलाई 2018 गांवों में साफ पानी नहीं मिलता तो वहीं दूसरी ओर महानगरों में वितरण की कामियों के चलते रोजाना लाखों गैलन साफ पानी बर्बाद हो जाता है।

जल संकट के कारण

आखिर पानी की इस लगातार गंभीर होती समस्या की वजह क्या है? इसकी मुख्य रूप से तीन वजहें हैं। पहला है आबादी का लगातार बढ़ता दबाव। इससे प्रति व्यक्ति साफ पानी की उपलब्धता घट रही है। फिलहाल देश में प्रति व्यक्ति 1000 घनमीटर पानी उपलब्ध है, जो वर्ष 1951 में 3-4 हजार घनमीटर था। 1700 घनमीटर प्रति व्यक्ति से कम उपलब्धता को संकट माना जाता है। अमेरिका में यह आंकड़ा प्रति व्यक्ति आठ हजार घनमीटर है। इसके अलावा जो पानी उपलब्ध है उसकी गुणवत्ता भी बेहद खराब है। नदियों का देश होने के बावजूद ज्यादातर नदियों का पानी पीने लायक और कई जगह नहाने लायक तक नहीं है। खेती पर निर्भर इस देश में किसान सिंचाई के लिए मनमाने तरीके से भूगर्भीय पानी का दोहन करते हैं। इससे जलस्तर तेजी से घट रहा है। कुछ ऐसी ही हालत शहरों में भी है, जहां तेजी से बढ़ते कंक्रीट के जंगल जमीन के भीतर स्थित पानी के भंडार पर दबाव बढ़ा रहे हैं। आईटी सिटी के रूप में विकसित होने वाले गुड़गांव में अदालत ने पेयजल की गंभीर समस्या के चलते हाल में नए निर्माण पर तब तक रोक लगा दी थी जब तक संबंधित कंपनी या व्यक्ति पानी के वैकल्पिक स्रोत और उसके संरक्षण का प्रमाण नहीं देता।

के 17 राज्यों में 241 नगरों का सर्वेक्षण किया है। इस सर्वे के मुताबिक सभी शहरों में 90 प्रतिशत जल प्रदूषण की समस्या है। बिहार में गया, जमुई, लक्खीसराय, बेगूसराय आदि जिलों के 46 गांवों के जल नमूनों की जांच की गई। इसमें 1.5 पीपीएम फ्लोराइड पाया गया, जो कि सामान्य से अधिक है।

पानी की बर्बादी

पटना की स्थिति

बिहार की राजधानी पटना में कुल 40 गंदी बस्तियां हैं। इन गंदी बस्तियों के दो तिहाई हिस्से में पानी की सुविधा तो है, लेकिन पानी की आपूर्ति तथा स्वच्छता असंतोषजनक स्थिति में है। पटना में शुद्ध भूजल 168 मीटर तक की गहराई में मिलता है। यहां नदी, तालाब एवं ऊपरी सतह का जल पीने के लायक नहीं रह गया है। दिलचस्प है कि पटना में पेयजल की आपूर्ति वर्ष 1918 के आसपास शुरू की गई थी। मौजूदा सदी के आरंभ में यह व्यवस्था 20 करोड़ लीटर प्रतिदिन की जल आपूर्ति तक जा पहुंच चुकी थी। पर इसके बाद जल प्रबंधन की खामियों के कारण इस क्षमता में अपेक्षित वृद्धि नहीं हो सकी। बताया जाता है कि एक हजार से ऊपर नलकूप बंद पड़े हैं। सरकार बंद राजकीय नलकूपों को सूखा से उत्पन्न स्थिति से लड़ने के लिए तैयार किए जाने का दावा हर वर्ष करती है, पर आखिरकार नाकामी ही हाथ आती है। आलम यह है कि राज्य के विभिन्न शहरों और उससे लगे क्षेत्रों में अक्सर प्रदूषित जलापूर्ति की शिकायतें अखबारों में छपती रहती हैं। जिस तरह से पानी के लिए पूरे राज्य में हाहाकार मचा है, उससे वह दिन दूर नहीं जब बिहार का नाम जल संकट से जूझ रहे अग्रणी सूबे में होने लगे।

दो लाख गांवों का रोना

केंद्रीय सांख्यकीय व कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय

इस परियोजना में मशीन स्थापित करने की लागत 20 लाख रुपए होगी, जिसमें फ्रांसीसी संगठन, सुलभ और ग्रामीणों की साझेदारी होगी के एक सर्वेक्षण के मुताबिक देश के एक लाख 74 हजार गांव में पीने का पानी उपलब्ध नहीं है। दो लाख गांव ऐसे हैं, जहां पानी की गुणवत्ता इतनी निम्न स्तर की है कि लोग विभिन्न बीमारियों से पीड़ित रहते हैं।

बड़ा निर्णय

स्वच्छता के बाद पेयजल संकट के क्षेत्र में सुलभ का आगे आना इस लिहाज से एक बड़ा निर्णय है, क्योंकि जल का संबंध स्वच्छता से तो है ही, स्वास्थ्य से भी यह सीधे तौर पर जुड़ा है। आलम यह है कि देश में सर्दियों में हालत कुछ सामान्य रहता है, लेकिन जैसे-जैसे गर्मियां आती हैं तो यह समस्या बढ़ने लगती है। इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि कभी दुनिया में सबसे ज्यादा बारिश वाली

जगह चेरापूंजी में भी अब लोगों को पीने के पानी के लिए तरसना पड़ता है। शिमला का जल संकट किस तरह पिछले दिनों चर्चा में रहा, उससे सब लोग परिचित हैं।

शहर और गांव दोनों संकटग्रस्त

विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक आंकड़े के मुताबिक भारत में लगभग 9.7 करोड़ लोगों को पीने का साफ पानी मयस्सर नहीं होता। दिलचस्प है कि यह आंकड़ा महज शहरी आबादी का है। ग्रामीण इलाकों की बात करें तो वहां 70 फीसदी लोग अब भी प्रदूषित पानी पीने को मजबूर हैं। अब जब 2028 तक आबादी के मामले में चीन को पछाड़ कर देश के पहले स्थान पर पहुंचने की बात कही जा रही है, यह समस्या और भयावह हो सकती है। एक ओर तो

इसी तरह शहरी इलाकों में भारी लागत से बने ट्रीटमेंट प्लांट होने के बावजूद वितरण नेटवर्क में गड़बड़ी के कारण रोजाना लाखों गैलन पानी बेकार हो जाता है। कोलकाता और मुंबई समेत कई महानगरों में यह समस्या आम है। पानी की कमी के चलते ही कई प्रदेशों की सरकारें इसकी कीमत बढ़ा रही हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक पानी की कमी की एक सबसे बड़ी वजह यह भी है कि जल संरक्षण की दिशा में अब तक कोई ठोस नीति नहीं बनाई है। इसके चलते बारिश का 65 फीसदी बह कर समुद्र में चला जाता है।

बढ़ानी होगी जागरुकता

जल संरक्षण के उपायों और जमीन में स्थित पानी के दोहन की नीति बनाकर इस समस्या पर काफी हद तक अंकुश लगाया जा सकता है। इस सिलसिले में वाटरमैन ऑफ इंडिया कहे जाने वाले राजेंद्र सिंह ने एक समाधानकारी रास्ता दिखाया है। उन्होंने अपने संगठन तरुण भारत संघ की सहायता से जल संरक्षण उपायों के जरिए राजस्थान के अलवर शहर की तस्वीर बदल दी है। खासकर शहरी इलाकों में जलाशयों को पाट कर ऊंची इमारतें खड़ी की जा रही हैं। इन पर रोक लगाना होगा ताकि बरसात का पानी इनमें जमा हो सके। इसके साथ ही लोगों में जागरुकता पैदा करनी होगी ताकि वे पानी बर्बाद न करें। ऐसा नहीं होने पर निकट भविष्य में पानी की एक-एक बूंद के लिए तरसना होगा।


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आवरण कथा

अगर सेवा भाव है तो आप गांधीवादी हैं : डॉ. पाठक

दिल्ली विश्वविद्यालय के गांधी भवन में गांधीवाद और स्वच्छता विषय पर सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक के विचारों से छात्रों का हुआ प्रेरक मार्गदर्शन

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संजय त्रिपाठी

धीवाद, गांधी के रहन-सहन, उनके खान-पान उनके पहनावे में नहीं है। गांधीवाद एक विचार है। अगर आपमें दूसरों प्रति सेवा का भाव है तो आप गांधीवादी हैं। अगर दूसरे की पीड़ा से आपको पीड़ा हो रही है तो आप गांधीवादी हैं। जो स्वयं को साफ रखता हो, अपने परिवेश को स्वच्छ रखता हो, वो गांधीवादी है, वह स्वच्छाग्रही है। अगर गांधी नहीं होते तो स्वच्छाग्रह का यह विषय लेकर मैं आज आप सबों के बीच नहीं होता।’ गांधी समृति और दर्शन समिति द्वारा दिल्ली विश्वविद्यालय के गांधी भवन में ‘इंडिया ऑफ माई ड्रीम’ विषय पर 9 जुलाई से 19 जुलाई तक आयोजित सेमिनार के तहत 17 जुलाई को स्वच्छाग्रह के संदर्भ में सुलभ के संस्थापक डॉ. विन्देश्वर पाठक ने गांधीवाद और

स्वच्छता जैसे विषय को कुछ इस सहज ढंग से रखा कि विश्वविद्यालय के युवा छात्र-छात्रओं में उनको सुनने की ललक जाग उठी। करीब डेढ़ घंटे के उनके भाषण में युवा श्रोता एकाग्रचित थे, उन सहज बातों को लेकर जो उनके दिलो दिमाग में उतर रही थीं।

कहा, ‘आज का दिन पवित्र है कि आज हमें डॉ. पाठक का सान्निध्य प्राप्त हुआ है। जब देश गांधी शताब्दी मनाने निकला तो एक युवक को एक बहुत बड़ा काम राष्ट्र ने दिया, गांधी परिवार ने दिया। एक शौचालय हमारे लिए आदर्श कैसे हो सकता है। सिर पर मैला ढोने वालों को इस कार्य से कैसे निकाला जा सकता है। इसके लिए डॉ. पाठक ने पिछले 50 वर्षों से जो तपस्या की, यह उसका ही परिणाम है कि आज सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा समाप्त हो गई और शौचालय हमारे लिए आदर्श हो गया। समतावादी समाज बनाने में डॉ. पाठक की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। उन्होंने कहा कि यह कैसी विडंबना है कि हमने एक जाति विशेष को सफाई का काम देकर पूरे समाज को अपंग बना दिया और साथ ही उसे अस्पृश्य बना दिया, जो हमारी गंदगी को साफ करते हैं। डॉ. पाठक ने उन्हीं अस्पृश्य लोगों को गले से लगाया और उन्हें समाज की मुख्यधारा से जोड़ने का काम किया है।

शौचालय बना आदर्श

गांधी और गीता

अपने छात्रों से डॉ. पाठक का परिचय कराते हुए गांधी भवन के निदेशक प्रो. रमेश सी. भारद्वाज ने

दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों को संबोधित करते हुए सुलभ के संस्थापक डॉ. विन्देश्वर पाठक ने

सुलभ की स्थापना के पूर्व जब मैं बिहार गांधी जन्म शताब्दी समारोह समिति से जुड़ा तो मुझे सिर पर मैला ढोने की प्रथा को कैसे समाप्त किया जाए, इसके लिए तीन महीने तक बेतिया के एक वाल्मीकि बस्ती में उनके बीच रहना पड़ा – डॉ. ​िवन्देश्वर पाठक

खास बातें गांधी भवन के निदेशक ने की डॉ. पाठक के कार्यों की सराहना सुलभ प्रणेता ने छात्रों को दी गीता पढ़ने की सलाह डॉ. पाठक के भाषण को छात्रों ने एकाग्रता के साथ सुना कहा कि गांधी का जीवन गीता के समान है। गांधी स्वयं गीता पढ़ते थे। उन्होंने कहा है कि जब उन्हें कोई चिंता होती थी तो वे गीता पढ़ते थे और उस चिंता का समाधान उन्हें गीता से मिल जाता था। मैं भी आपसे कहता हूं कि आप अभी युवा हैं, आप भी गीता जरूर पढ़ें। गांधी के सत्य का विषय, उनकी अहिंसा का विषय काफी बड़ा है, लेकिन मैं उसे कम बातों में आप तक पहुंचाने की कोशिश करूंगा। गांधी के मार्ग पर चलकर सुलभ ने इन वर्षों में जो किया है, उसे आप सबों तक पहुंचाने की मेरी कोशिश रहेगी।

मेरा गांधीवाद

सुलभ प्रणेता डॉ. पाठक ने कहा, ‘इस सभागार में


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सुलभ पर सबको विश्वास

ने कहा, ‘मैं डायबिटीज का मरीज प्रो. हूंभारद्वाज । मुझे बार-बार शौचालय जाना होता है और

वह मेरे लिए ‘सुलभ’ होता है, जहां मैं जाता हूं। मैंने वहां देखा कि जो केयरटेकर होते हैं वे अधिकांश ब्राह्मण ही होते हैं। मैं उनसे बात करता हूं और जब दो रुपया देने लगता हूं तो वे यह जान जाते हैं कि मैं डॉ. पाठक से परिचित हूं। वे पैसा लेने से इनकार करते हैं। मैं कहता हूं कि यह दो रुपया मेरे लिए शुल्क नहीं, एक अहम आंदोलन में मेरा योगदान है और मैं आपको बताऊं कि वह दो रुपया कितने लोगों की सहायता करता है। हमारे दिल्ली विश्वविद्यालय में 75 प्रतिशत सफाई का काम सुलभ ही करता है। क्योंकि सुलभ पर देश को विश्वास है।’ कुछ महिलाएं जो पीली साड़ी में बैठी हैं, ये वही महिलाएं हैं, जो वर्ष 2003 तक सिर पर मैला ढोने का काम करती थीं और आज स्वयं को ब्राह्मण कहती हैं। इनमें एक उषा शर्मा भी हैं, जो सुलभ की प्रेसिडेंट हैं। डॉ. पाठक ने उषा जी की दो तस्वीरें दिखाई। एक वर्ष 2003 की जब उषा चौमड़ सिर पर मैला ढोकर जाती दिख रही हैं और दूसरी तस्वीर 2015 की जिसमें उषा शर्मा भारत के प्रधानमंत्री माननीय श्री नरेंद्र मोदी के हाथों ‘सफाईगीरी’ का पुरस्कार लेते दिख रही हैं। यह पुरस्कार बनारस के अस्सी घाट की सफाई को लेकर मिला था। यह पुरस्कार मैं भी ले सकता था। मेरे लिए भी यह सौभाग्य कि बात होती कि देश के प्रधानमंत्री से मैं यह पुरस्कार लेता, लेकिन मैंने इसके लिए उषा जी को चुना और यही है मेरा गांधीवाद।’

गांधी मार्ग पर अडिग

सुलभ प्रणेता ने दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों के समझ अपनी भावप्रवण प्रेरक बातों का सिलसिला जारी रखते हुए आगे कहा, ‘सुलभ की स्थापना के पूर्व जब मैं बिहार गांधी जन्म शताब्दी समारोह समिति से जुड़ा तो मुझे सिर पर मैला ढोने की प्रथा को कैसे समाप्त किया जाए, इसके लिए तीन महीने तक बेतिया के एक वाल्मीकि बस्ती में उनके बीच रहना पड़ा। उनकी पीड़ा जानने के लिए मैंने दो दिन सिर पर मैला ढोने का काम किया। उस बस्ती के जो हालात थे, समाज में उनको लेकर छुआछूत की जिस तरह की कुप्रथा थी उन्हें देखकर मुझे बेहद पीड़ा हुई और मैंने निर्णय लिया कि इन्हें मैं इन लोगों को इस घृणित कार्य से मुक्त कराउंगा। घर के लोग और बाद में ससुराल से भी ताने मिलते रहे, लेकिन मैंने गांधी का रास्ता चुन लिया था और आज तक उसी रास्ते पर अडिग आस्था के साथ बढ़ रहा हूं।’

सुलभ तकनीक

डॉ. पाठक ने वहां उपस्थित सभी छात्र-छात्रओं

को सुलभ की सभी तकनीक से रूबरू करवाया। उन्होंने बताया कि किस तरह दो गड्ढों वाले सुलभ शौचालय की तकनीक को बीबीसी होराइजन्स ने आधुनिक विश्व के पांच महानतम आविष्कारों में से एक माना है। उन्होंने बताया कि सुलभ के सार्वजनिक शौचालयों से किस तरह बायोगैस का निर्माण कर हम उसका उपयोग करते हैं और किस तरह शौचालय के पानी को संशोधित कर उसे साफ किया जाता है। सुलभ प्रणेता की बातें छात्र न सिर्फ ध्यानपूर्व सुन रहे थे, बल्कि उनकी बातों से उके आगे गांधीवाद का एक सकर्मक रूप प्रकट हो रहा था।

विधवा माताओं की सुध

सुलभ प्रणेता डॉ. पाठक ने सुलभ के कल्याणकारी कार्यों का जिक्र करते हुए बताया कि वृंदावन और वाराणसी के आश्रमों में दयनीय स्थिति में रह रहीं विधवाओं की उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के कहने पर सुध ली। सुलभ ने न सिर्फ उन्हें सहूलियतें दी, बल्कि उनकी जिंदगी में होली और दीपावली जैसे त्योहारों की खुशियां लौटाई। आज उन्हीं आश्रमों में वे सभी पर्व और त्योहार मना रही हैं, जिनसे वे वंचित थीं।

सुलभ जल

सुलभ ने पश्चिम बंगाल के उन लोगों के दर्द को भी महसूस किया जो आर्सेनिक से प्रदूषित जल पीने से कई बीमारियों से त्रस्त थे। सुलभ ने वहां के तालाबों और कुएं के पानी को परिशोधित कर उन्हें 50 पैसे लीटर में सुलभ जल उपलब्ध कराया है।

जागरुकता की ‘उषा’

जाति परिवर्तन को लेकर एक छात्र ने प्रश्न किया कि क्या हम जाति प्रथा से ऊपर उठ सकते हैं? डॉ. पाठक ने श्रीमती उषा शर्मा को इसका जवाब देने को कहा। उषा जी ने कहा मैं वही उषा हूं जिसे भंगी, मेहतरानी और क्या-क्या नहीं कहा जाता था। क्योंकि हम वैसा काम करते थे। आज जब हम ब्राह्मणों वाली जिंदगी जी रहे हैं तो हम खुद को ब्राह्मण क्यों न कहें! उषा चौमड़ की जगह उषा शर्मा क्यों नहीं?

सीवर सिस्टम की खामी

अपने समापन भाषण में प्रो. रमेश सी. भारद्वाज ने कहा कि गांधी को जीना इसे ही कहते हैं, जो डॉ. पाठक जी रहे हैं। अभी सरकार गांवों के हर घर में शौचालय बनवा रही है। वो सुलभ तकनीक से न बनने की वजह से कितना कामयाब होगा उस पर मुझे शक है। सीवर सिस्टम भी इसका जवाब नहीं है। सुलभ तकनीक से हम मल का भी सदुपयोग कर सकते हैं।

पुस्तकों की भेंट

कार्यक्रम के अंत में डॉ. विन्देश्वर पाठक ने गांधी भवन की लाइब्रेरी के लिए माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी पर केंद्रित अपनी दो पुस्तक ‘द मेकिंग ऑफ ए लीजेंड नरेंद्र दामोदर दास मोदी’, ‘फुलफिलिंग बापू’ज ड्रीम्स’ और महात्मा गांधी के चित्रों पर आधारित पुस्तक प्रो. भारद्वाज को भेंट की। इसके बाद सभी छात्रों ने भवन के कैंपस में डॉ. पाठक के साथ अपनी सेल्फी ली, अपनी तस्वीरें उतरवाईं।


23 - 29 जुलाई 2018

पारुलबाला घोष

वृंदावन ने समझाया जीवन का मर्म कुछ लोगों का जीवन सिर्फ दर्द को झेल ने के लिए होता है, शायद पारुल उन्हीं में से एक हैं, जिन्हों ने अपनी जिंदगी में पति से लेकर बेटों तक, सबको खो दिया

दु

अयोध्या प्रसाद सिंह

ष्यंत कुमार ने कभी लिखा था, ‘दुःख को बहुत सहेज के रखना पड़ा हमें, सुख तो किसी कपूर की टिकिया सा उड़ गया।’ पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता की रहने वाली पारुलबाला घोष की कहानी कुछ ऐसी ही है। उनकी जिंदगी में दुख ने कुछ इस तरह जगह बनाई कि जैसे उनकी नसों में खून नहीं, दुख बहता हो। लेकिन कान्हा और राधा की नगरी न सिर्फ उनके दुखों को भर रही है, बल्कि उन्हें सच्चे जीवन का मर्म भी समझा रही है। पारुल 16 साल की थीं, जब उनकी शादी 20 साल की उम्र के एक व्यक्ति से हो गई। उसका पति एक कारखाने में काम करता था। उसकी आमदनी बहुत ज्यादा तो नहीं थी, लेकिन खुशहाल जीवन की नाव, इस सांसारिक सागर में आसानी से तैर सके, इतनी जरुर थी। दोनों पति-पत्नी मिलकर एक खूबसूरत जीवन के सपने संजोते हुए, आगे बढ़ रहे थे। इस बीच पारुल ने 2 लड़कों और एक प्यारी सी बेटी को जन्म दिया। दोनों का पालन-पोषण बहुत बहुत प्यार से किया। जब बच्चे बड़े हो गए,

खास बातें पश्चिम बंगाल के कोलकाता की रहने वाली हैं पारुल घोष 16 वर्ष की उम्र में पारुल की शादी हो गई ​थी पारुल के पति, बेटे, भाई सबकी मौत उनके सामने ही हुई

तो उनकी शादी भी अपनी क्षमता के अनुसार धूमधाम से की। लेकिन जिंदगी उतनी आसान कभी नहीं होती, जितनी दिखाई देती है। पारुल की जिंदगी में भी दुखों का वो पहाड़ आने वाला था, जिसके बोझ के तले वो शायद हमेशा के लिए दबने वाली थी। दुखों की वह श्रृंखला जो उसके हंसमुख जीवन को आत्मकेंद्रित और घुटन से भरा बनाने वाली थी। एक दिन सुबह के वक्त अचानक ह्रदयाघात ने उसके पति की जिंदगी को छीन लिया। हमेशा हंसी का दामन थामे रहने वाली, पारुल के जीवन में एक पल में ही सब कुछ बदल गया। अब वैधव्य की सफेद चादर में, उसकी जिंदगी सिमट चुकी थी। उसे रंगों की चमक का परित्याग करना पड़ा। खुद को एक अधिकारविहीन प्रतिमूर्ति तक सीमित रखना था। लेकिन जिंदगी सिर्फ इसी सितम तक रुकने वाली नहीं थी। अभी तो और बड़ा तूफान, उसकी नाव को जीवन के भवसागर में उफनती लहरों पर धकेलने वाला था। पारुल के छोटे बेटे जिसको शुगर की बीमारी थी, अचानक मौत हो गई। पारुल का जीवन जो पहले ही पति की मौत से बेजार हो चुका था, अपने बेटे की मौत से अत्यधिक विचलित हो गया। लेकिन इससे पहले कि इन दोनों दुखों को वह समेट पाती, उनके बड़े बेटे की भी स्ट्रोक से मौत हो गई। जीवन अब भीषण त्रासदी में बदल चुका था। अपना तो वैधव्य से भरा जीवन था ही, अब अपनी आंखो के सामने, अपनी बहुओं को, इसी वैधव्य के सफेद रंग में देखना, शायद पारुल के लिए इस पूरी दुनिया का सबसे बड़ा दर्द था। पारुल भावुक होकर कहती हैं, “भगवान कभी-कभी हमारी बहुत कठिन परीक्षा लेता है, शायद मेरे साथ भी यही हो

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जेंडर

रहा था। मैं किसी भी मोड़ पर संभल पाती, इससे पहले ही मुझे दुखों के थपेड़े मिलते गए। मुझे ऐसा लगने लगा था कि शायद मैं सिर्फ त्रासदियों को झेलने के लिए पैदा हुई हूं। मैं अपनी बहुओं के चेहरों को जब देखती थी, तो अहसास होता था कि मैं इस दुनिया की सबसे बुरी औरत हूं, जिसके पास न उसका पति है और न उसके बेटे।” पारुल बताती हैं कि इन घटनाओं के बाद वह बिलकुल जड़ बन चुकी थीं। यहां तक कि उसी बीच उनके दोनों भाइयों की भी मौत हो गई, लेकिन उसके लिए अब यह बात सामान्य हो चुकी थी। पति और दोनों बेटों की मौत के बाद भाइयों का न रहना, उनके लिए असहनीय था, लेकिन वह अब इसे अपनी जिंदगी का हिस्सा मान चुकी थीं, जहां सिर्फ दर्द भरी विभीषिकाएं हैं, कोई सुख और अमन नहीं। जीवन से सब कुछ हारकर, वह एक साल पहले शांति की तलाश में वृंदावन आईं और यहां

मां शारदा आश्रम में रहने लगीं। भजन करते हुए राधा-रानी के मंदिरों में भटकने लगीं। उन्हें तलाश थी कि शायद कान्हा की भक्ति उन्हें इस दर्द से मुक्ति दिलाकर उनके अंतर्मन को शांति दिला सके और जो बेचैनी दशकों पहले उनके मन में घर कर गई है, वो बाहर निकल सके। कहते हैं कि भगवान के घर देर है अंधेर नहीं, भगवान जब दुःख देता है तो उसे सहने की इच्छाशक्ति भी देता है। पारुल को भी वो शांति और इच्छाशक्ति वृंदावन में आखिरकार मिल गई। राधारानी की भक्ति ने धीरे-धीरे उनके मन से विकारों को खत्म कर दिया और उसे शांति और संतुष्टि के भावों से भर दिया। उसकी जिंदगी में विधवा संताप और बेटे को खोने के दर्द ने जो अधूरापन छोड़ा था, उसे वृंदावन ने जीवन के सच्चे अर्थों से पूरा कर दिया। पारुल की बहू बंगाल में गांव में ही रहती है और स्वस्थ नहीं है, लेकिन उन्हें भरोसा है कि राधा-रानी सब ठीक कर देंगी । पारुल जिस विधवा आश्रम में रहती है, वहां रहने वाली समस्त विधवा माताओं को अब सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गनाइजेशन द्वारा कई प्रकार की सुविधाएं प्रदान की जाती हैं। सुबहशाम राधा-कृष्ण का नाम जपते हुए, वह जीवन की सुंदर यादों में खोई रहती है। पारुल कहती हैं, “लाल बाबा (डॉ. विन्देश्वर पाठक) सिर्फ हमारी सहायता नहीं करते, बल्कि हमारे साथ सभी त्योहारों में शरीक होते हैं और हमें यह अहसास दिलाते हैं कि हमारा भी परिवार है।” पारुल एक खूबसूरत सी मुस्कान चेहरे पर बिखेरते हुए कहती हैं कि मैं वृंदावन में शांति के लिए आई थी, लेकिन मुझे सांसारिक जीवन के साथ सच्चे जीवन का मर्म भी यहां मिल गया। ‘सब यहीं रह जाएगा, सिर्फ आपका भक्तिभाव ही आपके साथ जाएगा।’

‘मेरे ऊपर दुखों का जो पहाड़ टूटा था, उसके बाद मैं सब कुछ हार चुकी थी। वृंदावन शांति की आस में आई थी, लेकिन यहां मुझे सांसारिक जीवन के साथ सच्चे जीवन का मर्म भी मिल गया’


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व्यक्तित्व

23 - 29 जुलाई 2018

स्त्री संघर्ष का घोषणापत्र

सीमोन द बोउवार

स्त्री संघर्ष की आधुनिक सैद्धांतिकी लिखने वाली सीमोन द बोउवार का जीवन एक आधुनिक स्त्री के आत्मबल के साथ उसकी चुनौतियों का प्रेरक आख्यान है

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एसएसबी ब्यूरो

वीं शती के उत्तरार्ध आते-आते दुनिया में विचार से लेकर शासन तंत्र तक बहुत कुछ बदलने लगे। यह बदलाव इसीलिए भी अहम था, क्योंकि इससे पहले दुनिया जहां एक तरफ दो-दो विश्वयुद्धों की विभिषिका झेल चुकी थी, वहीं साम्राज्यवादी दौर की दासता ने जिस तरह दुनिया भर में मानवीय अस्मिता के साथ खिलवाड़ देखा, उसका प्रतिख्यान भी जरूरी था। राष्ट्र के साथ व्यक्ति और विचार की स्वाधीनता के इस दौर में कई ऐसे कार्य हुए जिससे विमर्श के कई सूत्र विकसित हुए। इस लिहाज से एक बड़ा नाम है महान विचारक और लेखिका सीमोन द बोउवार का।

‘द सेकेंड सेक्स’

सीमोन ने 1947 में एक पुस्तक पर काम करना शुरू किया जो 1949 में ‘द सेकेंड सेक्स’ के नाम से पूरा हुआ। और इस तरह सामने आई पूरी दुनिया में महिला अस्मिता और उसके लिए संघर्ष की एक पूरी

सैद्धांतिकी । यह जिक्र और संदर्भ इसीलिए कि इसके साथ दो बातें एक साथ साफ होती हैं। एक तो यह कि भारत जब आजाद हुआ तो उसी के साथ दुनिया में एक विचार ने भी आजाद होने की स्वघोषणा कर दी। यह विचार स्त्री और पुरुष को प्राकृतिक रूप से ही भिन्न और गैरबराबर बताने की आग्रही सोच को तार्किक रूप से ध्वस्त करने वाला था। इसने सेक्स और जेंडर के बीच एक बड़ी लकीर खींच दी और इसी के साथ उन तमाम सवालों और संघर्षों को

खास बातें

सीमोन ने महिला अस्मिता और संघर्ष की नई सैद्धांतिकी प्रस्तुत की सीमोन से स्त्रीवाद को वैचारिक रूप में देखने का नजरिया मिला आत्मकथाओं में सीमोन ने काफी बेबाकी का परिचय दिया है

महिलाओं की दुनिया में बड़े मायने मिल गए जो अब तक या ‘द से क ड ें से क्स ’ का बदलाव की दरकार अब भी पूरी तो घर-परिवारों की देहरी के भीतर दम तोड़ रहे थे या फिर शिविरहिंदी अनुवाद वरिष्ठ होनी बाकी है और जो स्थितियां हैं उनमें इनके पूरा होने के निकट सेमिनारों में जिसे महज एक लेखिका प्रभा खेतान भविष्य में आसार भी बहुत कम वैचारिक सनक ठहराया जाता था। ने ‘स्त्री उपेक्षिता’ नजर आ रहे हैं। ‘द सेकेंड सेक्स’ का हिंदी अनुवाद वरिष्ठ लेखिका प्रभा नाम से किया है स्त्रीवाद का नया नजरिया खेतान ने ‘स्त्री उपेक्षिता’ नाम सीमोन को पढ़ना एक ऐसे अनुभव से किया है। सीमोन के बारे में बात करते हुए प्रभा कहती हैं, ‘हमें बड़ी उदारता से लोक से गुजरना है, जिसके कारण बीसवीं शती के सामान्य स्त्री और उसके परिवेश के बारे में सोचना विचारक और पाठक बड़े पैमाने पर उसकी ओर होगा। सीमोन ने उन्हीं के लिए इस पुस्तक में लिखा है आकर्षित हुए थे। उनकी आत्मकथाओं और उपन्यास और उन्हीं से उनका संवाद है... विशिष्टों या अपवादों पढ़ते हुए दुनिया भर को स्त्री वाद को वैचारिक और राजनीतिक आंदोलन के तौर पर देखने का नजरिया से नहीं।’ सीमोन को ही आगे करके अगर समकालीन मिला। जहां ‘द सेकेंड सेक्स’ मनुष्य की स्वतंत्रता की महिलावादी संघर्ष का सबसे बड़ा उत्स हम तलाशें और मनुष्य के रूप में स्त्री की पराधीनता के कारणों तो कालावधि के हिसाब से यह बीसवीं सदी के मध्य की पड़ताल करता है, वहीं सीमोन की आत्मकथाएं माना जा सकता है। तब से अब तक की करीब छह यह बताने में कारगर रहीं कि स्त्री स्वाधीनता कैसे दशक लंबी यात्रा की सबसे बड़ी उपलब्धि यही रही पाई जा सकती है। यानी ‘द सेकेंड सेक्स’ स्त्रीवाद के कि अब महिला अस्मिता और संघर्ष के मुद्दों को जिस सैद्धांतिक पक्ष को प्रस्तुत करता है, वहीं सीमोन साहित्य से लेकर कानून तक मान्यता मिलनी शुरू की आत्म‍कथाएं स्त्रीवाद का व्यावहारिक रूप प्रस्तुत हो गई है और इनके आधार पर सार्वजनिक दुनिया करती हैं। हालांकि बोउवार का कहना है कि उन्होंने में आधी दुनिया की मुकम्मल आवाजें मजबूती से पहले आत्मकथा लिखना शुरू किया, बाद में ‘द उठनी शुरू हो गई हैं। पर इस उपलब्धि से आगे सेकेंड सेक्स’ लिखा।


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सार्त्र और सीमोन का साथ

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व्यक्तित्व

सीमोननामा पूरा नाम : सीमोन लुसी अर्न्सटीन मेरी बर्त्रां द बोउवार जन्म : 9 जनवरी 1908 (पेरिस, फ्रांस) मृत्यु : 14 अप्रैल 1986 (उम्र 78) पेरिस, फ्रांस

सा

र्त्र के बारे में सीमोन ने लिखा है कि उनके पास बहुत कम धन था, लेकिन बेपरवाही उनके स्वभाव में थी। उनके साथ लंबी सैरों में विचारोत्ते​ेजक बहसें हुआ करतीं– ‘ऐसा कभी-कभी ही होता था कि मैं रात के दो बजे से पहले सोने जाती, इसीलिए पूरा दिन जल्दी ही बीत जाता था, क्योंकि मैं सोई होती थी।’ सार्त्र की पहल पर वे दोनों एक दीर्घकालिक संबंध के लिए राजी हुए, जिसमें दूसरों के लिए भी जगह होनी थी। वे दोनों एकदूसरे को हर बात बताएंगे, कुछ छिपाएंगे नहीं और ईमानदार संबंध बनाएंगे। बाद में सार्त्र ने सीमोन से विवाह का प्रस्ताव किया ताकि दोनों की नियुक्ति एक ही शहर में हो जाए, लेकिन सीमोन का निर्णय अटल था कि वह कभी बच्चे पैदा नहीं करेगी।

कई आत्मकथाएं

‘वान्टिंग टू टॉक अबाउट माइसेल्फ’ में उनका कहना है, ‘मुझे यह बात अच्छी तरह मालूम हो गई थी कि पहले सामान्य तौर पर स्त्रियों की स्थिति के बारे में बात करनी चाहिए।’ उनकी आत्मकथाएं ‘मेमोआयर्स ऑफ ए ड्यूटीफुल डॉटर’, ‘द प्राइम ऑफ लाइफ’, ‘फोर्स ऑफ सरकमस्टासेंज’ तथा ‘ऑल सेड एंड डन’ और उपन्यास ‘शी केम टू स्टे’ और ‘द मेंडारिंस’ हमारे लिए नए दौर के स्त्रीवादी चेहरे को पहचानने में निर्देशिका का काम करते हैं। इनमें एक बौद्धिक के रूप में, एक लेखक के रूप में, एक स्त्री की दृष्टि से लिखे विस्तृत ब्योरे मिलते हैं। इनमें व्यक्त सीमोन का जीवन इसका उदाहरण है कि हम चाहे भारतीय हों या यूरोपीय, अपने माता-पिता की पीढ़ी से अलग अपने आसपास के समाज को देखते और समझते हुए कैसे जी सकते हैं। फोकाल्टप के शब्दों में कहें तो 'द यूज ऑफ प्लेजर' और 'द केयर ऑफ द सेल्फ', जिससे मिल कर ही आत्मनिर्भरता की अवधारणा बनती है, को सीमोन के साहित्य में देखा जा सकता है। सीमोन की आत्मकथाओं से होकर गुजरना दिलचस्प और ईमानदार अनुभव है। ‘मेमायर्स ऑफ ए ड्यूटीफुल डॉटर’ में विश्वाविद्यालय में पढ़ने के

विवाह संस्था में उसकी गहरी अनास्था थी। उसने सार्त्र के साथ बहुत-सी चीजें, संवेदनाएं बांटीं, लेकिन स्वतंत्रता के मायने दोनों के लिए अलग-अलग थे। सीमोन के लिए जो स्वाधीनता थी, वह सार्त्र के लिए उबाऊ कर्त्तव्य था। सीमोन ने लिखा – ‘अद्भुत थी स्वाधीनता! मैं अपने अतीत से मुक्ति हो गई थी और स्वयं में परिपूर्ण और दृढ़निश्चयी अनुभव करती थी। मैंने अपनी सत्ता एक बार में ही स्थापित कर ली थी, उससे मुझे अब कोई वंचित नहीं कर सकता था। दूसरी ओर सार्त्र एक पुरुष होने के नाते बमुश्किल ही किसी ऐसी स्थिति में पहुंचे थे, जिसके बारे में उसने बहुत दिन पहले कल्पना की हो... वह वयस्कों के उस संसार में प्रविष्ट हो रहे थे, जिससे उसे हमेशा से घृणा थी।’ दौरान ‘पुरुष की तरह दिमाग होने की’ इच्छा को अभिव्यक्त करते हुए वह अपनी तुलना सार्त्र से करती हैं और इस निष्कर्ष पर पहुंचती हैं कि स्त्री के लिए पुरुष जैसी सोच होना संभव नहीं है। इसी तरह ‘प्राइम ऑफ लाइफ’ में उन्होंने अपने होटलों में रहने, एक के बाद दूसरा होटल बदलने का जिक्र किया है, जिन अनुभवों से गुजरते हुए लगता है कि सीमोन कैसे अपनी आर्थिक स्थिति का प्रबंधन करती होगी। यह भी कि होटलों में रहने का अर्थ हुआ कि आप हमेशा मेहमान हैं- बिस्तर, परदे, कुर्सी-टेबल कुछ भी आपका अपना नहीं। सीमोन के अनुभव पढ़ते हुए पाठक सीखता है कि कैफेटेरिया में कैसे बैठना चाहिए, लोगों से कैसे मिलना चाहिए, बहसें, पढ़ना-लिखना और सोचने का सलीका भी। सीमोन कहती हैं कि कैफे में घुसते हुए यदि आप अपने ही दो आत्मीय मित्रों को आपस में बात करते हुए देखें तो उनके निकट बैठकर बातचीत में बाधा न डालें, बेहतर हो कि चुपचाप वहां से हट जाएं।

एल्ग्रेन का साथ

‘फोर्स ऑफ सरकमस्टांसेज’ में सीमोन ने युद्धोत्तर पेरिस का चित्रण किया है, जिसमें नए और बेहतर

प्रसिद्धि प्रख्यात फ्रांसीसी लेखिका और दार्शनिक। ‘द सेकेंड सेक्स’ (जून,1949) जैसी कालजयी पुस्तक की रचना। उनका कहना था स्त्री पैदा नहीं होती, उसे बनाया जाता है। सीमोन का मानना था कि स्त्रियोचित गुण दरअसल समाज व परिवार द्वारा लड़की में भरे जाते हैं। क्योंकि वह भी वैसे ही जन्म लेती है जैसे कि पुरुष और उसमें भी वे सभी क्षमताएं, इच्छाएं, गुण होते हैं जो कि किसी लड़के में। 1970 में फ्रांस के स्त्री मुक्ति आंदोलन में सीमोन ने भागीदारी की। स्त्री-अधिकारों सहित तमाम सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर सीमोन की भागीदारी समय-समय पर होती रही। सार्त्र से अभिन्नता दर्शनशास्त्र, राजनीति और सामाजिक मुद्दे उनके पसंदीदा विषय थे। दर्शन की पढ़ाई करने के लिए उन्होंने पेरिस विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया, जहां उनकी भेंट बुद्धिजीवी ज्यां पॉल सा‌र्त्र से हुई। बाद में यह बौद्धिक संबंध आजीवन चला। 1971 का समय उनके लिए समाज के निर्माण का स्वप्न‍ है। स्वतंत्रता के प्रति उत्तरदायित्व का बोध है। आत्मकथा के इसी भाग में नेल्सन एल्ग्रेन के साथ संबंध की चर्चा है। इसमें इस संबंध की आत्मीयता के साथ बाद में पेरिस और शिकागो में दोनों का अलग-अलग जीवन बिताने का भी वर्णन है। भौगोलिक दूरी के कारण कैसे इस आत्मीय संबंध का अंत हुआ, यह भी कि लिखने के लिए सीमोन ने पेरिस छोड़ना पसंद नहीं किया और इसके साथ ही बोउवार की उत्तार अफ्रीका, अमेरिका की वे लंबी यात्राएं जो उसने अकेले कीं... का हवाला बहुत पारदर्शी तरीके से सीमोन ने लिपिबद्ध किया है।

‘ऑल सेड एंड डन’

एक जगह सीमोन ने यह भी लिखा कि इतने सारे व्यापक जीवनानुभव, जीवन-यात्राएं ये सब उसके साथ ही खत्म हो जाएंगे। वह उन पत्रों का भी उल्लेख करती हैं, जो जीवन के उत्तरार्ध में, दुनिया के अलग-अलग देशों की स्त्रियों ने उसे लिखे हैं। ‘ऑल सेड एंड डन’ में अपने मित्र सिल्वि बॉन के साथ आत्मीय संपर्क के विषय में उसका कहना है कि उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि उम्र के साठवें वर्ष में उसे कोई सहयोगी और मित्र मिलेगा,

परेशानियों भरा था। सा‌र्त्र दृष्टिहीन हो गए थे। 1980 में सा‌र्त्र का देहांत हो गया। 1985-86 में सीमोन का स्वास्थ्य भी बहुत गिर गया था। निमोनिया या फिर पल्मोनरी एडोमा में खराबी के चलते उनका देहांत हो गया। सा‌र्त्र की कब्र के बगल में ही उन्हें भी दफनाया गया। प्रमुख पुस्तकें • द सेकेंड सेक्स • द मेंडारिंस • ऑल मेन आर मोर्टल • ऑल सेड एंड डन • द ब्लड ऑफ अदर्स • द कमिंग ऑफ एज • द एथिक्स ऑफ एम्बिगुइटी • सी केम टू स्टे • ए वेरी ईजी डेथ • वेन थिंग्स ऑफ द स्पिरिट कम फर्स्ट • विटनेस टू माइ लाइफ • वूमन डिस्ट्रॉयड लेकिन मिला। इन आत्मकथाओं में सबसे महत्वपूर्ण दो बातें उभर कर सामने आती हैं, या यों कह लें कि आत्मकथाएं समग्र रूप से दो बातों पर केंद्रित हैं- एक तो आत्मनिर्भरता, अपनी जिम्मेदारी स्वयं उठाना और दूसरे, अपने को हमेशा बेहतर ढंग से समझने का प्रयास।

‘प्राइम ऑफ लाइफ’

‘प्राइम ऑफ लाइफ’ में सीमोन के जीवन का वह कालखंड केंद्र में हैं, जब वह माता-पिता का घर छोड़ कर अपना वयस्क जीवन प्रारंभ करती हैं। इसमें वह अपने उस कमरे का चित्रण करती है, जो पेरिस में अपनी दादी के मकान में उसे रहने के लिए मिला, जहां अति साधारण किस्म का फर्नीचर है, नारंगी कागजों से दीवारें ढकी हैं, दीवान और किरोसीन का हीटर है। पैसे बचाने के लिए सस्ता भोजन करती हैं। सबसे दिलचस्प बात जो वह लिखती हैं, ‘कपड़ों और प्रसाधन में मेरी अतिरिक्त रुचि कभी नहीं रही और अपने को सजाने में कभी आनंद नहीं आया। मैंने अपनी रुचि के अनुसार पूरे जीवन ऊनी या सूती फ्रॉक पहना। ...मैं हमेशा एक जैसे कपड़े पहना करती और इसे मैं आत्म नियंत्रण से जोड़कर देखती हूं।’।


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कृषि

23 - 29 जुलाई 2018

खास बातें 'नाइरीता' की स्थापना गांधी जी के अंत्योदय के सिद्धांत पर की गई

भुंगरू का जादू

बिप्लब और तृप्ति ने मिलकर गुजरात में आरंभ किया कार्य जलवायु संकट से उपजी समस्या के समाधान में जुटे हैं दोनों

जिद रंग लाती है। बिप्लब पॉल और तृप्ति जैन ने यह सबक किसानों के हित में काम करते हुए सीखा। 2011 में, उन्होंने नाइरीता सर्विसेज के नाम से एक सामाजिक उद्यम बनाया। यह उद्यम एक खोखले पाइप जिसे भुंगरू कहते हैं, उसके जरिए सूखे और बाढ़ से प्रभावित किसानों की समस्या का स्थायी समाधान मुहैया कराता है। भुंगरू तकनीक जल प्रबंधन का बहुत पुराना तरीका है, यह बारिश के पानी को छान कर जमीन के भीतर प्रवेश करा देता है, इससे जमीन के भीतर खूब पानी जमा हो जाता है जो सुखाड़ के दौरान काम आता है

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नीलिमा पाठक

प्लब और तृप्ति ने गांधीजी की उस धारणा का अनुसरण किया जो कहती है कि स्थानीय स्तर का कौशल और सामग्री ही ग्राम स्वराज की रीढ़ बन सकती है। पूरी तकनीक को उन लोगों द्वारा संचालित किया जाना चाहिए जो वैज्ञानिक सिद्धांतों का निचोड़ नहीं जानते हैं। इसके मद्देनजर उन दोनों ने तय किया कि अत्यंत निर्धन और बेहद छोटे किसान न केवल कार्यप्रक्रिया में, बल्कि रखरखाव के मामले में भी आत्मनिर्भर बनाया जाए 'नाइरीता', मुकामी बोली में इसका मतलब है, 'बादल जो वर्षा लाता है'। इसकी स्थापना महात्मा गांधी के द्वारा दिए गए अंत्योदय के सिद्धांत पर की गई है। इसमें समाज अपने सामूहिक प्रयास के जरिए सबसे कमजोर और बेहद गरीब लोगों की देखभाल , बचाव और उनकी सहायता करता है। समावेशी विकास के इस सिद्धांत से प्रेरित बिप्लब और तृप्ति दंपति ने किसानों, महिलाओं, छोटे किसानों और युवाओं के साथ काम किया। अभियान का लक्ष्य जलवायु परिवर्तन और खाद्य सुरक्षा के संदर्भ में

उन्हें शिक्षित करने के बाद जल प्रबंधन के ज्ञान और कौशल से लैस करना था। बिप्लब और तृप्ति ने गांधीजी की उस धारणा का अनुसरण किया जो कहती है कि स्थानीय स्तर का कौशल और सामग्री ही ग्राम स्वराज की रीढ़ बन सकती है। पूरी तकनीक को उन लोगों द्वारा संचालित किया जाना चाहिए जो वैज्ञानिक सिद्धांतों का निचोड़ नहीं जानते हैं। इसके मद्देनजर उन दोनों ने तय किया कि अत्यंत निर्धन और बेहद छोटे किसानाें को न केवल कार्यप्रक्रिया में, बल्कि रखरखाव के मामले में भी आत्मनिर्भर बनाए जाएं।

शुरुआत

बिप्लब जो पश्चिम बंगाल के रहने वाले हैं, 1995 में गुजरात आ कर अहमदाबाद में बस गए और

पर्यावरण शिक्षा के बारे में पढाई की। एक गैर सरकारी संगठन के सदस्य के बतौर वे ग्रामीण गुजरात में घूमे और किसानों से जुड़े पानी के मसलों को खोजा तथा समझा कि ज्यादा खारेपन के चलते किसानों की जमीनों पर कैसा असर पड़ा है। बिप्लब ने पता लगाया कि चूंकि यह रेगिस्तानी क्षेत्रों के बहुत करीब है, सो इस इलाके में नमक का इकट्ठा हो जाना बहुत आम है। मानसून के दौरान किसान फसलों को नहीं उगा सकते थे। भले ही उनके पास खेत थे, लेकिन सिंचाई सुविधाओं की कमी के चलते वे उस में खेती नहीं कर सकते थे।, इसी बीच एनवाएरनमेंटल इंजीनियर तृप्ति यह देख रहीं थीं कि गर्मी आने के दौर में किसान किस तरह के खौफ से गुजरते हैं। एक और संकट भरा साल- झुलसी हुई धरती और बर्बाद फसल।

अपने हाथों में इस कामकाज की पूरी कमान लेने के बाद महिलाओं ने इस तकनीक में शामिल इंजीनियरिंग अवधारणाओं में महारत हासिल कर लिया और फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा

तृप्ति ने बताया, ‘गुजरात के साथ साथ महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश जैसे धूल भरे गर्म सूबों में जहां तापमान 40 डिग्री से अधिक तक चला जाता है, खासी कम बारिश होती है, गंभीर जल संकट पैदा हो जाता है। सूबा सूखाग्रस्त हो जाता है। फिर जब मानसून आता है, खेतिहरों के खेत पानी से भर जाते हैं। दोनों विपरीत परिस्थितियां बेहद नुकसानदेह हैं,खासतौर पर गरीबों और उन परिवारों के लिए जो महिलाओं पर अधिक निर्भर हैं। भोजन के अभाव में ये एक दुष्चक्र में फंस जाते हैं और मजबूर हो कर परिवार के साथ शहर की ओर पलायन कर जाते हैं जहां वे बनते मकानों में बतौर मजदूर काम करते हैं। इस तरह, इनमें से अधिकतर किसान फसल गंवा कर निर्धन रह जाते हैं।’ तृप्ति का विकास कार्य दक्षिण पूर्व एशिया और अफ्रीका के कई देशों में चल रहा है। तृप्ति का कहना है कि, ‘मेरा उद्देश्य जलवायु संकट से उपजी किसानों की समस्यायों को हल करने के साथ उन्हें कर्ज, गरीबी और असुरक्षा से बचाने का था।’ गांव की औरतों को अपनी जरूरतों को पूरी करने के लिए संघर्ष करते देख तृप्ति ने अपनी सरकारी नौकरी को तिलांजलि दे दी और अपने पति बिप्लब का हाथ बंटाने लगी। दोनों ने मिलकर किसानों के दर्द की दवा तलाशने का फैसला किया। इससे भुंगरू की खोज हुई। इकट्ठा और बेकार रुके हुए पानी को जमीन के भीतर इकट्ठा करने और जब पानी की कमी हो जाए तो इसे निकाल कर इस्तेमाल करने की युक्ति बिप्लब के दिमाग में आई। बिप्लब का विज्ञान से कोई वास्ता न था सो उन्हें इसके विकास के रास्ते में कई रुकावटें झेलनी पड़ी। इन बाधाओं में सबसे बड़ी बाधा तो तकनीकि से बहुत दूरी बनाए रखने वाले किसानों को इस अन्वेषण या खोज को इस्तेमाल करने के बारे में समझाना और राजी करना था।

कैसे बना था भुंगरू

बिप्लब इसे समझाते हैं, ‘मैंने पीवीसी पाइप और खोदने के लिए ड्रिलिंग उपकरण समेत सभी चीजें यहीं से लीं। पारंपरिक तौर पर भुंगरू उस फुंकनी की तरह है जिसका इस्तेमाल औरतें खाना पकाते समय लकड़ी वाले चूल्हे के फीतर फूंक मारने के लिए करती हैं। इसका इस्तेमाल गांवों, छोटे शहरों और शहरी झोपड़ पट्टियों में आम है। जिन खेतों में पानी इकट्ठा होता है उनमें इस तरह के पाइप को 1 वर्ग


23 - 29 जुलाई 2018

हो या खेती किसानी की पारंपरिक जानकारी अथवा फसलों को उपजाने में, इन सबका महत्वपूर्ण हिस्सा होने के बावजूद समाज द्वारा उन्हें अपेक्षित मान्यता नहीं मिलती है। वे दावा करती हैं, "मेरा लक्ष्य अब महिलाओं को सशक्त बना कर उनके योगदान को मान्यता दिलाना है। हमने साधनहीन किसानों को आत्मनिर्भर बनते देखा है।"

कई राज्यों को मिला है फायदा

मीटर के क्षेत्र की दूरी पर 60-110 फीट की गहराई तक ड्रिल किया जाता है। यह तरीका बारिश के दौरान जमा हुए पानी को जमीन के भीतर पहुंचा देता है और पानी लगने के समस्या से निजात दिला देता है। इसके अलावा, जैसे ही बारिश का ताजा पानी जमीन में जाता है और खारे भूजल के साथ मिलता है, जमीन का खारापन कुछ कम हो जाता है।’ बिप्लब ने बताया, ‘भुंगरू का आविष्कार 2001 में हुआ था और इसको विकसित करने या बनाने में 77 लाख रूपए लगे। 2002 में इसकी पहली इकाई गुजरात के पाटन जिले में स्थापित की गई थी। यह छोटी जोत वाले किसानों के लिए उस समय बहुत मददगार है जब पानी का अभाव होता है और उन्हें सिंचाई की बहुत जरूरत होती है।’ एक भुंगरू 4 हजार से 4 लाख लीटर पानी को समो कर रख सकता है और केवल एक वर्ग मीटर की सतह की ही जगह लेता है। उथले ट्यूबवेल्स जो जमीन के भीतर के उस पानी का इस्तेमाल करते हैं जो जल्द खत्म हो सकता है उसके उलट यह वही पानी प्रयोग करता है जो इसमें इकट्ठा किया गया होता है। एक इकाई में संग्रहीत जल 30 वर्षों तक 22 एकड़ जमीन की सिंचाई कर सकता है। हर साल महज 10 दिनों के दौरान इकट्ठा किया गया यह पानी सात महीने से ज्यादा समय तक जलापूर्ति कर सकता है। इस प्रकार, यह तरीका किसानों को सालो भर खेती करने की आजादी देता है बनिस्पत इसके कि वे वर्ष भर में केवल एक फसल लें। सर्दियों में पानी खींचने के लिए डीजल पंप का उपयोग किया जाता है। इस प्रौद्योगिकी ने किसानों के जीवन में क्रांतिकारी बदलाव ला दिया है।

शुरुआती दिक्कतें

पहले तो किसानों ने भुंगरू पर भरोसा नहीं किया। तृप्ति बताती हैं, ‘जब हमने उन तकरीबन एक एकड़ जमीनधारी किसानों के साथ चर्चा की तो उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि कोई ऐसी तकनीक भी हो सकती है। इसके अलावा, चूंकि बिप्लब पश्चिम बंगाल के रहने वाले थे, बावजूद इसके गुजरात के ग्रामीण इलाके में काम कर रहे थे; उन्होंने सोचा कि हम उन्हें ठगना चाहते हैं और यह सब बस उनको फंसाने की चाल है। आखिरकार जब उन्होंने ड्रिलिंग और दूसरे काम करते देखा तो उन्हें लगा कि

हम गंभीर हैं, उन्हें भरोसा तो हुआ, फिर भी उन्होंने इसका हिस्सा बनने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा,‘सौभाग्य से, ग्रामीण महिलाओं के स्वयं सहायता समूह (एसएचजी) आगे आए थे। यही वह मौका है जहां तृप्ति इसमें शामिल हुई। वह कहती हैं’ लेकिन मुझे ढेरों मर्दों की मुखालफत का सामना करना पड़ा, खास तौर पर वे भुंगरू के महिला केंद्रित होने के चलते बहुत खिलाफ थे। चूंकि पुरुष तो बाहर रहते थे इसीलिये उन्हें जरा भी नहीं पता था कि औरतें पानी के संकट का सामना कैसे करती हैं। उनके यह महसूस करने में उन्हें कुछ साल लगे। सबसे बड़ी बात, भुंगरू के विचार का विरोध करने वालों के कुछ निहित स्वार्थ भी थे, वे लोग समझते थे कि हम उनके एकाधिकार को तोड़ने और जमीन कब्जाने वाली साजिशों को उजागर करने के लिए वहां थे। सारा श्रेय स्वयं सहायता समूहों को जाता है, जिसने इस तरह के लोगों की सांठगांठ को समाप्त और विफल किया तथा कार्य संचालन आरंभ करने में हमें सहायता की। तभी से हम भुंगरू को चलाने और उसकी निगरानी के लिए महिलाओं को प्रशिक्षण दे कर उन्हें सशक्त बना रहे हैं।

महिला केंद्रित बनाना

पानी को साझा करना एक बड़ा मुद्दा था। एक इकाई पांच से छह किसान परिवारों की के काम आती है। लेकिन अगर पानी ठीक से साझा नहीं किया गया था, तो प्रौद्योगिकी बेकार हो जाएगी। इसीलिए, भुंगरू का जिम्मा महिलाओं को देने का फैसला लिया गया। जैसा कि तृप्ति ने कहा, ‘देखते ही देखते न सिर्फ न यह मुद्दा सुलझ गया गया था, बल्कि चूंकि महिलाएं प्रबंधन में बेहतर थीं सो इसने उन्हें आत्मनिर्भर बना दिया। कम से कम पांच छोटी जोत वाले किसानों की गरीब महिलाओं ने आपस में तय किया कि वे मिलकर अपने भुंगरू की देखरेख करेंगी, सिंचाई के पानी को साझा करेंगी और एकदूसरे की जमीन पर काम में भी योगदान देंगी।’ ‘अपने हाथों में इस कामकाज की पूरी कमान लेने के बाद महिलाओं ने इस तकनीक में शामिल इंजीनियरिंग अवधारणाओं में महारत हासिल कर लिया और फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा।’ मगर तृप्ति ने के अनुसार वह इस तथ्य के बारे में जानकर दुखी होती हैं कि भले ही महिलाएं मेहनत के मामले में

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कृषि

कितने साल के कठिन परिश्रम के बाद आपने महसूस किया कि आप और आपकी टीम के काम को पहचान मिल रही है? बिप्लब ने जवाब दिया, "2007 में वर्ल्ड बैंक इंडिया के “डेवलपमेंट मार्केट प्लेस” पुरस्कार जीतने के बाद यह लगा फिर एक साल बाद, गुजरात ग्रामीण विकास आयुक्त ने जापान द्वारा मिलने वाली निधि के सहयोग से गरीबी में कमी लाने के लिए, लगभग करोड़ रूपए का अनुदान दिया गया, तरीका था भुंगरू प्रौद्योगिकी का उपयोग कर के 500 गरीब किसानों की मदद करना। इसके बाद, चीजें रास्ते पर आ गईं। नाइरीता अब गुजरात, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, बिहार, झारखंड, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में भी काम कर रही है। वास्तव में, भुंगरू अब वियतनाम, बांग्लादेश और घाना में भी मौजूद है। इसके विकास के लिए सभी सामग्री मेजबान देश से लिया जाता है। देश के बाहर, हम केवल उनके स्थानीय संस्थानों के साथ भागीदारी में रह

स्तर पर ही बनाया जा सकता है। बस जगह के पर्यावरण के आधार पर, उसकी दक्षता बढाने के लिए डिजाइन को बदलने की जरूरत है। नाइरीता बड़े किसानों से पैसे वसूल करता है, गरीबों के लिए यह प्रौद्योगिकी और उसकी स्थापना मुफ्त है। लेकिन उन्हें जमीन, मजदूर और कच्ची सामग्री देनी होती है। एक भुंगरू यूनिट की कीमत तकरीबन 9 लाख रुपए है, इसकी घटबढ इसकी डिजाइन पर निर्भर करती है। जब से परियोजना को ग्रामीण विकास मंत्रालय के राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन कार्यक्रम में शामिल किया गया था, तब से इसे और बढत मिली है। इसका मतलब है, राज्य इस तकनीक को अपने बजट में से धन आवंटित कर सकते हैं। एक ओपन सोर्स टेक्नोलॉजी के तौर पर भुंगरू ट्रेडमार्क के तहत पंजीकृत है।

भुंगरू का भविष्य

बिप्लब और तृप्ति दोनों को उम्मीद है कि गावों में रहने वाले हजारों गरीबों की आमदनी बढाने और लंबे समय तक खाद्य सुरक्षा तक उनकी पहुंच बना देने से उनका जीवन बदल जाएगा। बिप्लब ने कहा "हमने कितनी इकाइयां स्थापित की इस संख्या से अधिक यह महत्वपूर्ण है कि हम कितने क्षेत्र को कवर करने में सक्षम हैं। इससे कम से कम 5,00,000 किसानों को फायदा पहुंचना चाहिए। इसके लिए हम दुनिया भर की ऐसी एजेंसियों के साथ साझेदारी करने जा रहे हैं, जिनके ख्यालात हमसे मिलते जुलते हैं। हमारे

पानी को साझा करना एक बड़ा मुद्दा था। एक इकाई पांच से छह किसान परिवारों के काम आती है। लेकिन अगर पानी ठीक से साझा नहीं किया गया था, तो प्रौद्योगिकी बेकार हो जाएगी। इसीलिए, भुंगरू का जिम्मा महिलाओं को देने का फैसला लिया गया कर परियोजनाओं का संचालन कर रहे हैं और उन्हें प्रशिक्षण दे रहे हैं। तृप्ति ने कहा कि उनका इरादा दूसरे देशों में कार्यालय खोलने का नहीं है। नाइरीता द्वारा अब तक भारत में कुल 247 और दूसरे देशों में 7 इकाइयां स्थापित की गई हैं। इसके अलावा नाइरीता के सहयोगियों, भागीदारों और प्रशिक्षित स्थानीय एनिमेटरों द्वारा 3,500 से अधिक इकाइयां स्थापित की गई हैं।

मृदा की स्थिति, डिजाइन और लागत

जमीन के लगभग सभी हिस्से में, ‘असंतृप्त क्षेत्र’ की परतें पाई जाती हैं। मिट्टी किसी भी तरह की हो, उसकी सतह और स्तर चाहे जैसा हो भुंगरू काम करता है। नीचे के मिट्टी में पाए जाने वाले संतृप्त स्तर की भिन्नता के आधार पर,पानी के भीतर जाने की गति अलग अलग होती है। तो, भुंगरू का काम मिट्टी के प्रकार पर निर्भर करता है। इसके अलावा, अगर मिट्टी में कंकड़, पत्थर ज्यादा हों तो भुंगरू लगाने की लागत बढ़ जाती है। वर्तमान में, खेती के लिए तरह- तरह के जलवायु क्षेत्रों के भीतर रहने वाले विभिन्न समुदायों के लिए भुंगरू के 17 डिजाइन उपलब्ध हैं। भुंगरू को बनाने के लिए कारखाना लगाने की जरूरत नहीं है। इसे स्थानीय

पास एक बड़ा सकारात्मक कारक यह है कि भारत सरकार भुंगरू प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देने को तैयार है। इस तकनीक का उपयोग करके, किसानों को सालाना तीन फसलें मिलती हैं और नतीजतन अब उनकी आय अच्छी होती है।

पुरस्कार वीथि

बिप्लब ने इनोवेशन के लिए अशोका ग्लोबलाइजर एवार्ड 2012 औए 2014 जीतने के अलावा भी कई पुरस्कार जीते हैं। उन्हें जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन और एशियाई विकास बैंक ही नहीं राष्ट्रमंडल जैसे संगठनों से भी अनुदान और मान्यता प्राप्त हुई है। तृप्ति को आईआईएम-ए समर फेलो (1999), लीड फैलोशिप (2007) और मिशिगन स्टेट यूनिवर्सिटी (2012) में फुलब्राइट स्कॉलर से सम्मानित किया गया है। 2017 में उन्होंने कार्टियर महिला पहल पुरस्कार जीता, यह एक अंतरराष्ट्रीय व्यापार प्रतिस्पर्धा है जिसका उद्देश्य महिला उद्यमियों को वैश्विक चुनौतियों का समाधान करने के लिए प्रोत्साहित करना है। वह 120 से अधिक देशों के 1,900 आवेदकों के पूल से इस पुरस्कार के लिए चुने गए छह विजेताओं में से एक थीं।


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पुस्तक अंश

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23 - 29 जुलाई 2018

त्याग न टके रे वैराग बिना...

गांधी जी ने अपनी आत्मकथा में जहां अपने बाल विवाह के प्रसंग को बेबाकी से लिखा है, वहीं उनके अनुभवों से यह भी जाहिर होता है कि विषयासक्ति से मुक्ति की ललक भी उनमें उन्हीं दिनों पैदा होने लगी थी

प्रथम भाग

3. बाल-विवाह

मैं चाहता हूं कि मुझे यह प्रकरण न लिखना पड़ता। लेकिन इस कथा में मुझको ऐसे कितने कड़वे घूंट पीने पड़ेंगे। सत्य का पुजारी होने का दावा करके मैं और कुछ कर ही नहीं सकता। यह लिखते हुए मन अकुलाता है कि तेरह साल की उम्र में मेरा विवाह हुआ था। आज मेरी आंखों के सामने बारह-तेरह वर्ष के बालक मौजूद है। उन्हें देखता हूं और अपने विवाह का स्मरण करता हूं तो मुझे अपने ऊपर दया

आती है और इन बालकों को मेरी स्थिति से बचने के लिए बधाई देने की इच्छा होती है। तेरहवें वर्ष में हुए अपने विवाह के समर्थन में मुझे एक भी नैतिक दलील नहीं सूझती है। पाठक यह न समझें कि मैं सगाई की बात लिख रहा हूं। काठियावाड़ में विवाह का अर्थ लगन है,

सगाई नहीं। दो बालकों को ब्याहने के लिए मां-बाप के बीच होनेवाला करार सगाई है। सगाई टूट सकती है। सगाई के रहते वर यदि मर जाए तो कन्या विधवा नहीं होती। सगाई में वर-कन्या के बीच कोई संबंध नहीं रहता। दोनों को पता नहीं होता। मेरी एक-एक करके तीन बार सगाई हुई थी। ये तीन सगाइयां कब हुईं, इसका मुझे कुछ पता नहीं। मुझे बताया गया था कि दो कन्याएं एक के बाद एक मर गईं। इसीलिए मैं जानता हूं कि मेरी तीन सगाइयां हुई थी। कुछ ऐसा याद पड़ता है कि तीसरी सगाई कोई सात साल की उम्र में हुई होगी। लेकिन मैं नहीं जानता कि सगाई के समय मुझसे कुछ कहा गया था। विवाह में वर-कन्या की आवश्यकता पड़ती है, उसकी विधि होती है और मैं जो लिख रहा हूं सो विवाह के विषय में ही है। विवाह का मुझे पूरा-पूरा स्मरण है। पाठक जान चुके हैं कि हम तीन भाई थे। उनमें सबसे बड़े का ब्याह हो चुका था। मंझले भाई मुझसे दो या तीन साल बड़े थे। घर के बड़ों ने एक साथ तीन विवाह करने का निश्चय किया। मंझले भाई का, मेरे काकाजी के छोटे लड़के का, जिनकी उम्र मुझसे एकाध साल अधिक रही होगी, और मेरा। इसमें हमारे कल्याण की बात नहीं थी। हमारी इच्छा की तो थी ही नहीं। बात सिर्फ बड़ों की सुविधा और खर्च की थी। हिंदू-संसार में विवाह कोई ऐसी-वैसी चीज नहीं। वर-कन्या के माता-पिता विवाह के पीछे बर्बाद होते हैं, धन लुटाते हैं और समय लुटाते हैं। महीनों पहले से तैयारियां होती हैं। कपड़े बनते हैं, गहने बनते हैं, जातिभोज के खर्च के हिसाब बनते हैं, पकवानों के प्रकारों की होड़ मचती है। औरतें, गला हो चाहे न हो तो भी गाने गा-गाकर अपनी आवाज बैठा लेती हैं, बीमार भी पड़ती हैं। पड़ोसियों की शांति में खलल पहुंचाती हैं। बेचारे पड़ोसी भी अपने यहां प्रसंग आने पर यही सब करते हैं, इसीलिए शोरगुल, जूठन, दूसरी गंदगियां, सब कुछ उदासीन भाव से सह लेते हैं। ऐसा झमेला तीन बार करने के बदले एक बार ही कर लिया जाए, तो कितना अच्छा हो? खर्च कम होने पर भी ब्याह ठाठ से हो सकता है, क्योंकि तीन ब्याह एक साथ करने पर पैसा खुले हाथों खर्चा जा सकता है। पिताजी और काकाजी बूढ़े थे। हम उनके आखिरी लड़के ठहरे। इसीलिए उनके मन में हमारे विवाह रचाने का आनंद लूटने की वृति भी रही होगी। इन और ऐसे दूसरे विचारों से ये तीनों विवाह एक साथ करने का निश्चय किया गया और सामग्री जुटाने का काम तो जैसा कि मैं कह चुका हूं महीनों पहले से

यह लिखते हुए मन अकुलाता है कि तेरह साल की उम्र में मेरा विवाह हुआ था। आज मेरी आंखों के सामने बारह-तेरह वर्ष के बालक मौजूद है। उन्हें देखता हूं और अपने विवाह का स्मरण करता हूं तो मुझे अपने ऊपर दया आती है


23 - 29 जुलाई 2018

शुरू हो चुका था। हम भाइयों को तो सिर्फ तैयारियों से ही पता चला कि ब्याह होनेवाले हैं। उस समय मन में अच्छे-अच्छे कपड़े पहनने, बाजे बजने, वर यात्रा के समय घोड़े पर चढ़ने, बढ़िया भोजन मिलने, एक नई बालिका के साथ विनोद करने आदि की अभिलाषा के सिवा दूसरी कोई खास बात रही हो, इसका मुझे कोई स्मरण नहीं है। विषय-भोग की वृति तो बाद में आई। वह कैसे आई, इसका वर्णन कर सकता हूं, पर पाठक ऐसी जिज्ञासा न रखें। मैं अपनी शरम पर परदा डालना चाहता हूं। जो कुछ बतलाने लायक है, वह इसके आगे आएगा। किंतु इस चीज के ब्योरे का उस केंद्र बिंदु से बहुत ही थोड़ा संबंध है, जिसे मैंने अपनी निगाह के सामने रखा है। हम दो भाइयों को राजकोट से पोरबंदर ले जाया गया। वहां हल्दी चढ़ाने आदि की विधि हुई, वह मनोरंजन होते हुए भी उसकी चर्चा छोड़ देने लायक है। पिताजी दीवान थे। फिर भी थे तो नौकर ही, तिस पर राज-प्रिय थे। इसीलिए अधिक पराधीन रहे। ठाकुर साहब ने आखिरी घड़ी तक उन्हें छोड़ा नहीं। अंत में जब छोड़ा तो ब्याह के दो दिन पहले ही रवाना किया। उन्हें पहुंचाने के लिए खास डाक बैठाई गई। पर विधाता ने कुछ और ही सोचा था। राजकोट से पोरबंदर साठ कोस है। बैलगाड़ी से पांच दिन का रास्ता था। पिताजी तीन दिन में पहुंचे। आखिरी में तांगा उलट गया। पिताजी को कड़ी चोट आई। हाथ पर पट्टी, पीठ पर पट्टी। विवाह-विषयक उनका और हमारा आनंद आधा चला गया। फिर भी ब्याह तो हुए ही। लिखे मुहूर्त कहीं टल सकते हैं? मैं तो विवाह के बाल-उल्लास में पिताजी का दुख भूल गया! मैं पितृ-भक्त तो था ही, पर विषय-भक्त भी वैसा ही था। यहां विषय का मतलब इंद्रिय का विषय नहीं है, बल्कि भोग-मात्र है। माता-पिता की भक्ति के लिए सब सुखों का त्याग करना चाहिए, यह ज्ञान तो आगे चलकर मिलनेवाला था। तिस पर भी मानो मुझे भोगेच्छा का दंड ही भुगतना हो। इस तरह मेरे जीवन में एक विपरीत घटना घटी, जो मुझे आज तक अखरती है। जबजब निष्कुलानंद का ‘त्याग न टके रे वैराग बिना, करिए कोटि उपाय जी’ गाता हूं या सुनता हूं, तब-तब वह विपरीत और कड़वी घटना मुझे याद आती है और शरम आती है। पिताजी ने शरीर से पीड़ा भोगते हुए भी बाहर से प्रसन्न दिखने का प्रयत्न किया और विवाह में पूरी तरह योग दिया। पिताजी किस-किस प्रसंग में कहां-कहां बैठे थे, इसकी याद मुझे आज भी जैसी की वैसी बनी है। बाल-विवाह की चर्चा करते हुए पिताजी के कार्य की जो टीका मैंने आज की है, वह मेरे मन में उस समय थोड़े ही की थी? तब तो सब कुछ योग्य और मनपसंद ही लगा था। ब्याहने का शौक था और पिताजी जो कर रहे ठीक ही कर रहे हैं, ऐसा लगता था। इसीलिए उस समय के स्मरण ताजे हैं। मंडप में बैठे, फेरे फिरे, कंसार खाया-

खिलाया और तभी से वर-वधू साथ में रहने लगे। वह पहली रात! दो निर्दोष बालक अनजाने संसार-सागर में कूद पड़े। भाभी ने सिखलाया कि मुझे पहली रात में कैसा बर्ताव करना चाहिए। धर्मपत्नी को किसने सिखलाया, सो पूछने की बात मुझे याद नहीं। पूछने की इच्छा तक नहीं होती। पाठक यह जान लें कि हम दोनों एक-दूसरे से डरते थे, ऐसा भास मुझे है। एक-दूसरे से शरमाते तो थे ही। बातें कैसे करना, क्या करना, सो मैं क्या जानूं? प्राप्त सिखापन भी क्या मदद करती? लेकिन क्या इस संबंध में कुछ सिखाना जरूरी होता है? यहां संस्कार बलवान है, वहां सिखावन सब गैर-जरूरी बन जाती है। धीरे-धीरे हम एकदूसरे को पहचानने लगे, बोलने लगे। हम दोनों बराबरी की उम्र के थे। पर मैंने तो पति की सत्ता चलाना शुरू कर दिया।

4. पतित्व जिन दिनों मेरा विवाह हुआ, उन दिनों निबंधों की छोटी-छोटी पुस्तिकाएं -पैसे-पैसे या पाई-पाई की, सो तो कुछ याद नहीं- निकलती थीं। उनमें दंपती-प्रेम, कमखर्ची, बाल विवाह आदि विषयों की चर्चा रहती थी। उनमें से कुछ निबंध मेरे हाथ में पड़ते और मैं उन्हें पढ़ जाता। मेरी यह आदत तो थी कि पढ़े हुए में से जो पसंद न आए उसे भूल जाना और जो पसंद आए उस पर अमल करना। मैंने पढ़ा था कि एक पत्नी-व्रत पालना पति का धर्म है। बात हृदय में रम गई। सत्य का शौक तो था ही, इसीलिए पत्नी को धोखा तो दे ही नहीं सकता था। इसी से यह भी समझ में आया कि दूसरी स्त्री के साथ संबंध नहीं रहना चाहिए। छोटी उम्र में एक पत्नी-व्रत के भंग की संभावना कम ही रहती है। पर इन सद्विचारों का एक बुरा परिणाम निकला। अगर मुझे एक पत्नी-व्रत पालना

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पुस्तक अंश

हिंदू समाज में यदि बाल विवाह का घातक रिवाज है, तो साथ ही उससे मुक्ति दिलानेवाला रिवाज भी है। माता-पिता बालक वर-वधू को लंबे समय तक एक साथ नहीं रहने देते है, तो पत्नी को एक पति-व्रत पालना चाहिए। इस विचार के कारण मैं ईर्ष्यालु पति बन गया। ‘पालना चाहिए’ में से मैं ‘पलवाना चाहिए’ के विचार पर पहुंचा। अगर पलवाना है तो मुझे पत्नी की निगरनी रखनी चाहिए। मेरे लिए पत्नी की पवित्रता में शंका करने का कोई कारण नहीं था। पर ईर्ष्या कारण क्यों देखने लगी? मुझे हमेशा यह जानना ही चाहिए कि मेरी स्त्री कहां जाती है। इसीलिए मेरी अनुमति के बिना वह कहीं जा ही नहीं सकती। यह चीज हमारे बीच दुखद झगड़े की जड़ बन गई। बिना अनुमति के कहीं भी न जा सकना तो एक तरह की कैद ही हुई। पर कस्तूरबाई ऐसी कैद सहन करनेवाली थी ही नहीं। जहां इच्छा होती, वहां मुझसे बिना पूछे जरूर जाती। मैं ज्यों-ज्यों दबाव डालता, त्यों-त्यों वह अधिक स्वतंत्रता से काम लेती और मैं अधिक चिढ़ता। इससे हम बालकों के बीच बोलचाल का बंद होना एक मामूली चीज बन गई। कस्तूरबाई ने जो स्वतंत्रता बरती, उसे मैं निर्दोष मानता हूं। जिस बालिका के मन में पाप नहीं है, वह देव-दर्शन के लिए जाने पर या किसी से मिलने जाने पर दबाव क्यों सहन करें? अगर मैं उस पर दबाव डालता हूं, तो वह मुझ पर क्यों न डाले? ...यह तो अब मुझे समझ में आ रहा है। उस समय तो मुझे अपना पतित्व सिद्ध करना था। लेकिन पाठक यह न मानें कि हमारे गृहजीवन में कहीं भी मिठास नहीं थी। मेरी वक्रता की जड़ प्रेम में थी। मैं अपनी पत्नी को आदर्श पत्नी बनाना चाहता था। मेरी यह भावना थी कि वह स्वच्छ बने, स्वच्छ रहे, मैं सीखूं सो सीखे, मैं पढ़ूं सो पढ़े और हम दोनों एक दूसरे में ओत-प्रोत रहें। कस्तूरबाई में यह भावना थी या नहीं, इसका मुझे पता नहीं। वह निरक्षर थी। स्वभाव से सीधी, स्वतंत्र, मेहनती और मेरे साथ तो कम बोलनेवाली थी। उसे अपने अज्ञान का असंतोष न था। अपने बचपन में मैंने कभी उसकी यह इच्छा नहीं जानी कि मेरी तरह वह भी पढ़ सके तो अच्छा हो। इसमें मैं मानता हूं कि मेरी भावना एकपक्षीय थी। मेरा विषय-सुख एक स्त्री पर ही निर्भर था और मैं उस सुख का प्रतिघोष चाहता था। जहां प्रेम एक पक्ष की ओर से होता है वहां सर्वांश में दुख तो नहीं ही होता। मैं अपनी स्त्री के प्रति विषायासक्त था। शाला में भी उसके विचार आते रहते। कब रात पड़े और कब हम मिलें, यह विचार बना ही रहता। वियोग असह्य था। अपनी कुछ निकम्मी बकवासों से मैं कस्तूरबाई को जगाए ही रहता। मेरा खयाल है कि इस आसक्ति के साथ ही मुझमें कर्तव्य-परायणता न होती, तो मैं व्याधिग्रस्त होकर मौत के मंह में चला जाता अथवा इस संसार में बोझरूप बनकर जिंदा रहता। ‘सवेरा होते ही

नित्यकर्म में तो लग जाना चाहिए, किसी को धोखा तो दिया ही नहीं जा सकता’ ...अपने इन विचारों के कारण मैं बहुत से संकटों से बचा हूं। मैं लिख चुका हूं कि कस्तूरबाई निरक्षर थी। उसे पढ़ाने का मेरी बड़ी इच्छा थी। पर मेरी विषय-वासना मुझे पढ़ाने कैसे देती? एक तो मुझे जबरदस्ती पढ़ाना था। वह भी रात के एकांत में ही हो सकता था। बड़ों के सामने तो स्त्री की तरफ देखा भी नहीं जा सकता था। फिर बातचीत कैसे होती? उन दिनों काठियावाड़ में घूंघट निकालने का निकम्मा और जंगली रिवाज था। आज भी काफी हद तक मौजूद है। इस कारण मेरे लिए पढ़ाने की परिस्थितियां भी प्रतिकूल थीं। अतएव मुझे यह स्वीकार करना चाहिए कि जवानी में पढ़ाने के जितने प्रयत्न मैंने किए, वे सब लगभग निष्फल हुए। जब मैं विषय की नींद से जागा, तब तो सार्वजनिक जीवन में कूद चुका था। इसीलिए अधिक समय देने की मेरी स्थिति नहीं रही थी। शिक्षकों के द्वारा पढ़ाने के मेरे प्रयत्न भी व्यर्थ सिद्ध हुए। यही कारण है कि आज कस्तूरबाई की स्थिति मुश्किल से पत्र लिख सकने और साधारण गुजराती समझ सकने की है। मैं मानता हूं कि अगर मेरा प्रेम विषय से दूषित न होता तो आज वह विदुषी स्त्री होती। मैं उसके पढ़ने के आलस्य को जीत सकता था, क्योंकि मैं जानता हूं कि शुद्ध प्रेम के लिए कुछ भी असंभव नहीं है। यों पत्नी के प्रति विषायासक्त होते हुए भी मैं किसी कदर कैसे बच सका, इसका एक कारण बता चुका हूं। एक और भी बताने लायक है। सैकड़ों अनुभवों के सहारे मैं इस परिणाम पर पहुंच सका हूं कि जिसकी निष्ठा सच्ची है, उसकी रक्षा स्वयं भगवान ही कर लेते हैं। हिंदू समाज में यदि बाल विवाह का घातक रिवाज है, तो साथ ही उससे मुक्ति दिलानेवाला रिवाज भी है। माता-पिता बालक वर-वधू को लंबे समय तक एक साथ नहीं रहने देते। बाल-पत्नी का आधे से अधिक समय पीहर में बीतता है। यही बात हमारे संबंध में भी हुई। मतलब यह कि तेरह से उन्नीस साल की उम्र तक छुटपुट मिलाकर कुल तीन साल से अधिक समय तक साथ नहीं रहे होंगे। छह-आठ महीने साथ रहते, इतने में मां-बाप के घर का बुलावा आ ही जाता। उस समय तो वह बुलावा बहुत बुरा लगता था, पर उसी के कारण हम दोनों बच गए। फिर तो अठारह साल की उम्र में विलायत गया, जिससे लंबे समय का सुंदर वियोग रहा। विलायत से लौटने पर भी हम करीब छह महीने साथ में रहे होंगे, क्योंकि मैं राजकोट और बंबई के बीच जाता-आता रहता था। इतने में दक्षिण अफ्रीका का बुलावा आ गया। इस बीच तो मैं अच्छी तरह जाग्रत हो चुका था। (अगले अंक में जारी...)


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पर्यावरण

23 - 29 जुलाई 2018

एक नए शोध में संयुक्त पत्तियों वाले पतझड़ी पेड़, छोटे एवं मध्यम कैनोपी और गोल या अंडाकार पेड़ों में प्रदूषण को झेलने की क्षमता अधिक पाई गई है

आईएएनएस

में ओजोन को छोड़कर अन्य प्रदूषकों का स्तर सबसे अधिक दर्ज किया गया है। ओजोन का स्तर गर्मी के मौसम में उच्च स्तर पर था। शोध के दौरान तीनों अध्ययन क्षेत्रों में मौजूद वृक्षों की तेरह प्रजातियों को चुना गया था और फिर उन पर प्रदूषण के असर का अध्ययन किया गया। एंटी-ऑक्सीडेंट, पत्तियों में मौजूद जल और फोटोसिं थे टि क पिग्मेंट समेत पत्तियों से जुड़े करीब

नारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए एक नए अध्ययन में पेड़ों की सेहत पर प्रदूषण के कारण पड़ने वाले प्रभाव की व्याख्या की गई है और ऐसे वृक्षों की पहचान की गई है, जो अत्यधिक वायु प्रदूषण के दबाव को झेलने की क्षमता रखते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार, निरंतर बढ़ते प्रदूषण के कारण पेड़-पौधों की ऐसी प्रजातियों की पहचान जरूरी है, जो पर्यावरणीय प्रदूषण के प्रति अधिक प्रतिरोधक क्षमता रखते हैं। शहरों में हरित क्षेत्र की रूपरेखा तैयार करते समय इस तथ्य का खासतौर पर ध्यान रखना चाहिए। यह अध्ययन इस संदर्भ में काफी उपयोगी साबित हो सकता है। दो वर्षों के दौरान लगातार छह विभिन्न ऋतुओं में यह अध्ययन किया गया है। अध्ययन के लिए वाराणसी के तीन अलग-अलग प्रदूषण स्तर वाले क्षेत्रों को चुना गया था। इसमें खास बातें रिहायशी, औद्यौगिक और ट्रैफिक वाले क्षेत्र शामिल थे। अध्ययनकर्ताओं ने पाया ‘ईको-टॉक्सिलॉजी एंड एन्वायरमेंट कि रिहायशी क्षेत्रों की अपेक्षा सेफ्टी’ पत्रिका में प्रकाशित शोध ट्रैफिक वाले तथा औद्योगिक इलाकों में कुल निलंबित सूक्ष्म कण, पार्टिकुलेट मैटर-10, दो वर्षों के दौरान लगातार छह नाइट्रस ऑक्साइड, सल्फर विभिन्न ऋतुओं में अध्ययन डाईऑक्साइड एवं ओजोन जैसे प्रदूषकों का स्तर ढाई गुना संयुक्त पत्तियां प्रदूषकों के संपर्क तक अधिक था। बरसात और में सबसे कम आती हैं गर्मियों के बाद सर्दी के मौसम

पतझड़ी पेड़ों में प्रदूषण झेलने की सर्वाधिक क्षमता 15 मापदंडों क ो अध्ययन में शामिल किया गया था। इसके अलावा शोध क्षेत्रों में मौजूद वृक्षों की विशेषताओं का भी अध्ययन किया गया है। अध्ययनकर्तांओं ने पाया कि हवा में तैरते सूक्ष्म कण और ओजोन का वृक्षों की सेहत पर सबसे अधिक असर पड़ रहा है। इन प्रदूषकों के कारण वृक्षों की विशेषताओं में विविधता दर्ज की गई है। अध्ययन में शामिल वृक्षों में इंडियन रेडवुड (सेसलपिनिया सपन) को प्रदूषण के प्रति सबसे अधिक सहनशील पाया गया है। अ म रू द ( सिडि य म गु आ ज ा व ा ) , श ी श म ( ड ल ब र्जि य ा सिस्सू) और सिरस (अल्बिजिया लेबेक) के पेड़ों में भी प्रदूषण को सहन करने की क्षमता पाई गई है। प्रदूषण के बढ़ते दबाव के बावजूद पेड़ों की इन प्रजातियों की पत्तियों में एंटी-ऑक्सीडेंट, रंगद्रव्य और जल की मात्रा अधिक पाई गई है। वैज्ञानिकों का कहना है कि प्रदूषण

को झेलने की पेड़ों की क्षमता उनकी कई वि शे षत ा ओं पर निर्भर करती है। इन विशेषताओं में कैनोपी अर्थात पेड़ के छत्र का आकार, पत्तियों की बनावट तथा प्रकार और पेड़ों की प्रकृति शामिल है। संयुक्त पत्तियों वाले पतझड़ी पेड़, छोटे एवं मध्यम कैनोपी और गोल-से-अंडाकार पेड़ों में प्रदूषण के दुष्प्रभावों को झेलने की क्षमता अधिक पाई गई है। वैज्ञानिकों के अनुसार, सामान्य पत्तियों की अपेक्षा संयुक्त पत्तियां हवा में मौजूद प्रदूषकों के संपर्क में सबसे कम आती हैं, जिसके कारण पेड़ अधिक समय तक इन पत्तियों को धारण करने में सक्षम होते हैं। अध्ययनकर्ताओं में शामिल मधुलिका

इंडियन रेडवुड (सेसलपिनिया सपन) को प्रदूषण के प्रति सबसे अधिक सहनशील पाया गया है। अमरूद (सिडियम गुआजावा), शीशम (डलबर्जिया सिस्सू) और सिरस (अल्बिजिया लेबेक) के पेड़ों में भी प्रदूषण को सहन करने की क्षमता पाई गई है

अग्रवाल ने बताया, ‘वृक्ष प्रजातियों की प्रदूषणकारी तत्वों से लड़ने की क्षमता का पता लग जाने से शहरों में हरित क्षेत्र के विकास में मदद मिल सकती है। इस अध्ययन के नतीजे जैव विविधता के संरक्षण, शहरों की सुंदरता में सुधार और प्रदूषकों का दबाव कम करके स्वास्थ्य से जुड़े खतरों को रोकने में भी उपयोगी हो सकते हैं।’ इस अध्ययन के नतीजे शोध पत्रिका ‘ईकोटॉक्सिलॉजी ऐंड एन्वायरमेंट सेफ्टी’ में प्रकाशित किए गए हैं। अध्ययनकर्ताओं में डॉ. मधुलिका अग्रवाल के अलावा अरिदीप मुखर्जी भी शामिल थे।


23 - 29 जुलाई 2018

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विविध

रोबोट 'सोफिया' को भाया भारत अभिनेत्री आड्रे हेपबर्न की प्रतिकृति रोबोट सोफिया ने कहा कि भारत-एक रंग-बिरंगा, विविध और सुंदर देश है

'सोफिया' इंसानने जबकीभारतशक्लकावालीदीदाररोबोटकियामशीन तो उसमें जीवंत भावना का संचार हुआ। रोबोट सोफिया ने भारत को रंगीन, विविधताओं से पूर्ण और खूबसूरत बताया। हांगकांग की कंपनी हैनसन रोबोटिक्स ने इस मानव मशीन का विकास किया है। सोफिया अभिनेत्री आड्रे हेपबर्न की प्रतिकृति है। इसकी मानवीय शक्लसूरत और

व्यवहार अन्य रोबोट से जुदा है और इसी खासियत के लिए यह चर्चित भी है। मानव मशीन सोफिया में कृत्रिम बुद्धिमता ( आ र्टिफ ि शि य ल

इंटेलीजेंस),विजुअल डाटा प्रोसेसिंग और फेशियल रिकॉगनिशन का इस्तेमाल किया गया है। इसकी पहचानने की शक्ति अद्भुत है। यहां सातवें फोरएवर र्माक फोरम में सोफिया को लाया गया है। कमाल की बात तो यह थी कि सोफिया फोरएवर र्माक और बीयर्स ग्रुप ऑफ कंपनीज के ईवीपी स्टीफन लुसियर के साथ दिलचस्प तरीके से बात कर रही थी। फोरम में 'फ्यूचर इज नाउ' की थीम पर फोकस किया किया। जब लुसियर ने जब सोफिया से पूछा कि क्या वह पहली बार भारत आई है तो उसने कहा, "नहीं, मैं इससे पहले भी भारत आ चुकी हूं। यह एक रंग बिरंगा, विविध और सुंदर देश है।" लुसियर ने उससे पूछा कि क्या आपको लगता है भविष्य को बेहतर बनाया जा सकता है? सोफिया ने कहा, "हां, अधिक से अधिक पेड़ लगाकर, पानी का सही उपयोग करके और पर्यावरण में योगदान देकर बनाया जा सकता है।" (आईएएनएस)

स्वचालित गाड़ियों से बचेंगे अरबों

स्वचालित गाड़ियों की मदद से हर साल लगभग 8.3 अरब यूरो की बचत होगी और 62 लाख टन सीओ 2 उत्सर्जन कम होगा

स्व

चालित गाड़ियां अरबों यूरो बचा सकती हैं और इससे भविष्य में सीओ 2 उत्सर्जन में कटौती हो सकती हैं। सिएशन ऑफ जर्मन चैंबर्स

ऑफ इंडस्ट्री एंड कॉमर्स (डीआईएचके) द्वारा किए गए एक अध्ययन में इस बात का खुलासा हुआ है। डीआईएचके विशेषज्ञों ने अध्ययन में कहा कि स्वचालित गाड़ियों की मदद से हर साल लगभग 8.3 अरब यूरो की बचत होगी और 62 लाख टन सीओ 2 उत्सर्जन कम होगा। जर्मन समाचार पत्र 'बिल्ड एम सोनंटैग' ने अध्ययन का हवाला देते हुए कहा कि स्वचालित गाड़ियां समय बचाने और

सुरक्षा में वृद्धि कर ईंधन की खपत व परिचालन लागत को कम करेंगी। इसका औसत ड्राइविंग समय में ही 20 प्रतिशत की कमी होने की उम्मीद है, जिससे प्रतिवर्ष लगभग 4.1 अरब यूरो की बचत होगी। डीआईएचके विशेषज्ञों ने कहा कि ऐसा माना जाता है कि लंबी अवधि में पूरी तरह से स्वचालित गाड़ियां हर साल कम से कम 15 अरब यूरो बचा सकती हैं। (आईएएनएस)

केरल में कक्षाएं हुईं हाईटेक

केरल में 40,000 से ज्यादा कक्षाओं को हाईटक े बना दिया गया है और 4,500 से ज्यादा को इस महीने के अंत तक हाईटक े बना दिया जाएगा

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रल सरकार की पहल केरल इंफ्रास्ट्रक्चर एंड टेक्नोलॉजी फॉर एजुकेशन (काइट) के हिस्से के तौर पर 40,000 से ज्यादा कक्षाओं को हाईटेक बना दिया गया है और 4,500 से

ज्यादा को इस महीने के अंत तक हाईटेक बना दिया जाएगा। काइट के उपाध्यक्ष व कार्यकारी निदेशक के. अनवर सदात ने कहा कि उन्होंने सरकारी स्कूलों की 40,083 से अधिक कक्षाओं

को हाईटेक बना दिया है। इस महीने के बाद कक्षा आठ से 12 के सभी छात्र इस सुविधा का उपयोग करने में समर्थ होंगे। उन्होंने कहा कि हमने लैपटॉप, मल्टीमीडिया प्रोजेक्टर, साज-

अल्जाइमर से जुड़ा है हर्पीस

हर्पीस संक्रमण व अल्जाइमर बीमारी के जुड़े होने के साक्ष्य वैज्ञानिकों ने ढूंढ़ निकाले

वै

ज्ञानिकों को हर्पीस संक्रमण व अल्जाइमर बीमारी के जुड़े होने के साक्ष्य मिले हैं। साथ ही वैज्ञानिकों ने एंटीवायरल की संभावनाओं का भी पता लगाया है, जो न्यूडिजनरेटिव रोग के खतरे को कम करता है। इस शोध में जब गंभीर रूप से हर्पीस से संक्रमित लोगों का एंटीवायरल दवाओं के साथ इलाज किया गया तो डिमेंशिया (मनोभ्रम) का सापेक्ष खतरा 10 गुना कम हो गया। हर्पीस सिम्पेक्स वायरस (एचएसवी) ज्यादातर मानव को युवा काल में संक्रमित करता है या परिधीय तंत्रिका तंत्र के भीतर शरीर में जीवन भर निष्क्रिय रूप में बना रहता है। ऐसे बहुत से शोध हैं, जो हर्पीस व अल्जाइमर के संबंध को बताते हैं। मैनचेस्टर विश्वविद्यालय के ताइवानी इपिडेमिओलाजिस्ट द्वारा इस साल फरवरी में प्रकाशित एक शोध में कहा गया है कि हर्पीस सिम्पेक्स वायरस टाइप 1 (एचएसवी1) ने रोग को विकसित करने के जोखिम को बढ़ा दिया है। जर्नल ऑफ अल्जाइमर्स डिजीज में प्रकाशित रपट के अनुसार शोध दल ने कहा कि उन्हें हर्पीस संक्रमण व अल्जाइमर के बीच एक कारक संबंध का अबतक काफी प्रमाणिक साक्ष्य मिला है। विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रूथ इट्झाकी ने कहा कि मेरा मानना है कि हम इस भयावह स्थिति से जुड़े विचित्र आंकड़ो के निहितार्थ को सबसे पहले समझा है, जो मुख्य रूप से बुजुर्गों को प्रभावित करता है। इसका अब तक कोई प्रभावी इलाज नहीं है। (आईएएनएस) सामान, यूएसबी स्पीकर को लगाने का काम पूरा कर दिया है और इसके अलावा कंप्यूटर प्रयोगशालाओं के लिए 16,500 लैपटॉप भी इस हफ्ते लगाए जा रहे हैं। मल्लपुरम जिले में सबसे ज्यादा हाईटेक कक्षाएं (5,096), इसके बाद कोझीकोड (4,105) व त्रिशूर (3,497) हैं। सदात ने कहा कि 59 स्कूलों की 439 कक्षाओं में अभी यह सुविधा नहीं लगाई जा सकी है। लेकिन इस महीने के अंत तक इन छात्रों के लिए वैकल्पिक व्यवस्थाएं की जाएंगी। (आईएएनएस)


16 खुला मंच

23 - 29 जुलाई 2018

जितना कठिन संघर्ष होगा जीत उतनी ही शानदार होगी

अभिमत

– स्वामी विवेकानंद

नीला रंग चुनरी रंगा दे...

रचना मिश्रा

लेखिका युवा पत्रकार हैं और देश-समाज से जुड़े मुद्दों पर प्रखरता से अपने विचार रखती हैं

स्वराज्य हा माझा जन्मसिद्ध हक्क आहे

भारतीय स्वाधीनता संघर्ष के शील को गौरव और वीरता के भाव से भर देने वाले लोकमान्य तिलक में जहां नेततृ ्व की विलक्षण क्षमता थी, वहीं वे सफल शिक्षक और पत्रकार भी थे

नील का जो नीला रंग कभी किसानों पर ढाए जाने वाले जुल्म का रंग था, आज वही रंग आर्थिक समृद्धि का रंग बनता जा रहा है

चं

पारण सत्याग्रह के सौ वर्ष बाद चंपारण में नील की खेती लौटने लगी है। नील किसानों पर अंग्रेजों के जुल्म से आंदोलन की जो आग सौ वर्ष पूर्व चंपारण में सुलगी थी, आखिरकार उसी आग में अंग्रेजी हुकूमत जल कर भस्म हो गई। नील का जो नीला रंग कभी किसानों पर ढाए जाने वाले जुल्म का रंग था, आज वही रंग आर्थिक समृद्धि का रंग बनता जा रहा है। चंपारण में नील की वापसी सौ वर्षों के बाद हो रही है। भोजपुर के शाहपुर प्रखंड में इस वर्ष पहली बार दो किसानों ने एक-एक एकड़ में नील की खेती की। अप्रैल के पहले सप्ताह में लगाए गए बीज से फसल तैयार होने के बाद उसकी तीन बार कटिंग की गई। दोनों किसान बेहतर उत्पाद से बेहद खुश हैं। एक एकड़ में करीब सात क्विंटल सूखी पत्तियों का उत्पादन हुआ। इन पत्तियों को केरल की एक कंपनी ले जाएगी। नील की उत्पत्ति सबसे पहले भारत में ही हुई और यहीं इससे रंग निकाला जाता था। ईस्ट इंडिया कंपनी ने जब नील की ओर ध्यान दिया तब बंगाल और बिहार में नील की बहुत सारी कोठियां खुल गईं। आज दुनिया भर में प्राकृतिक नील की मांग बढ़ने लगी है। चंपारण में नील की वापसी के पीछे बढ़ती वैश्विक मांग है। लेकिन यह हम सबके लिए यह एक ऐसी खबर है, जिसमें महात्मा गांधी से लेकर उन समस्त महान विभूतियों के पसीने की गंध है, जिन्होंने चंपारण की जमीन पर आंदोलन और सत्याग्रह की फसल बोई ओर उगाई थी। आज फिर से एक बार चंपारण की महिलाओं के होठों पर वही पुराना गीत फिर से दोहराने के दिन आ गए, जब वे गाती थीँ- ‘नीला रंग चुनरी रंगा दे पियवा... हो नीला रंग चुनरी...।’

टॉवर फोनः +91-120-2970819

(उत्तर प्रदेश)

जि

न लाल-बाल-पाल की तिकड़ी का जिक्र स्वाधीनता संघर्ष में काफी प्रमुखता से होता है, उसकी खासियत यही थी कि वे स्वाधीनता के साथ देश को सांस्कृतिक तौर पर भी समृद्ध करने के प्रण के साथ आंदोलनरत थे। लोकमान्य तिलक ने जहां गणेश उत्सव को राष्ट्रीयता का पर्व बना दिया, वहीं बिपिनचंद्र पाल ने दुर्गा पूजा और लाला लाजपत ने श्री रामलीला के जरिए देश में सांस्कृतिक एकता के सूत्र मजबूत किए। इन तीनों में लोकमान्य तिलक भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के पहले लोकप्रिय नेता हुए। ब्रिटिश सत्ता उनके नाम से इतना खौफ खाती थी कि उन्हें ‘भारतीय अशांति के पिता’ के नाम से पुकारती थी । उनका मराठी में दिया गया नारा ‘स्वराज्य हा माझा जन्मसिद्ध हक्क आहे आणि तो मी मिळवणारच’ (स्वराज यह मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर ही रहूंगा) बहुत प्रसिद्ध हुआ। तिलक जब मात्र एक साल के थे, वह समय भारतीय के लिए ऐतिहासिक क्षण था। भारत की आजादी के लिए पहला भारतीय विद्रोह हुआ, जिसे 1857 की क्रांति के नाम से जाना जाता है। हालांकि उस समय तिलक बहुत छोटे थे, परंतु इस क्रांति ने उनके बाल मन पर अमिट छाप छोड़ी। आगे चलकर तिलक ने देश की तत्कालीन परिस्थितियों पर बहुत गहरा चिंतन किया। उन्होंने महसूस किया कि यदि देश को गुलामी की वर्तमान अवस्था से बाहर निकालना है तो इसके लिए भारत की शिक्षा पद्धति में सुधार करना आवश्यक

है, क्योंकि अंग्रेजों द्वारा जिस पद्धति के आधार पर भारतीयों को शिक्षा दी जा रही है, वह केवल इतनी ही है जिससे कि अंग्रेज हम पर लंबे समय तक शासन कर सकें। इसीलिए उन्होंने सबसे पहले राष्ट्रीय शिक्षा पर बल दिया। राष्ट्रीय शिक्षा की योजना को कार्यान्वित करने के लिए धन की आवश्यकता थी। इसके लिए जन-धन का प्रबंध करने का निश्चय किया गया। इसी बीच इनकी मुलाकात विष्णु शास्त्री चिपलूणकर से हुआ। चिपलूणकर मराठी के प्रसिद्ध लेखक थे। 1873 में इन्होंने सरकारी शिक्षक के रुप में नौकरी कर ली। इसी बीच, इनके मन में अपने देश के युवाओं के हृदय में राष्ट्रीय चेतना जगाने की इच्छा हुई, जिसके लिए ये एक विद्यालय खोलना चाहते थे। जब गंगाधर तिलक ने इन्हें अपनी राष्ट्रीय शिक्षा योजना के बारे में बताया तो ये तुरंत मदद करने के लिए तैयार हो गए। इस तरह तिलक ने आगरकर, चिपलूणकर, एम.बी. नामजोशी के सहयोग से जनवरी 1880 को पहले प्राइवेट स्कूल ‘न्यू इंग्लिश स्कूल’ की स्थापना की। आरंभिक वर्षों में स्कूल में विद्यार्थियों की संख्या 336 थी जो अगले 5 वर्षों में बढ़कर 1900 हो गई। 1882 में विलियम हंटर की अध्यक्षता में एजुकेशन कमीशन बंबई प्रेजीडेंसी में आई तो न्यू इंग्लिश स्कूल के कार्यकर्ताओं ने उनके मस्तिष्क पर बहुत गहरा प्रभाव छोड़ा। इस स्कूल के कार्यकर्ताओं के कार्य से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने भारतियों की उच्च शिक्षा के लिए कॉलेज स्थापित

लोकमान्य तिलक ने अंग्रेजों के खिलाफ सभी भारतीयों को एक सूत्र में बांधने के लिए गणपति उत्सव और उनके सोए हुए वीरत्व को जगाने के लिए शिवाजी उत्सव शुरू किया


23 - 29 जुलाई 2018 करने के लिए भी प्रेरित किया। सर विलियम हंटर ने न्यू इंग्लिश स्कूल की शिक्षा प्रणाली से प्रभावित होकर टिप्पणी की थी, ‘इस विद्यालय की प्रगति देखते हुए मैं निश्चित होकर कह सकता हूं कि पूरे भारत में इसकी बराबरी करने वाला एक भी स्कूल मेरी नजर में नहीं आया। बिना किसी सरकारी सहायता लिए ये स्कूल सरकारी हाई स्कूल की न केवल बराबरी करेगा, बल्कि उससे प्रतियोगिता भी कर सकता हैं। यदि हम दूसरे देशों के स्कूलों से इसकी तुलना करें तो भी ये ही प्रथम आएगा।’ तिलक के स्वदेश प्रेम और स्वाधीनता संघर्ष में उनकी पत्रकारिता की बहुत बड़ी भूमिका है। तिलक ने अपने साथियों चिपलूणकर, नामजोशी और आगरकर के साथ समाचार पत्र निकालने का विचार किया। 1881 में समाचार पत्र के प्रकाशन के लिए आर्यभूषण प्रेस खरीदा गया। इस प्रेस में चिपलूणकर की निबंधमाला प्रकाशित होती थी। निबंध-माला के 66वें अंक में लोगों को सूचना दी गई कि ‘केसरी’ और ‘मराठा’ दो समाचार पत्रों का प्रकाशन किया जाएगा। इसी अंक में इन दो समाचार पत्रों के प्रकाशन की नियमावली भी प्रकाशित की गई। तिलक के सहयोगियों चिपलूणकर, आगरकर, गर्दे और बी.एम. नामजोशी के संयुक्त हस्ताक्षरों के साथ ‘केसरी’ का घोषणापत्र प्रकाशित हुआ। इसमें कहा गया था कि इसमें अन्य पत्रों की भांति समाचार, राजनीतिक घटनाएं, व्यापार के साथ ही सामाजिक विषय पर निबंध, नई पुस्तकों की समीक्षा और इंग्लैंड की नई राजनीतिक घटनाओं की भी चर्चा की जाएगी। ‘मराठा’ का पहला अंक 2 जनवरी 1881 को और ‘केसरी’ का पहला अंक 4 जनवरी 1881 को प्रकाशित किया गया। तिलक देश का विकास धार्मिक और सामाजिक विकास के साथ-साथ करना चाहते थे। प्राचीन काल से ही भारत अपने गौरवान्वित इतिहास के लिए प्रसिद्ध है। यहां तक की महाराष्ट्र को तो वीर भूमि कहा जाता है। ऐसे में जब तिलक ने मराठियों को गुलामी की जंजीरों में जकड़े हुए देखा तो ये सहन नहीं कर पाए। उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ सभी भारतीयों को एक सूत्र में बांधने के लिए गणपति उत्सव और उनके सोए हुए वीरत्व को जगाने के लिए शिवाजी उत्सव शुरू किया।

06

व्यक्तितव

जीवट संघर्ष का शिलालेख आरएनआई नंबर-DELHIN

26 कही-अनकही

24 पुस्तक अंि

सवच्छ्ता

के लिए सवच्छ्ता के आि​ि्ष स्वास्थ्य वारी ्योजनवाएं के शलए जूझ्ता िेि कल्यवाणक

िालीन संगी्त की ‘उरा’ 241/2017-19

डाक पंजी्यन नंबर-DL(W)10/2

िु:सवपन का अं्त क

rat.com sulabhswachhbha

वर्ष-2 | अंक-31 | 16

- 22 जुलाई 2018

शजसके के सामने धुंधली पड़ गई, की चमक, एक ऐसी टीम शबना अंधेरी सुरुंग में वे लगा्तार टबॉल के उभर्ते नए शस्तारों पर पहुंचा रोमांच और फु मौ्त था। मौ्त की खौफनाक ओं की हई फीफा वरड्ड कप का चरम शजसमें हार का म्तलब शसफ्फ की हई... उममीि और िुआ एक ऐसा मैच खेल्ते रहे, शजंिगी की हई... रोिनी अनाम शस्तारे 18 शिनों ्तक खेल्ते रहे। आशखरकार जी्त थके शजंिगी का फुटबॉल एसएसबी ब्यूरो

थाईलैंड की

ंग गुफा 10 हकमी लंबी थाम लुआ

6 देशों के 90 गोताखोर शाभमल बचाव अभियान में थे

बचाव कैंप बच्े को िो गो्ताखारों के पास एक थी बाहर लाने की शजममेिारी

यहां थे बच्े

ये हहस्े पानी ्े भरे थे

‘द 33’ र्ष 2015 में हॉलीवुड की फिलम फिली में आई थी। यह फिलम वर्ष 2010 स में नोजे माइं के कॉपर और गोलड के सै के फलए 69 फदनों तक िंसे 33 खफनकों को बिाने है। माइंस में हमले िले जीवन संघर्ष पर आधाररत के साहस और रेस्कययू की वजह से िंसे 33 खफनकों ीदगी के साथ फिलमाया टीम की मेहनत को पयूरी संज हाल में थाईलैंड में गया। कुछ ऐसी ही त्ासद घटना ा में िंसी बच्ों ंग गुि घटी। थाईलैंड की थाम लुआ को 17 फदन बाद की िुटबॉल टीम के सभी सदसयों कई तरह की फदनों में सुरफषित फनकाला गया। इन सरगफम्षयां एक साथ िलीं। दर िंसे बच्ों की सबसे अहम था गुिा के अं इन बच्ों को सकुशल खैर-खबर। इसके साथ ही

खास बा्तें

गुफा फुटबॉल टीम 23 जून को फंस गई िेखने गई, लेशकन बाढ़ में 6 िेिों के 90 गो्ताखोर अशभ्यान में हए िाशमल

3.2 हकमी लंबी रस्ी के ्हारे बाहर आए बच्े

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स्वामी अवधेशानंद गिरि प्रसिद्ध आध्यात्मिक गुरु

जैसा आचार वैसा विचार

मनुष्य से देवता बनना, सद्ण गु ों का विकास करना, चारित्रिक रूप से महान बनना ही मनुष्य का ध्येय होना चाहिए

वै

ज्ञानिकों ने विद्युत, चुंबकत्व, प्रकाश, ध्वनि और उष्मा-इन शक्तियों को जानकर बड़ेबड़े आविष्कार किए हैं। इससे उन्होंने समाज को अनेक प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध कराई हैं। पदार्थ जगत में अणु के विस्फोट से भी एक बहुत बड़ी शक्ति को हासिल किया गया है। इन शक्तियों को अपने नियंत्रण में लाकर इनके द्वारा अद्भुत मशीनों एवं साधनों का निर्माण करने के फलस्वरूप आज का मानव विज्ञान के चमत्कारों से बहुत ही प्रभावित है। परंतु ध्यान देने योग्य बात यह है कि इन शक्तियों को भी अपने वश में करके इनके द्वारा कार्य करने वाली शक्ति तो विचार-शक्ति ही है। विचार अथवा चिंतन एक बहुत ही बड़ी शक्ति है। लोगों ने आज जड़ अथवा भौतिक शक्तियों के महत्व को तो समझा और माना है, लेकिन विचार-शक्ति के महत्व अथवा मूल को पूरी तरह नहीं समझ पाए हैं। विचार न केवल भौतिक, रासायनिक, प्राकृतिक और जैविक शक्तियों को जानकर और उन्हें अपने नियंत्रण में करके उन्हें अच्छा तथा आवश्यकता के अनुसार कार्य में जुटाने में समर्थ होते हैं, बल्कि समाज में बड़ी-बड़ी आर्थिक, राजनीतिक एवं सामाजिक क्रांतियों को भी जन्म देने में समर्थ हैं। बड़ी-बड़ी योजनाएं बनाकर उन्हें क्रियान्वित करने वाली शक्ति भी विचार ही है। वास्तव में मनुष्य के समस्त कर्मों की प्रेरक-शक्ति यही है। मनुष्य के चरित्र की नींव यदि ध्यान से देखा जाए तो अनाचार, अत्याचार, भ्रष्टाचार, दुराचार इत्यादि किसी कुविचार अथवा घृणित विचार ही की अभिव्यक्ति मात्र है। इसी प्रकार सदाचार, सद्व्यवहार, श्रेष्ठाचार इत्यादि की नींव भी मनुष्य

के शुद्ध अथवा नैतिक विचारों से ही बनी है। किसी ने ठीक ही कहा है कि मनुष्य के जैसे विचार होते हैं, वैसा ही वह बन जाता है। मनुष्य की मान्यताएं उसके विश्वास, दृष्टिकोण, संकल्प, विचारधारा से

ही उसे किन्हीं कर्मों की ओर प्रेरित करती हैं और उनको देखकर ही हम कहते हैं कि अमुक व्यक्ति अच्छा है या बुरा है। इन्हीं विचारों के आधार पर मनुष्य सतोगुणी, रजोगुणी और तमोगुणी कहलाते हैं। सतोगुणी मनुष्य वह होता है, जो अपने सुख के अतिरिक्त दूसरों की भलाई का भी विचार करता

है। वह स्वयं भी शांत रहता है और दूसरों को भी सुख-शांति से जीने में सहयोग देता है। रजोगुणी मनुष्य वह है, जो केवल अपनी ही सुख-शांति का विचार करता है। वह ऐंद्रिक सुख अथवा पदार्थों से प्राप्त होने वाले सुख को अधिक महत्व देता है। उनके मन में नैतिक मूल्य स्थिरता से नहीं टिक पाते। वह आत्मिक अथवा शाश्वत सुख की प्राप्ति का अनुभवी नहीं होता। तमोगुणी मनुष्य तो अपने सुख के लिए दूसरों के सुख को भी छीनने में संकोच नहीं करता। उसका विचार केवल अपने ही लाभ पर केंद्रित रहता है। संसार में बहुत से लोग ऐसे हैं, जिनका लक्ष्य खाना, पीना और मौज उड़ाना ही है। वे शरीर से अलग आत्मा नाम की शाश्वत सत्ता को नहीं मानते। वे पुनर्जन्म और कर्म के अटल सिद्धांत में भी आस्था नहीं रखते। उनका मत होता है कि जब तक यह शरीर है, तब तक ही सब कुछ है। अतः उनका लक्ष्य भी यहीं तक सीमित रहता है और उनमें लक्षण भी तदनुसार ही होते हैं। कोई अभिनेता बनना चाहता है तो कोई कुछ और। इससे उसके क्रिया-कलाप, हाव-भाव, वार्तालाप उसी प्रकार के होने लगते हैं। कोई सेठ बनना चाहता है तो उसकी बुद्धि उसकी ओर चलने लगती है। वास्तव में देखा जाए तो यह सब जीविकोपार्जन के साधन हैं और ये लक्ष्य जीवन के अंतिम लक्ष्य नहीं हैं। मनुष्य से देवता बनना, सद्गुणों का विकास करना, चारित्रिक रूप से महान बनना ही मनुष्य का ध्येय होना चाहिए। इस ध्येय के फलस्वरूप मनुष्य को यह ध्यान रहेगा कि मुझे अच्छे कर्म करने हैं। इस लक्ष्य से उसमें दैवी लक्षण आएंगे और उसका चरित्र महान होगा।

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/2016/71597

बिल्ते भार्त का साप्ाशह

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इस बचाव

8 जुलाई को िुरू हआ फाइनल ाई को खतम रेस्क्यू ऑपरेिन 10 जुल

बहुत काम का अनार ‘सुलभ स्वच्छ भारत’ का पिछला अंक भी अन्य अंकों की तरह पठनीय था। खासतौर पर मुझे ‘कैंसर से बचाएगी अनार के छिलकों की चाय’ शीर्षक से प्रकाशित जानकारी बहुत अच्छी लगी। यह जानकर आश्चर्य हुआ कि अनार के छिलके, जिन्हें हम आमतौर पर फेंक देते है, हमारे स्वास्थ के लिए इतना फायदेमंद है। जैसा कि बताया गया है कैंसर के साथ-साथ वह और भी कई बीमारियों को दूर रखने में सहायक है। स्वास्थ का ध्यान रखना हर किसी की पहली प्राथमिकता है, ऐसे मे जब किफायती उपाय हमारे आसपास ही मौजूद हैं तो उनका पालन कौन नहीं करेगा। जयती विरमानी, विकास पुरी, नई दिल्ली

बहुत काम का इंटरनेट ‘सुलभ स्वच्छ भारत’ के अंक में इस बार कई स्टोरीज पठनीय थीं। ‘ट्वीट ने लड़कियों को तस्करी से बचाया’ शीर्षक से प्रकाशित प्रेरक समाचार पढ़कर हमें इंटरनेट के सही उपयोग समझ आती है। हम हमेशा इंटरनेट का सिर्फ मनोरंजन के लिए इस्तेमाल करते हैं। पर यह खबर बताती है कि हम इंटरनेट के जरिए किसी की मदद भी कर सकते हैं। ऐसे कई अखबार हैं, जो शायद इस खबर को हम तक पहुंचाना जरूरी नहीं समझते, पर ‘सुलभ स्वच्छ भारत’ ने इस खबर की अहमियत को समझा। अपूर्व मिश्रा, राजघाट, वाराणसी

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फोटो फीचर

23 - 29 जुलाई 2018

आधी दुनिया का करगिल

मानव सभ्यता में युद्ध और अशांति के अनगिनत अनुभव जरूर शामिल रहे हैं, पर मानवता का मूल चरित्र अहिंसक है, शांति प्रिय है। इसकी सबसे बड़ी मिसाल है कि देश में करगिल युद्ध की चर्चा खूब होती है। इस युद्ध में भारतीय जवानों ने अप्रतिम शौर्य का परिचय दिया भी, पर करगिल का पूरा सत्य यही नहीं है। करगिल एक पर्वतीय अंचल है और यहां के जीवन में श्रम का संस्कार है। यहां के लोग काफी सादगी पसंद और शांति प्रिय हैं। खासतौर पर यहां की महिलाएं घर से लेकर बाहर तक कई जिम्मेदारियां निभाती हैं

फोटोः शिप्रा दास


23 - 29 जुलाई 2018

करगिल की एक खासियत यह भी है कि वहां महिलाओं की संख्या पुरुषों से ज्यादा है। जिस देश में बेटी को बचाने के लिए मुहिम चलानी पड़ती है, उसके लिए करगिल का समाज और उसकी परंपरा एक आदर्श की तरह है। करगिल की चोटियां भले कभी बारूदी गंध से भर गई थीं, पर यहां जीवन और प्रकृति की खुशबू आज भी सदाबहार है

फोटो फीचर

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पहल

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बच्चों के भविष्य की 'मणि'

मणि अग्रवाल ने 2004 में स्पेशल बच्चों को ट्रेनिंग देने के लिए स्कूल शुरू किया। इसके लिए खुद पढ़ाई की और कई मुश्किलों से जूझते हुए अपने मिशन को पूरा करने में जुट गईं

णि की कोशिशों से कई स्पेशल बच्चों का जीवन रंगों से भर गया है। 17 साल का ब्रैन जूड पहले न ठीक से अपनी बात कह पाता था, न कुछ समझ पता था, लेकिन अब वह न सिर्फ लिखने व अपनी बातें शेयर लगा है, बल्कि 2011 में स्पेशल ओलिंपिक भारत की एथलेटिक्स प्रतियोगिता में गोल्ड मेडल जीता। 2017 में भी उसने इसी आयोजन में नेटबॉल में गोल्ड हासिल किया। विभोर भी ब्रैन जूड की तरह कुछ नहीं कर पाता था, पूरी तरह से दूसरों पर निर्भर था। लेकिन आज वह 60 प्रतिशत तक आत्मनिर्भर हो चुका है। वह टेलिग्राफिक लैंग्वेज के जरिए बात कर सकता है। शानदार पेंटिंग्स बनाता है। 5 साल का आर्यन एडीएचडी (अटेंशन डेफिसिट हाइपर एक्टिव डिसॉर्डर) का शिकार था। 3 साल की ट्रेनिंग के बाद आज वह मानव रचना में तीसरी कक्षा में पढ़ रहा है। मणि कहती हैं कि स्पेशल बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने को लेकर आज भी न तो हमारा समाज जागरूक है और न ही उनके लिए अच्छी सुविधाएं मौजूद हैं, जिससे इन बच्चों और उनके अविभावकों को को परेशानियों से जूझना पड़ता है। बल्लभगढ़ स्थित सेक्टर-3 निवासी मणी अग्रवाल को जब

अपने बेटे की परवरिश में ऐसी दिक्कतों का सामना करना पड़ा, तो उन्होंने शहर के ऐसे दूसरे बच्चों की जिंदगी संवारने का बीड़ा उठा लिया। वर्ष 2004 में मणि ने इंटेलेक्चुअल डिसेबल बच्चों के लिए सेक्टर 10 में 'आकृति' (असोसिएशन फॉर एबिलिटी केयर रिहेबिलिटेशन ट्रेनिंग फॉर पर्सन विद डिसेबिलिटी) स्कूल की नींव रखी। यह स्कूल शिक्षा के माध्यम से बच्चों के जीवन में नई ज्योति जला रहा है। शुरुआत में स्कूल में दो बच्चे थे, जिसमें एक मणि का अपना बेटा भी शामिल रहा। मणि बताती हैं कि ऐसे बच्चों की देखरेख निश्चित तौर पर कठिन काम है, लेकिन शिक्षा एक ऐसा माध्यम है, जिसके माध्यम से प्यार, समझ व धैर्य के साथ इनका जीवन संवारा जा सकता है। तमाम आर्थिक उतार-चढ़ाव के चलते 3-3 साल में इस स्कूल की जगह बदली और अब पिछले चार साल से यह स्कूल विशंभर प्लेस, तिगांव रोड, बल्लभगढ़ में आबाद है। मणि बताती हैं, 'यह स्कूल किराए पर है। हर साल स्कूल का किराया बढ़ जाता है। स्पेशल एजुकेटर की सैलरी और अन्य स्टाफ का खर्चा एक बड़ी चुनौती बनकर सामने होता। इस चिंता में कई

बार हिम्मत टूटी, लेकिन फिर कहीं न कहीं से फंड जुटाया और गाड़ी फिर चल निकली। मैंने 52 साल की उम्र में स्पेशल एजुकेशन में बीएड किया। अब 62 की उम्र में मनोविज्ञान से एमए कर रही हूं, ताकि बच्चों को अच्छी शिक्षा दे सकूं।' वह कहती हैं, 'अपने बच्चे को स्पेशल ट्रेनिंग दिलाने के लिए मुझे आए दिन दिल्ली जाना पड़ता था। तब फरीदाबाद में ऐसा एक भी स्कूल नहीं था। बढ़ती उम्र में रोज-रोज दिल्ली जाना कठिन लग रहा था। उन्होंने कहा, 'इसीलिए मैंने स्पेशल बच्चों के जीवन को संवारने के लिए यह स्कूल शुरू किया। इसमें परिवार ने भी साथ दिया। पहले मैं ही बच्चों को संभालती थी। उन्हें बिहेवियर ट्रेनिंग देती थी। फिर

बच्चे बढ़े, तो हमने प्रोफेशनल एजुकेटर रख लिए। यहां बच्चों की क्षमता के मुताबिक ट्रेनिंग दी जाती है, खेल से कला के क्षेत्र तक कार्यक्रम कराए जाते हैं। यहां अभी इंटेलेक्चुअल डिसेबिलिटी, ऑटिजम, सेरेब्रल पाल्सी, फिजिकल हैंडीकैप्ड, मूक-बधिर व डाउन सिंड्रोम से प्रभावित बच्चे हैं।' मणि ने बताया कि 4 साल में 150 से अधिक बच्चों का जीवन संवारा जा चुका है। आजकल लर्निंग डिसेबिलिटी पर काम कर रहे हैं। मणि को उनके योगदान और समर्पण के लिए रेडक्रॉस सोसायटी की तरफ से सम्मानित भी किया जा चुका है। वर्ष 2017 में सुभाष चंद्र बोस की 121वीं जयंती पर भी उन्हें सम्मानित किया गया था। (एजेंसी)

मदद की 'सुरभि'

बीस वर्ष की सुरभि को अनाथालयों और वृद्धाश्रमों में मददगार के रूप में जाना जाता है

च्चों की पहली पाठशाला उनका घर होता है। वे अपने घर से तमाम बातें सीखते हैं। ऐसी ही एक अच्छी सीख सुरभि को भी अपने घर से मिली। यह सीख थी दूसरों की मदद करने की। आलमबाग की रहने वाली सुरभि नेशनल पीजी

कॉलेज से ग्रेजुएशन कर रही हैं। 20 साल की कम उम्र में भी वह आज कई चेहरों पर मुस्कान बिखेर रही हैं। सुरभि पढ़ाई के साथ ही शहर के कुछ वृद्धाश्रमों और अनाथालयों से जुड़ी हैं। वह न सिर्फ बच्चों और बुजुर्गों की मदद करती

हैं, बल्कि राह चलते अगर उन्हें कोई जरूरतमंद मिलता है तो वह उसकी भी मदद के लिए तैयार रहती हैं। साथ ही वह स्ट्रीट डॉग्स की भी देखभाल करती हैं। 'मैं अक्सर स्लम के बच्चों को खाना और कपड़े बांटती हूं।' एक घटना का जिक्र करते हुए सुरभि बताती हैं कि कुछ महीनों पहले किसी काम से उनका अमीनाबाद जाना हुआ। वहां सड़क किनारे एक बुजुर्ग पानी गरम करने वाली रॉड बेच रहे थे। मैं उनके पास गई तो पता चला कि उन्हें मोतियाबिंद था। मैंने रुककर उनसे बात की और उनकी दिक्कत के बारे में जानने की कोशिश की। मैंने उनसे 20 रॉड खरीदे और उनका एक विडियो बनाकर सोशल साइट पर अपलोड कर दिया। सुरभि ने कहा, 'कुछ समय बाद उस विडियो

को देखकर मुझे एक पुलिसवाले का मैसेज आया। वह उन बुजुर्ग की आंखों का इलाज कराना चाहते थे। मैंने उनका नंबर लिया और हम उन्हें अस्पताल ले गए। हालांकि आंखों की हालत काफी नाजुक होने के चलते उनका इलाज नहीं हो पाया। इस वजह से हमने भी रिस्क नहीं लिया। लेकिन मुझे इस बात की खुशी हुई कि मेरी पहल से मदद के लिए और भी हाथ बढ़ने लगे हैं।' सुरभि ने बताया कि कुछ समय पहले एक औरत से मुलाकात हुई, जिनका पति से झगड़ा हो गया था। वह बेघर हो गई थीं। उन्होंने कहा, 'ओल्ड एज होम जाकर उनके रहने का इंतजाम करवाया ताकि वह सुकुन के साथ रह सकें। अभी तो यह शुरुआत है। आगे मैं इस मुहिम को और आगे बढ़ाना चाहती हूं।' (एजेंसी)


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तकनीक

दुनिया से अंधेरा मिटाना चाहती हैं मेनासा

अमेरिका की रहने वाली मेनासा मेंडू ने एक नई तकनीक विकसित की है जिसके जरिए दुनिया के उन हिस्सों को रोशन किया जा सकता है जहां सूरज छिपने के बाद जिंदगी रुक जाती है

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रत में करीब पांच करोड़ परिवार आज भी अंधेरे में जीवन बिताने करने को मजबूर हैं, लेकिन पंद्रह साल की मेनासा मेंडू इन लोगों की जिंदगियों में रोशनी लाकर उसे बदलना चाहती हैं। उन्होंने कुछ ऐसा बनाया है जिसका फायदा दुनिया के कई हिस्सों के करोड़ों लोग उठा सकते हैं। अमेरिका के ओहायो की रहने वाली मेनासा ने एक नई तकनीक विकसित की है जिसके जरिए दुनिया के उन हिस्सों को रोशन किया जा सकता है जहां सूरज छिपने के बाद जिंदगी रुक जाती है।

इसके जरिए विकासशील देशों में सस्ती कीमतों में बिजली पहुंचाई जा सकती है। अपने इस आविष्कार के लिए मेनासा को 2016 में अमेरिका का टॉप यंग साइंटिस्ट का पुरस्कार मिल चुका है। विज्ञान की इस प्रतियोगिता का आयोजन थ्रीएम कंपनी और डिस्कवरी एजुकेशन नाम की संस्था करती है। कुछ साल पहले मेनासा मेंडू अपने परिवार के साथ भारत घूमने आई थीं। यहां उन्होंने बिजली और साफ पीने के पानी का अभाव और लोगों की परेशानियां देखीं। इसके बाद अमेरिका लौट कर

उन्होंने एक खास परियोजना पर काम करना शुरू किया। उन्होंने 'हार्वेस्ट' नाम का एक उपकरण बनाया है जिसके जरिए मात्र पांच अमरीकी डॉलर के खर्चे पर अक्षय ऊर्जा का उत्पादन किया जा सकता है। उनकी कोशिश थी कि वो एक ऐसा तरीका इजाद करें जिससे सूरज और अन्य तरह की ऊर्जा को सेव कर उसे बिजली में तब्दील किया जा सके। मेनासा कहती हैं कि दुनिया के पांचवें हिस्से के लिए अंधेरा एक सच्चाई है जिसे मैं बदलता चाहती थी। मुझे इसे बदलने के लिए कोई रास्ता चाहिए था। मेरा उद्देश्य था कि हार्वेस्ट को दुनिया के किसी भी कोने में इस्तेमाल किया जा सके। मेनासा ने पीजोइलेक्ट्रिकल इफेक्ट पर काम करना शुरू किया जो ऊर्जा को एक जगह पर एकत्र करने का एक तरीका है। मनासा कहती हैं कि उनको इसके लिए प्रेरणा पेड़ों से मिली और उन्होंने पहले सूरज की रोशनी से बिजली बनाने का काम किया। लेकिन इतना काफी नहीं था। उनका कहना है कि मैं ये सोच रही थी कि अगर सूरज की रोशनी के अलावा मैं किसी और तरीके से भी बिजली बना सकूं तो कैसा हो। मेनासा ने पीजोइलेक्ट्रिकल इफेक्ट के साथ हवा के दवाब पर काम करने का फैसला किया। इसके जरिए खास चीजों के इस्तेमाल से सूरज की रोशनी, हवा और बारिश की बूंदों को बिजली में परिवर्तित करने और फिर बिजली को मैकेनिकल वाइब्रेशन में परिवर्तित करने की कोशिश की। उनका ये यंत्र किसी भी तरह के दवाब से काम करता है और इसकी क्षमता बढ़ाने के लिए उन्होंने इसमें सोलर पैनल का भी इस्तेमाल किया है। अब मेनासा मेंडू चाहती हैं कि उनके आविष्कार को लोग अपने रोज़मर्रा के कामों के लिए इस्तेमाल करें और वो इस काम में आगे बढ़ने के लिए सहयोगियों की तलाश कर रही हैं। वो कहती हैं कि जब पहले मैंने हार्वेस्ट बनाया था तो इससे कम ऊर्जा का उत्पादन हो रहा था। उस वक्त मैं दुखी भी थी और आसानी से हार मान सकती थी। लेकिन मैं कुछ ऐसा बनाना चाहती थी जिसे लोग असल जिंदगी में काम में ला सकें। हमें कई बार मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। कभी हमें खुद पर भरोसा नहीं होता तो कभी दूसरों को हम पर, लेकिन जो भी आपके विचार हों आपको उन पर काम करना चाहिए क्योंकि आपको खुद नहीं पता कि आपके विचार कितना कुछ बदल सकते हैं। (एजेंसी)

प्लास्टिक बोतल नष्ट करने की मशीनें रेलवे स्टेशनों पर फेंके जाने वाले प्लास्टिक कचरे से निपटने के लिए रेलवे दो हजार स्टेशनों पर प्लास्टिक बोतलों को नष्ट करने वाली मशीनें लगाएगी

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स्टिक कूड़े के खिलाफ लड़ाई में साथ देते हुए भारतीय रेलवे देश भर के 2,000 रेलवे स्टेशनों पर प्लास्टिक बोतल नष्ट करने वाली मशीनें स्थापित करेगा। स्टेशनों की सफाई अभियान से जुड़े रेलवे के एक शीर्ष अधिकारी ने बताया कि जब प्लास्टिक और विशेष रूप से प्लास्टिक की बोतलें पर्यावरण के लिए बहुत बड़ा खतरा बन गई हैं तो हम प्लास्टिक संकट से निपटने के लिए जागरूकता फैलाने के लिए कड़े कदम उठा रहे हैं। देश भर के स्टेशनों पर प्रतिदिन पेय पदार्थ और पेयजल की बोतलें बड़ी संख्या में फेंकी जाती हैं। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) की 2009 की रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय रेलवे ट्रैक पर लगभग 6,289 टन प्लास्टिक कूड़ा निकाला जाता है। यात्रियों को प्लास्टिक बोतलें रेलवे ट्रैक या स्टेशन परिसर में फेंकने से रोकने के लिए क्रशर (प्लास्टिक बोतल नष्ट करने की मशीन) स्थापित किए जा रहे हैं। क्रशर मशीनें प्लेटफॉर्म और निकासी द्वार पर स्थापित की जाएंगी जिससे अपनी बोतल फेंकने जा रहे यात्री उसे मशीन में डालकर नष्ट कर सकें। मशीन में डाली गई प्लास्टिक की बोतल के आयतन के अनुसार मशीन स्वत: शुरू होकर बंद हो जाएगी। मशीन के अंदर डाली गई बोतल के छोटे-छोटे टुकड़े हो जाएंगे। प्लास्टिक के टुकड़े प्लास्टिक निर्माताओं के पास भेज दिए जाएंगे जिससे कूड़ा डालने की जगह (लैंडफिल) में प्लास्टिक प्रदूषण न हो। अधिकारी ने कहा कि पहले चरण में 2000 स्टेशनों पर क्रशर मशीनें स्थापित करने के लिए सभी 16 जोन के 70 डिवीजनों को निर्देशित कर दिया गया है। वर्तमान में प्लास्टिक बोतलें हाथों से नष्ट की जाती हैं। (आईएएनएस)


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स्वच्छता

23 - 29 जुलाई 2018

सेशेल्स

दुनिया के द्वीपीय देशों में अपनी प्राकृतिक खूबसूरती के साथ अपने स्वच्छ और मैत्रीपूर्ण जीवनशैली के कारण सेशेल्स की काफी सराहना होती है

खास बातें वर्ल्ड टूरिस्ट मैप पर सेशेल्स एक आकर्षक डेस्टिनेशन माना जाता है ईआईबी ने जलापूर्ति व्यवस्था सुधारने के लिए बड़ी पहल की जल और स्वच्छता दोनों ही क्षेत्रों में आज सेशेल्स की स्थिति संतोषजनक

सुंदरता और स्वच्छता की द्वीपमाला

से

एसएसबी ब्यूरो

शेल्स, हिंद महासागर में स्थित 115 द्वीपों वाला देश है। यह अफ्रीकी मुख्यभूमि से लगभग 1500 किलोमीटर दूर पूर्व दिशा में और मेडागास्कर के उत्तर-पूर्व में स्थित है। इसके पश्चिम में जंजीबार, दक्षिण में मॉरीशस और रीयूनियन, दक्षिण-पश्चिम में कोमोरोस और मयॉट और उत्तर-पूर्व में मालदीव का सुवाडिवेस स्थित है। सेशेल्स में अफ्रीकी महाद्वीप के किसी भी अन्य देश के मुकाबले सबसे कम आबादी है।

प्राकृतिक सुंदरता

दुनिया टूरिस्ट मैप पर सेशेल्स एक आकर्षक डेस्टिनेशन माना जाता है। खासतौर पर यह वैसे लोगों के घूमने-फिरने के लिए आदर्श है, जो किफायती खर्च में अपनी छुट्टियों का आनंद लेना चाहते हैं। हिंद महासागर के मध्य में स्थित सेशेल्स के द्वीपों का कुल क्षेत्रफल 400 वर्गमीटर से अधिक है। यह एक अनोखी जगह है, जहां जंगली जीवन और प्रकृति की सुंदरता देखते ही बनती है। सैंडी समुद्र तट, विशाल नारियल के पेड़, विशालकाय कछुए, दुर्लभ समुद्री पक्षी, शानदार प्रवाल भित्तियां और तटीय क्षेत्रों का पारंपरिक जीवन व संस्कृतिये सब देखकर कोई भी अभिभूत हुए बिना नहीं रह सकता है। लिहाजा अगर पर्यटन की दुनिया में सेशेल्स को धरती का स्वर्ग माना जाता है, तो यह अस्वाभाविक नहीं है।

मुख्य जल स्रोत

सेशेल्स के ज्यादातर द्वीपों में जल का स्रोत नदियां और पहाड़ झरने और झील हैं। हालांकि वर्षा के कम या ज्यादा होने से इन जलस्रोतों की सेहत पर फर्क पड़ता है। इस तरह हम इस बात को समझ सकते हैं समुद्र के बीच रहने के बावजूद स्वच्छ जल को लेकर प्राकृतिक रूप से सेशेल्स की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। एक दशक पूर्व तक वहां यह स्थिति थी कि मुख्य द्वीपों में वर्षाजल संचय के लिए जो 38 कैचमेंट्स हैं, उनसे महज 5 फीसदी शोधितअशोधित पानी ही घरेलू उपयोग के साथ कृषि कार्यों और ओदे्योगिक इस्तेमाल के साथ उपलब्ध हो पाता था। पर प्रकृति के सामंजस्य बैठाकर चलने की सेशेल्सवासियों की जीवनशैली, भूजल को सुरक्षित रखने के उनके कौशल के कारण वहां हालात हमेशा संतुलित रहे हैं।

ईआईबी की मदद

विगत कुछ वर्षों में सेशेल्स को पानी के लेकर इसीलिए जरूर थोड़ी चिंता करनी पड़ रही है कि क्योंकि वहां वर्षाकाल लगातार सिमटता जा रहा है। इस स्थिति को देखते हुए 2014 में यूरिपयन इन्वेस्टमेंट बैंक (ईआईबी) और कुछ अन्य

अंतरराष्ट्रीय सहयोग संगठनों ने सेशेल्स में जलापूर्ति की व्यवस्था को उन्नत बनाने और उनके विस्तार करने के लिए आर्थिक मदद के साथ एक बड़ी पहल की। इस पहल में सेशेल्स के द्वीपों में सीवरेज सिस्टम को दुरुस्त करने पर भी जोर रहा। इसका महत्व इस बात से भी लगाया जा सकता है कि एक दशक पूर्व तक सेशेल्स के कुछ प्रमुख द्वीपों को छोड़कर अन्य द्वीपों पर जल उपलब्धता और सीवरेज की एकीकृत व आधुनिक व्यवस्था नहीं थी और न ही वहां दशकों तक इसके लिए कोई बड़ी योजनागत पहल की गई।

आईसीएसएमपी

संतोष की बात यह है कि खासतौर पर शुद्ध जल की उपलब्धता के साथ स्वच्छता के महत्व को समझते हुए सेशेल्स सरकार ने इंटीग्रेटेड एंड कंप्रिहेंसिव सैनिटेशन मास्टर प्लान (आईसीएसएमपी) तैयार किया है और अब वहां इसी के तहत कार्य हो रहे हैं। इसके तहत जल परिशोधन के अलावा जल उपलब्धता की वैकल्पिक व्यवस्था पर जोर दिया गया है, वहीं यह भी सुनिश्चित किया जा रहा कि सेशेल्सवासी उन्नत शौचालय व अन्य स्वच्छता सेवाओं का इस्तेमाल करें।

सेशेल्स में शहरी और ग्रामीण दोनों ही क्षेत्रों में तकरीबन 96 फीसदी जनसंख्या को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध है। इसी तरह शहरी और ग्रामीण दोनों ही क्षेत्रों में बमुश्किल पांच फीसदी आबादी ऐसी है, जो उन्नत स्वच्छता सेवाओं से दूर है


स्वच्छता

23 - 29 जुलाई 2018

पेयजल स्रोत

स्वच्छ या शोधित शहरी : 95.7% आबादी ग्रामीण : 95.7% आबादी कुल : 95.7% आबादी

अस्वच्छ या अशोधित शहरी : 4.3% आबादी ग्रामीण : 4.3% आबादी कुल : 4.3% आबादी (2015 तक अनुमानित)

राजधानी

96.5 हजार (2015) विक्टोरिया

शहरी आबादी 54 फीसदी भाषा

क्रेओल, अंग्रेजी और फ्रेंच

जातीय आबादी क्रेओल्स (95 फीसदी)। साथ भारतीय, मालगासी, चीनी और ब्रितानी मूल के जलवायु

उन्नत या स्वच्छ शहरी : 98.4% आबादी ग्रामीण : 98.4% आबादी कुल : 98.4% आबादी

स्रोत : सीआईए वर्ल्ड फैक्टबुक

जनसंख्या

पश्चिमी हिंद महासागर में यह एक द्वीप राज्य है, सेशेल्स का भौगोलिक विस्तार 455 किलोमीटर है

लोग भी।

स्वच्छता सुविधाएं

पारंपरिक या अस्वच्छ शहरी : 1.6% आबादी ग्रामीण : 1.6% आबादी कुल : 1.6% आबादी (2015 तक अनुमानित) नोट- सेशेल्स में अन्य देशों की तरह शहरी और ग्रामीण आबादी विभाजित नहीं है, क्योंकि यह एक द्वीप समूह है इसलिए हर जगह बसाव की प्रकृति एक तरह की ही है।

शानदार प्रदर्शन

आज आलम यह है कि सेशेल्स न सिर्फ अपनी खूबसूरती के लिए दुनियाभर में जाना जाता है, बल्कि जल और स्वच्छता के मामले में भी उसके प्रदर्शन को उदाहरण के तौर पर लिया जाता है। तीन वर्ष पहले तैयार किए गए सीआईए वर्ल्ड फैक्टबुक के अनुसार सेशेल्स ने शहरी और ग्रामीण दोनों ही क्षेत्रों में जल और स्वच्छता के मामले में काफी प्रगति की है। फैक्टबुक के मुताबिक वहां शहरी और ग्रामीण दोनों ही क्षेत्रों में तकरीबन 96 फीसदी जनसंख्या को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध है। इसी तरह शहरी और ग्रामीण दोनों ही क्षेत्रों में बमुश्किल पांच फीसदी आबादी ऐसी है जो उन्नत स्वच्छता सेवाओं से दूर है।

जलवायु की विशेषताएं

सेशेल्सनामा

पेयजल और स्वच्छता

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सेशेल्स के साथ यह अच्छी बात है कि यह रूस के मध्य पट्टी के साथ एक समय क्षेत्र में स्थित है। वैसे भौगोलिक रूप से सेशेल्स द्वीप भूमध्य रेखा के दक्षिणी समुद्र में स्थित हैं और एक हल्के उष्ण कटिबंधीय जलवायु से अलग है। यह बहुत सर्दी या बहुत गर्मी नहीं पड़ती। यहां तापमान हमेशा लगभग समान होता है, बिना किसी बड़े उतार-चढ़ाव के। दिसंबर और मई के बीच ज्यादातर वर्षा होती है। सबसे गर्म अवधि नवंबर से मार्च तक का है।

उष्णकटिबंधीय, जून से अक्टूबर तक शुष्क मौसम और दिसंबर-अप्रैल में बरसात के मौसम।

जीडीपी

2.4 बिलियन डॉलर (2014)

भू-भाग

सेशेल्स 39 छोटे पहाड़ी द्वीपों पर स्थित है

शुद्ध जल की उपलब्धता के साथ स्वच्छता के महत्व को समझते हुए सेशेल्स की सरकार ने इंटीग्रेटेड एंड कंप्रिहेंसिव सैनिटेशन मास्टर प्लान (आईसीएसएमपी) तैयार किया है और अब वहां इसी के तहत कार्य हो रहे हैं डिग आईलैंड के आंस सोर्ज द आर्जां को दुनिया का सबसे फोटोजेनिक बीच माना जाता है।

दोस्ताना माहौल

यात्रा का रोमांच

सेशेल्स निवासी बेहद दोस्ताना तबीयत के लोग होते हैं। उनके स्वभाव में सद्भाव और सहयोग की भावना पारंपरिक तौर पर देखने को मिलती है। यहां अप्रैल महीने में विक्टोरिया में आयोजित कार्निवल ‘इंटरनेशनल डि विक्टोरिया’ किसी के भी दिल को जीत लेगा। इस कार्निवल में शामिल होने के लिए दुनियाभर से कलाकार आते हैं।

खूबसूरत बीचेज

मिशन लॉज सेशेल्स का संभवतः सबसे मशहूर विंटेन प्वाइंट है। यहां के ‘गजेबो’ (छोटी इमारत, जहां से बाहर देखा जाता है) से आपको समुद्र और पहाड़ के अद्भुत नजारे दिखेंगे। गजेबो महारानी एलिजाबेथ द्वितीय की चाय के लिए मेजबानी कर चुका है। मशहूर वेल्ले डि मेई, यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल है, जिसे कभी ‘गार्डन ऑफ ईडन’ कहा जाता था। यहां के खूबसूरत जंगल में करीब 6000 कोको दि मेर के पेड़ हैं। जमीन ही नहीं, पानी के भीतर भी सेशेल्स की खूबसूरती लाजवाब है। स्वच्छ पानी में रंग-बिरंगे मूंगे, आकर्षक मछलियां, शार्क और बाराकुडा को देखकर किसी का भी दिल खुशी से झूम उठेगा।

सेशेल्स के द्वीपों पर ठंड का मौसम मई से सितंबर तक है। मुख्य पर्यटक द्वीप हैं माहे, ला डिएगु, सेंट ऐनी, फ्रिगेट, सर्फ, डेनिस और सिल्हूट। सेशेल्स की यात्रा करने का एक रोमांच यह है कि आप चाहें तो साइकिल, कार या बस से सफर करते हुए हर दिन नए द्वीप कौवे और समुद्री पार्कों का पता लगा सकते हैं। कुछ होटल पर्यटकों को एक एस्कॉर्ट के साथ फेयरीटेल स्थानों पर सैर करते हैं। सेशेल्स में कई डुबकी क्लब हैं, जहां समुद्री भंडार और अन्य खूबसूरत जगहों का अध्ययन करने की पर्यटकीय सेवाएं उपलब्ध हैं। सेशेल्स पर बहुत कम बड़े होटल हैं। आम तौर पर होटलों के कमरों की संख्या 25 से अधिक नहीं होती है। छोटे होटल भी बहुत आरामदायक हैं। सेशेल्स में कई छोटे विला, शैटॉऔक्स और शैलेट भी हैं, जहां आप परिवार के साथ अच्छा समय बिता सकते हैं। माहे का आंस रॉयाल बीच, जो अपनी एकांत छोटी खाड़ियों और स्नार्कलिंग स्पॉट्स के लिए मशहूर है, से लेकर प्रास्लिन स्थित सफेद रेत वाले अर्द्धचंद्राकार आंस लाजियो तक सेशेल्स जैसे साफ-सुथरे बीचेज आपको शायद ही कहीं और मिलें। सेशेल्स के ला

समुद्र और पहाड़

विशालकाय कछुए

सेशेल्स के अधिकतर द्वीपों में विशालकाय कछुए पाए जाते हैं। खासतौर पर ला क्यूरिस में आप इन कछुओं को धीमी चाल से यहां-वहां चलते हुए देख

सकते हैं। सेशेल्स के अधिकांश द्वीप निर्जन हैं और कुछ द्वीपों जैसे ला कजिलन में सबसे अनोखे पक्षी पाए जाते हैं। 100 से अधिक द्वीपों की सैर के दौरान आप अपने लिए आदर्श स्थान भी खोज सकते हैं।

एडवेंचर गेम्स

सेशेल्स पैरासेलिंग, वाटर स्कीइंग, कायकिंग, जेट स्कीइंग और स्कूबा डाइविंग के लिए सर्वश्रेष्ठ स्थान है। यहां आप पर्वतारोहण का भी मजा ले सकते हैं।

स्वाद और सेशेल्स

खेल के रोमांच के साथ यहां घूमते हुए आप ऐसे व्यंजनों का भी मजा उठा सकते हैं, जिनमें अफ्रीकन, चाइनीज, अंग्रेजी, फ्रेंच और भारतीय भोजन की लज्जत के साथ क्रेयोल का स्वाद आए। सेशेल्स के लोकप्रिय व्यंजनों में क्रेओल, भारतीय और अफ्रीकी पाक परंपराओं का संयोजन है। समुद्री भोजन लोबस्टर और ऑक्टोपस है। यहां विभिन्न सॉस (विशेष रूप से लोकप्रिय करी) और मसालों का व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है। वैसे ज्यादातर रेस्तरां के मेनू में पारंपरिक यूरोपीय भोजन होता है। हालांकि सीफूड की उपलब्धता भी तकरीबन हर जगह है।


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पुस्तक अंश

23 - 29 जुलाई 2018

आधारभूत संरचना संबंधी ढांचा पुनर्नवीनीकरण और विस्तार

राष्ट्रीय राजमार्गों का विस्तार

मेक इन इंडिया

भारत में निवेश को बढ़ावा देने, नवाचार को प्रोत्साहित करने, कौशल विकास करने, बौद्धिक संपदा की रक्षा करने और निर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए, मेक इन इंडिया, एक राष्ट्रीय आंदोलन बना है। यह, सरकार और उद्योगों के बीच साझेदारी को बढ़ावा देता है। भारत की स्थिति, व्यापार में सुगमता के क्षेत्र में पहले से बेहतर होकर 142 से 130 हो गई है, साथ ही विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (इक्विटी प्रवाह) में 46 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई है।

डिजिटल इंडिया

डिजिटल इंडिया कार्यक्रम देश में सूचना क्रांति लाने के लिए बड़ी परिकल्पना है। इस कार्यक्रम के माध्यम से, भारत के सभी गांव, आधुनिक तकनीक से जुड़ जाएंगे और इसका लाभ उठाएंगे। अप्रैल 2016 तक, ग्राम पंचायतों को जोड़ने के लिए, एक लाख 11 हजार कि.मी. ऑप्टिकल फाइबर लाइनें बिछाई गई हैं और लगभग 82 प्रतिशत लोग भारत में संचार सेवाओं से जुड़े हुए हैं।

मेक इन इंडिया एक ऐसा आंदोलन है, जो विकास की लौ जलाता है और 125 करोड़ भारतीयों की प्रतिभा, कौशल और अभिनव उत्साह को बढ़ावा देता है।

मैं, ऐसे डिजिटल भारत की कल्पना करता हूं, जहां प्रौद्योगिकी सरकारी व्यवस्था को पारदर्शी बनाती है और लोगों के जीवन में सकारात्मक बदलाव लाती है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

राजमार्गों के निर्माण के काम की प्रगति में तेजी आई है। इस योजना के तहत, सभी राष्ट्रीय राजमार्गों के चौड़ीकरण और विस्तार के लिए एक आंदोलन शुरू किया गया है। मई 2014 से, 12,155 किलोमीटर राष्ट्रीय राजमार्गों का निर्माण किया गया है। वित्तीय वर्ष 201516 में, 15,000 किलोमीटर राष्ट्रीय राजमार्गों के निर्माण का लक्ष्य रखा गया है।

राजमार्ग, भारत के विकास के लिए जीवन रेखा हैं। यह कनेक्टिविटी को बढ़ाकर भारत की प्रगति को दर्शाता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी


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अच्छे प्रशासन के लिए योजनाएं

तृतीय वर्ग तक के कर्मचारियों की नियुक्ति के लिए साक्षात्कार को खत्म करना जूनियर सरकारी कर्मचारियों की रोजगार प्रक्रिया में भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए, सरकार ने फैसला किया है कि तृतीय वर्ग के कर्मचारियों की नियुक्ति केवल शैक्षणिक योग्यता पर आधारित होगी और इसके लिए कोई साक्षात्कार नहीं लिया जाएगा। यह भर्ती प्रक्रियाओं में निष्पक्षता और पारदर्शिता लाएगा। 14 राज्यों ने जनवरी 2016 से इस नीति को प्रभावी बना दिया है।

सार्वजनिक शिकायतों का निवारण

सरकार सार्वजनिक शिकायतों के त्वरित निवारण के लिए, सोशल मीडिया को एक प्रभावी उपकरण के रूप में उपयोग कर रही है। सीपीजीआरएएम को एक अनूठी तकनीक के रूप में विकसित किया गया है, जिसके माध्यम से संबंधित मंत्रालयों या विभागों द्वारा 60 दिनों के भीतर शिकायतों का निवारण किया जाएगा। सीपीजीआरएएम में, फरवरी 2014 से जून 2016 के दौरान, 12 लाख से अधिक शिकायतें प्राप्त हुईं, जिनमें 11 लाख शिकायतें सफलतापूर्वक हल की गई हैं।

मेरे लिए सुधार का मतलब, उन नीतियों से है, जो आम आदमी के जीवन को बदल सकती हैं।

आम आदमी की शिकायतों को सुनने के लिए बेहतर व्यवस्था होनी चाहिए और उस पर प्रतिक्रिया, निर्धारित समय सीमा के भीतर प्राप्त होनी चाहिए।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

श्यामा प्रसाद मुखर्जी रूर्बन मिशन

श्यामा प्रसाद मुखर्जी रूर्बन मिशन, हमारे ग्रामीण क्षेत्रों को सामाजिक, आर्थिक और भौतिक रूप से लंबे समय तक चलाने का प्रयास है। इस मिशन के माध्यम से, ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक, सामाजिक और आधारभूत सुविधाओं को प्रदान कर संतुलित और दीर्घकालिक क्षेत्रीय विकास करने की प्रतिबद्धता है। तीन वर्षों में, 5100 करोड़ रुपए के निवेश के माध्यम से 300 रूर्बन क्लस्टर विकसित करने के का लक्ष्य रखा गया है। यह हमारा विचार है - गांव की आत्मा, शहर की सुविधा। गांव की आत्मा वहीं रहनी चाहिए और शहरों की सबसे अच्छी सुविधाएं, गांव में ही उपलब्ध होनी चाहिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

हृदय

यह हमारी विरासत स्थानों के सतत विकास को सुनिश्चित करने की एक योजना है। इसे अजमेर, अमरावती, अमृतसर, बदामी, द्वारका, गया, कांचीपुरम, मथुरा, पुरी, वाराणसी, वेलंकणी और वारंगल में लागू किया जाएगा। उपरोक्त शहरों में जल आपूर्ति, सड़क निर्माण, स्वच्छता, जल निकासी, कचरा-प्रबंधन, फुटपाथ, स्ट्रीट लाइट्स, पर्यटन सुविधाएं, बिजली और अन्य व्यवस्था के लिए 500 करोड़ खर्च किए गए हैं। हमारे शहर समृद्ध अतीत और विरासत के केंद्र हैं। हमें अपने इतिहास के इस हिस्से की ओर ध्यान देना होगा और इसके प्रति दुनिया को आकर्षित करना होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

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पुस्तक अंश

प्रमाण-पत्र के लिए स्व-प्रमाणन की व्यवस्था स्व-प्रमाणन प्रक्रिया को सरल बनाने के लिए आवेदक अब प्रमाण पत्र को स्व-प्रमाणित करके अपना आवेदन जमा कर सकता है।

शासन से जुड़ा एक महत्वपूर्ण मुद्दा, नागरिकों और सरकार के बीच पारस्परिक विश्वास है। हमने हस्ताक्षर के प्रमाणीकरण की विभिन्न आवश्यकताओं को समाप्त कर, नागरिक पर भरोसा करके इस दिशा में शुरुआत की है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

जीवन प्रमाणपत्र

सरकारी पेंशनरों को हर साल, जीवन प्रमाणपत्र जमा करने की आवश्यकता होती है, जिसकी वजह से वरिष्ठ नागरिकों को बहुत सारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। अब आधार संख्या आधारित, डिजिटल प्रमाणपत्रों की शुरूआत से इस प्रक्रिया को आसान बना दिया गया है। डिजिटल सर्टिफिकेट किसी भी स्थान से ऑनलाइन भेजा जा सकता है और पेंशनरों को बैंक में उपस्थित होने की आवश्यकता नहीं है। अब तक, इस योजना के तहत 16 लाख 48 हजार डिजिटल जीवन प्रमाण पत्र पंजीकृत किए गए हैं। प्रौद्योगिकी विकास का केंद्र है। यह सभी को प्रभावित करता है और देश की प्रगति में एक महत्वपूर्ण माध्यम बन जाता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी


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खेल

23 - 29 जुलाई 2018

फ्रांस ने कप जीता तो क्रोएशिया ने दिल क्रोएशिया को हरा कर फ्रांस ने फीफा विश्व कप दूसरी बार जीता, लेकिन छोटे देश क्रोएशिया ने शानदार फुटबॉल खेलकर पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया

जै

खास बातें

बीस वर्ष बाद फ्रांस ने 4-2 से जीता विश्व कप फ्रांस के किलियान एमबापे ने पूरे टूर्नामेंट में किया जोरदार प्रदर्शन फ्रांसीसी कोच डेसचैंप्स की रणनीति की हो रही है चर्चा

एसएसबी ब्यूरो

से ही फ्रांस के गोलकीपर ह्यूगो लोरिस ने गेंद विपक्षी टीम के हाफ की ओर मारी, रेफरी ने सीटी बजा दी। नीली जर्सी में मौजूद फ्रांसीसी टीम के खिलाड़ी एक दूसरे के गले मिलने लगे, रोने लगे, चिल्लाने लगे। जश्न का दौर कुछ इस तरह से शुरू हुआ, मानों स्कूली बच्चे पहली ट्रॉफी जीतने पर खुशी में झूम रहे हों। पूरा लुजनिकी स्टेडियम जश्न के शोर में डूब गया। आखिर यह होता भी क्यों नहीं। 20 साल बाद फ्रांस एक बार फिर फुटबॉल का सरताज बन चुका था। वहीं दूसरी तरफ लाल-सफेद जर्सी में मौजूद क्रोएशियाई टीम आंसुओं में डूबी थी। खुद को संभालते हुए 40 लाख की आबादी वाले इस देश के खिलाड़ी फ्रांस के सम्मान में तालियां भी बजा रहे थे। महत्वपूर्ण मौकों पर स्कोर करने की अपनी काबीलियत और किस्मत के दम पर फ्रांस ने इस रोमांचक फाइनल में क्रोएशिया टीम को 4-2 से हराकर दूसरी बार विश्व चैंपियन बनने का गौरव हासिल किया। फ्रांस ने 18वें मिनट में मारियो मैंडजुकिच के आत्मघाती गोल से बढ़त बनाई लेकिन इवान पेरिसिच ने 28वें मिनट में बराबरी का गोल दाग दिया। फ्रांस को हालांकि जल्द ही पेनल्टी मिली जिसे एंटोनी ग्रीजमैन ने 38वें मिनट में गोल में बदला जिससे फ्रांस हाफ टाइम तक 2-1 से आगे रहा। पॉल पोग्बा ने 59वें मिनट में तीसरा गोल


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खेल

विश्वकप के सितारे गोल्डेन बूट

टूर्नामेंट में सबसे ज्यादा गोल करने के लिए इंग्लैंड के हैरी कैन को गोल्डेन बूट दिया गया। उन्होंने 6 मैचों में 6 गोल किए । 2014 में यह पुरस्कार हामेस रोड्रिगेज (कोलंबिया) ने जीता था। उन्होंने भी 6 गोल किए थे।

गोल्डन बॉल

फीफा यंग प्लेयर अवॉर्ड

गोल्डन ग्लव्स

बेल्जियम के गोलकीपर थिबोउ कोर्टवा को गोल्डन ग्लव्स मिला। उन्हें टूर्नामेंट का बेस्ट गोलकीपर चुना गया है। उन्होंने 7 मैचों में 27 गोल रोके।

क्रोएशिया के कैप्टन लुका मोडरिच को गोल्डन बॉल पुरस्कार मिला। यह टूर्नामेंट के बेस्ट प्लेयर को दिया जाता है। साल 2014 में यह पुस्कार अर्जेंटीना के लियोनिल मेसी को मिला था।

फ्रांस के एमबापे (19 साल) को फीफा यंग प्लेयर अवॉर्ड मिला। एमबापे ने अपनी ईनामी राशि साढ़े तीन करोड़ रुपए दान करने की घोषणा की है। एमबापे द्वारा दी जा रही इस रकम से जरूरतमंद लोगों का मुफ्त इलाज हो सकेगा। एमबापे यह राशि चैरिटी संस्था प्रीमियर्स डी कोर्डी को देंगे जो खेलों से जुड़ा सामान मुफ्त में मुहैया कराती है। उन्होंने अपनी कुल कमाई 3.49 करोड़ रुपए दान में दे दी। दिव्यांग बच्चों के लिए फरिश्ता बने एमबापे एमबापे का यह दान दिव्यांग बच्चों के लिए खासा मददगार होगा।

फेयर प्ले अवॉर्ड

स्पेन को इस बार फेयर प्ले अवॉर्ड दिया गया। कम से कम सेकंड राउंड तक पहुंचनेवाली टीम इसकी दावेदार होती है। 2014 में यह कोलंबिया को मिला था।


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खेल

23 - 29 जुलाई 2018

ये रिकॉर्ड्स रहेंगे याद

पर फ्रांस की जीत के साथ फुटबॉल के क्रोएशिया महाकुंभ का समापन हो गया। हर बार की तरह

इस वर्ल्ड कप में भी बहुत कुछ खास रहा। दुनिया ने क्रोएशिया जैसे छोटे देश का शानदार खेल देखा, वहीं मजबूत टीमों और नामी खिलाड़ियों को आसानी से धराशायी होते भी देखा गया।

64 मैच, 169 गोल

फीफा वर्ल्ड कप में कुल 64 मैच हुए, जिनमें सभी टीमों ने मिलाकर 169 गोल दागे। सिर्फ एक मैच ऐसा था जिसमें कोई गोल नहीं लगा। इस तरह प्रति मैच में गोल का औसत 2.6 रहा।

ज्यादा पेनाल्टी

विडियो असिस्टेंट रेफरी (वीएआर) सिस्टम की वजह से इस वर्ल्ड कप में अबतक सबसे ज्यादा पेनाल्टी (29) हुई। इससे पहले तक 2002 में सबसे ज्यादा पेनाल्टी हुई थी। लेकिन इसबार की पेनाल्टी उससे 11 ज्यादा थीं। पेनाल्टी का सबसे ज्यादा फायदा इंग्लैंड के हैरी केन ने उठाया, उन्होंने कुल 6 गोल किए , जिनमें से 3 पेनाल्टी के जरिए किए।

सबसे युवा और सबसे बुजुर्ग

फ्रांस के एमबापे (19 साल) में वर्ल्ड कप में गोल का इतिहास रचा। ब्राजील के पेले (1958) के बाद ऐसा दागा जबकि एमबापे ने 65वें मिनट में फ्रांस की बढ़त 4-1 कर दी। जब लग रहा था कि अब क्रोएशिया के हाथ से मौका निकल चुका है तब मैंडजुकिच ने 69वें मिनट में गोल करके उसकी उम्मीद जगाई। फ्रांस ने इससे पहले 1998 में विश्व कप जीता था। तब उसके कप्तान डिडियर डेसचैंप्स थे जो अब टीम के कोच हैं। इस तरह से डेसचैंप्स खिलाड़ी और कोच के रूप में विश्व कप जीतने वाले तीसरे व्यक्ति बन गए हैं। उनसे पहले ब्राजील के मारियो जगालो और जर्मनी के फ्रैंक बेकनबाउर ने यह उपलब्धि हासिल की थी। क्रोएशिया पहली बार फाइनल में पहुंचा था। उसने अपनी तरफ से हर संभव प्रयास किए और अपने कौशल और चपलता से दर्शकों का दिल भी जीता, लेकिन आखिर में जालटको डालिच की टीम को उप विजेता बनकर ही संतोष करना पड़ा। बेशक क्रोएशिया ने बेहतर फुटबॉल खेली, लेकिन फ्रांस अधिक प्रभावी और चतुराईपूर्ण खेल दिखाया, यही उसकी असली ताकत है जिसके दम पर वह 20 साल बाद फिर चैंपियन बनने में सफल रहा। क्रोएशिया ने इंग्लैंड की खिलाफ जीत दर्ज करने वाली शुरुआती एकादश में बदलाव नहीं किया तो फ्रांसीसी कोच डेसचैंप्स ने अपनी रक्षापंक्ति को मजबूत करने पर ध्यान दिया। क्रोएशिया ने अच्छी शुरुआत और पहले हाफ में न सिर्फ गेंद पर अधिक कब्जा जमाए रखा, बल्कि इस बीच आक्रामक रणनीति भी अपनाए रखी। उसने दर्शकों में रोमांच

भरा जबकि फ्रांस ने अपने खेल से निराश किया। यह अलग बात है कि भाग्य फ्रांस के साथ थ ा और वह बिना किसी खास प्रयास के दो गोल करने में सफल रहा। फ्रांस को पहला मौका 18वें मिनट में मिला और वह इसी पर बढ़त बनाने में कामयाब रहा। फ्रांस को दाईं तरफ बाक्स के करीब फ्री किक मिली। ग्रीजमैन का क्रॉस शॉट गोलकीपर डेनियल सुबासिच की तरफ बढ़ रहा था लेकिन तभी मैंडजुकिच ने उस पर हेडर लगा दिया और गेंद गोल में घुस गई। इस तरह से मैंडजुकिच विश्व कप फाइनल में आत्मघाती गोल करने वाले पहले खिलाड़ी बन गए। यह वर्तमान विश्व कप का रेकॉर्ड 12वां आत्मघाती गोल है। पेरिसिच ने हालांकि जल्द ही बराबरी का गोल करके

करनेवाले वह पहले खिलाड़ी बन गए। पेले ने 17 साल की उम्र में वर्ल्ड कप में गोल किया था। दूसरी तरफ मिस्र के गोलकीपर इसाम इल हैदरी (45 साल) वर्ल्ड कप खेलनेवाले सबसे उम्रदराज खिलाड़ी बन गए ।

अतिरिक्त वक्त का विनर क्रोएशिया

फाइनल में फ्रांस से हारने वाली क्रोएशिया टीम पहली ऐसी टीम है जिसने वर्ल्ड कप मैचों में मिले अतिरिक्त समय में मुकाबले का रुख पटलकर तीन बार जीत दर्ज की।

क्रोएशिया ने जीता दिल

क्षेत्रफल में हिमाचल प्रदेश जितने बड़े क्रोएशिया की जनसंख्या सिर्फ 40 लाख है। बावजूद इसके वर्ल्ड कप में उनका प्रदर्शन शानदार रहा। 68 साल बाद कोई इतना छोटा देश वर्ल्ड कप के फाइनल में पहुंचा था। इससे पहले 1950 में उरुग्वे ऐसा कर चुका है।

सबसे कम रेड कार्ड

वीएआर सिस्टम की वजह से खिलाड़ियों ने नियमों को न तोड़ने में ही भलाई समझी। हिंसक आचरण के लिए इस वर्ल्ड कप में किसी को रेड कार्ड नहीं दिखाया गया, हां 4 को मैदान से जरूर बाहर किया गया। वर्ल्ड कप के 40 साल के इतिहास में पहली बार इतने कम रेड कार्ड मिले। क्रोएशियाई प्रशंसकों और मैंडजुकिच में जोश भरा। पेरिसिच का यह गोल दर्शनीय था जिसने लुजनिकी स्टेडियम में बैठे दर्शकों को रोमांचित करने में कसर नहीं छोड़ी। क्रोएशिया को फ्री किक मिली और फ्रांस इसके खतरे को नहीं टाल पाया। मैंडजुकिच और डोमागोज विडा के प्रयास से गेंद विंगर पेरिसिच को मिली। उन्होंने थोड़ा समय लिया और फिर बाएं पांव से शाट जमाकर गेंद को गोल के हवाले कर दिया। फ्रांसीसी गोलकीपर ह्यूगो लोरिस के पास इसका कोई जवाब नहीं था। लेकिन इसके तुरंत बाद पेरिसिच की गलती से फ्रांस को पेनल्टी मिल गई। बॉक्स के अंदर गेंद पेरिसिच के हाथ से लग गई। रेफरी ने वीएआर की मदद ली और फ्रांस को पेनाल्टी दे दी। अनुभवी ग्रीजमैन ने उस पर गोल करने में कोई गलती नहीं की। यह 1974 के बाद विश्व कप में पहला अवसर है जबकि फाइनल में हाफ टाइम से पहले तीन गोल हुए।

क्रोएशिया ने इस संख्या को बढ़ाने के लिए लगातार अच्छे प्रयास किए, लेकिन फ्रांस ने अपनी ताकत गोल बचाने पर लगा दी। इस बीच पोग्बा ने देजान लोवरान को गोल करने से रोका। क्रोएशिया ने दूसरे हाफ में भी आक्रमण की रणनीति अपनायी और फ्रांस को दबाव में रखा। दूसरे हाफ में वैसे भी उसकी टीम बदली हुई लग रही थी। खेल के 59वें मिनट में किलियान एमबापे दाएं छोर से गेंद लेकर आगे बढ़े। उन्होंने पोग्बा तक गेंद पहुंचाई जिनका शॉट विडा ने रोक दिया। रिबाउंड पर गेंद फिर से पोग्बा के पास पहुंची जिन्होंने उस पर गोल दाग दिया। इसके छह मिनट बाद एमबापे ने स्कोर 4-1 कर दिया। उन्होंने बायें छोर से लुकास हर्नाडेज से मिली गेंद पर नियंत्रण बनाया और फिर 25 गज की दूरी से शॉट जमाकर गोल दाग दिया जिसका विडा और सुबासिच के पास कोई जवाब नहीं था। एमबापे ने 19 साल 207 दिन की उम्र में गोल दागा और वह विश्व कप फाइनल में गोल करने वाले सबसे कम उम्र के खिलाड़ी बन गए। पेले ने 1958 में 17 साल की उम्र में गोल दागा था। लेकिन क्रोएशिया हार मानने वाला नहीं था। तीन गोल से पिछड़ने के बावजूद उसका जज्बा देखने लायक था हालांकि उसने दूसरा गोल फ्रांसीसी गोलकीपर लोरिस की गलती से किया। उन्होंने तब गेंद को ड्रिबल किया, जबकि मैंडजुकिच पास में थे। क्रोएशियाई फारवर्ड ने उनसे गेंद छीनकर आसानी से उसे गोल में डाल दिया।


23 - 29 जुलाई 2018

एक्टिंग का स्कूल नसीरुद्दीन शाह

दु

सौ साल लंबे भारतीय सिनेमा के सफर में जिन कुछ कलाकारों ने अपने अभिनय का लोहा बार-बार मनवाया है, नसीरुद्दीन शाह का नाम उनमें काफी ऊपर है एसएसबी ब्यूरो

निया में भारत में सबसे ज्यादा फिल्में बनतीं और देखी भी जाती हैं। यहां साथ कई भाषाओं में न सिर्फ फिल्मों का निर्माण होता है, बल्कि उससे जुड़ी एक अलग कला संस्कृति भी विकसित हुई है। बावजूद इसे विश्व में भारतीय सिनेमा का रचनात्मक हस्तक्षेप बहुत कम है। एक उत्सव प्रधान देश में फिल्में भी आमतौर पर मनोरंजन का साधन हैं। अस्सी के दशक में भारतीय सिनेमा के इस पारंपरिक चरित्र के समानांतर एक नई कोशिश कुछ फिल्मकारों और अभिनेताओं ने मिलकर की। इनमें अभिनेताओं में जो नाम सबसे पहले जेहन में आता है, वह है- नसीरुद्दीन शाह। इस लाजवाब अभिनेता ने कला और व्यावसायिक दोनों ही तरह की फिल्मों में अपनी अभिनय की छाप छोड़ी। कुछ कलाकारों में कला पैदायशी होती है। नसीरुद्दीन शाह उनमें से एक हैं। उनका जिक्र होते ही एक ऐसे साधारण लेकिन आकर्षक व्यक्तित्व की छवि सामने आती है, जिसकी अभिनय-प्रतिभा अतुलनीय है, जिसके चेहरे का तेज असाधारण है। उन्हें एक्टिंग का स्कूल कहा जाए तो कुछ गलत नहीं होगा।

पहली फिल्म ‘निशांत’

20 जुलाई 1950 को लखनऊ से करीब 40 किमी दूर बाराबंकी शहर के घोसियाना मोहल्ले में सेना के एक अधिकारी इमामुद्दीन शाह के परिवार में नसीर साहब ने जन्म लिया था। अपनी पहली फिल्म ‘निशांत’ में छोटे जमींदार का किरदार हो या फिर ‘पार’ में संघर्षमय मजदूर की भूमिका, ‘जाने भी दो यारो’ का फोटोग्राफर विनोद चोपड़ा या फिर ‘स्पर्श’ में नेत्रहीन बच्चों के स्कूल का प्रधानाचार्य, हर किरदार, हर भूमिका में नसीर साहब ने जान फूंक दी।

एनएसडी में दाखिला

नसीरुद्दीन शाह ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से स्नातक की पढ़ाई पूरी की और फिर उन्होंने नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में दाखिला लिया। अभिनय के इस प्रतिष्ठित संस्थान से अभिनय का विधिवत प्रशिक्षण लेने के बाद वे रंगमंच और हिंदी फिल्मों में सक्रिय हो गए। नसीरुद्दीन शाह ने 18 साल की उम्र में राज कपूर और हेमा मालिनी की फिल्म ‘सपनों के सौदागर’ में काम किया था, लेकिन फिल्म रिलीज होने से पहले उनका सीन एडिट कर दिया गया था।

ड्रग्स की लत थी

अपनी आत्मकथा में ही नसीरुद्दीन ने अपनी नशे

की लत का जिक्र किया है। उन्होंने लिखा है कि जीवन के एक कठिन मोड़ पर उन्हें चरस-गांजे की लत लग गई थी। शाह ने लिखा है कि वह कभी दूसरों को ड्रग्स का सेवन करने की सलाह नहीं देंगे। इसे वे कलाकार के नौतिक संतुलन के खिलाफ मानते हैं। नसीरुद्दीन के भतीजे मोहम्मद अली शाह बॉलीवुड में फिल्म ‘यारा’ के साथ अपनी पारी खेलने उतरे हैं। वे बताते हैं, ‘नसीर साहब मेरी प्रेरणा हैं उनसे मैंने एक्टिंग के अलावा अपनी कला के प्रति ईमानदारी और अनुशासन भी सीखा है। वे हमेशा कहते हैं कि एक अच्छा कलाकार बनने से पहले एक अच्छा इंसान होना बहुत जरूरी है।’

पिता की नाराजगी

एक इंटरव्यू में नसीर ने बताया है, ‘मैं पढ़ाई में बड़ा कमजोर था। बात-बात पर शिक्षकों से थप्पड़ खाता था। तो मैंने सोचा अभिनय के क्षेत्र में चला जाऊं। पढ़ाई से बचने का यही एकमात्र रास्ता है।’ नसीर कहते हैं कि जब उन्होंने यह फैसला किया तो उस वक्त उनकी उमर कोई 11-12 साल की रही होगी। उन्होंने यह भी बताया कि उनके पिता को उनके इस इरादे के बारे में बिल्कुल नहीं मालूम था। नसीर कहते हैं, ‘जब मैंने कॉलेज की पढ़ाई पूरी कर ली तो मेरे पिता ने कहा कि अब आगे क्या करना है, तो मैंने कहा कि मैं तो एक्टिंग ही करूंगा।’ नसीरुद्दीन शाह के पिता ने पहले तो उनके इस फैसले का विरोध किया, पर बाद में उन्हें इजाजत दे दी। इसके बाद नसीर ने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में दाखिला लिया।

की शूटिंग के दौरान एक ढाबे पर उन पर जानलेवा हमला हुआ था। वह यह देखकर दंग रह गए थे कि यह उनको मारने की कोशिश करने वाला उनका अपना दोस्त राजेंद्र जसपाल था। राजेंद्र को लगता था कि जो फिल्में नसीर कर रहे हैं, वो उन्हें मिलनी चाहिए थी।

‘मिर्जा गालिब’

गुलजार ने ‘मिर्जा गालिब’ पर एक पॉपुलर टीवी सीरीज बनाई थी। उन्होंने गालिब की भूमिका के लिए नसीर साहब को ही चुना। आज भी यू ट्यूब पर लाखों लोग रोज इसे देखते हैं। यकीनन आज की पीढ़ी ने गालिब को नसीरुद्दीन शाह के जरिए ही जाना है। नसीर साहब ने खुद भी माना है कि गालिब का किरदार निभाना उनके लिए काफी चुनौती भरा रहा। अपने इस अभिनय तजुर्बे को वे अपनी जिंदगी के बेहतरीन अभिनय तजुर्बे में एक मानते हैं।

‘इंटीरियर कैफे नाइट’

यदि फिल्मों को क्रिकेट माना जाए तो ‘इंटीरियर कैफे नाइट’ को नसीरुद्दीन शाह के लिए टी-20 मैच कहा जा सकता है और यह भी कि वे शॉर्ट फिल्म के इस फॉर्मेट में भी कमाल हैं। इन दिनों यूट्यूब

जानलेवा हमला

फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया में नसीरुद्दीन की दोस्ती राजेंद्र जसपाल से काफी खास थी। हालांकि दोनों की दोस्ती घृणा में बदल गई थी जब राजेंद्र को नसीर की तरक्की से असहजता होने लगी। नसीरुद्दीन ने अपनी आत्मकथा ‘एंड देन वन डे’ में लिखा है कि फिल्म भू मि क ा

खास बातें

20 जुलाई 1950 को लखनऊ से करीब 40 किमी दूर बाराबंकी में जन्म नसीरुद्दीन शाह ने पढ़ाई से बचने के लिए चुनी अभिनय की राह 1987 में पद्म श्री और 2003 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया

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कही-अनकही

पर बॉलीवुड कलाकारों को साथ लेकर कई छोटी फिल्में रिलीज हो रही हैं। इन ज्यादातर फिल्मों में अच्छे कलाकार तो हैं ही, साथ ही इनकी कहानी सस्पेंस थ्रिलर है या कॉमेडी सो इन्हें जबर्दस्त हिट भी मिल रहे हैं। निर्देशक अधिराज बोस ऐसी ही फिल्म ‘इंटीरियर कैफे नाइट’ दो प्रेमी जोड़ों के बिछड़ने और फिर मिलने की कहानी है। इस फिल्म में नसीरुद्दीन शाह की ही फिल्म ‘इकबाल’ से प्रसिद्ध हुई श्वेता बसु प्रसाद भी हैं।

सम्मान

नसीरूद्दीन शाह को 1987 में पद्म श्री और 2003 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया है। 1979 में फिल्म ‘स्पर्श’, 1984 में फिल्म ‘पार’ और 2006 में फिल्म ‘इकबाल’ के लिए नसीरुद्दीन शाह को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुका है। इसके अलावा 1981 में फिल्म ‘आक्रोश’, 1982 में फिल्म ‘चक्र’ और 1984 में ‘मासूम’ के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के फिल्मफेयर अवार्ड से सम्मानित किया जा चुका है। 2000 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी अवार्ड से सम्मानित किया गया।


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सा​िहत्य

क नदी के किनारे उसी नदी से जुड़ा एक बडा जलाशय था। जलाशय में पानी गहरा होता है, इसलिए उसमें काई तथा मछलियों का प्रिय भोजन जलीय सूक्ष्म पौधे उगते हैं। ऐसे स्थान मछलियों को बहुत रास आते हैं। उस जलाशय में भी नदी से बहुत-सी मछलियां आकर रहती थीं। अंडे देने के लिए तो सभी मछलियां उस जलाशय में आती थीं। वह जलाशय लंबी घास व झाड़ियों द्वारा घिरा होने के कारण आसानी से नजर नहीं आता था। उसी में तीन मछलियों का झुड ं रहता था। उनके स्वभाव भिन्न थे। अन्ना संकट आने के लक्षण मिलते ही संकट टालने का उपाय करने में विश्वास रखती थी। प्रत्यु कहती थी कि संकट आने पर ही उससे बचने का यत्न करो। यद्दी का सोचना था कि संकट को टालने या उससे बचने की बात बेकार है, करने कराने से कुछ नहीं होता जो किस्मत में लिखा है, वह होकर रहेगा। एक दिन शाम को मछुआरे नदी में मछलियां पकडकर घर जा रहे थे। बहुत कम मछलियां उनके जालों में फंसी थी। अतः उनके चेहरे उदास थे। तभी उन्हें झाडियों के ऊपर मछलीखोर पक्षियों का झुड ं जाता दिखाई दिया। सबकी चोंच में मछलियां दबी थी। वे चौंके । एक ने अनुमान लगाया 'दोस्तो! लगता हैं झाड़ियों के पीछे नदी से जुड़ा जलाशय हैं, जहां इतनी सारी मछलियां पल रही हैं।' मछुआरे पुलकित होकर झाड़ियों में से होकर जलाशय के तट पर आ निकले और ललचाई नजर से मछलियों को देखने लगे। एक मछुआरा बोला 'अहा! इस जलाशय में तो

कल्पना

क अमीर आदमी था। उसने समुद्र में अकेले घूमने के लिए एक नाव बनवाई। छुट्टी के दिन वह नाव लेकर समुद्र की सैर करने निकला। आधे समुद्र तक पहुंचा ही था कि अचानक जोरदार तूफान आया। उसकी नाव पूरी तरह से तहस-नहस हो गई, लेकिन वह लाईफ जैकेट की मदद से समुद्र में कूद गया। जब तूफान शांत हुआ तब वह तैरता- तैरता एक टापू पर पहुंचा, लेकिन वहां भी कोई नही था। टापू के चारो और समुद्र के अलावा कुछ भी नजर नहीं आ रहा था। उस आदमी ने सोचा कि जब मैंने पूरी जिंदगी में किसी का कभी भी बुरा नही किया तो मे साथ ऐसा क्यों हुआ..? उस आदमी को लगा कि भगवान ने मौत से बचाया तो आगे का रास्ता भी भगवान ही बताएगा। धीरे- धीरे वह वहां पर उगे झाड़ के पत्ते खाकर दिन बिताने लगा। अब धीरेधीरे उसकी आस्था खत्म होने लगी, भगवान पर से उसका विश्वास उठ गया। उसको लगा कि इस दुनिया में भगवान है ही नहीं। फिर उसने सोचा कि अब पूरी जिंदगी यही इस टापू पर ही बितानी है तो क्यों ना एक झोपड़ी बना लूं ......? फिर उसने पेढ़ की डालियों और पत्तों से एक छोटी- सी झोपड़ी बनाई। उसने मन ही मन कहा कि आज

23 - 29 जुलाई 2018

तीन मछलियां

मछलियां भरी पड़ी हैं। आज तक हमें इसका पता ही नहीं लगा।' 'यहां हमें ढेर सारी मछलियां मिलेंगी।' दूसरा बोला। तीसरे ने कहा 'आज तो शाम घिरने वाली हैं। कल सुबह ही आकर यहां जाल डालेंग।े ' इस प्रकार मछुआरे दूसरे दिन का कार्यक्रम तय करके चले गए। तीनों मछ्लियों ने मछुआरे की बात सुन ला थी। अन्ना मछली ने कहा, 'साथियो! तुमने मछुआरे की बात सुन ली। अब हमारा यहां रहना खतरे से ख़ाली नहीं है। खतरे की सूचना हमें मिल गई है। समय रहते अपनी जान बचाने का उपाय करना चाहिए। मैं तो अभी ही इस जलाशय को छोडकर नहर के रास्ते नदी में जा रही हूं। उसके बाद मछुआरे सुबह आएं, जाल फेंक,े मेरी बला से। तब तक मैं तो बहुत दूर अटखेलियां कर रही होऊंगी।’ प्रत्यु मछली बोली, 'तुम्हें जाना हैं तो जाओ, मैं तो नहीं आ रही। अभी खतरा आया कहां हैं, जो इतना घबराने की जरुरत है हो सकता है संकट आए ही न। उन मछुआरों का यहां आने का कार्यक्रम रद्द हो सकता है, हो सकता है रात को उनके जाल चूहे कुतर जाएं, हो सकता है उनकी बस्ती में आग लग जाए। भूचाल आकर उनके गांव को नष्ट कर सकता है या रात को मूसलाधार वर्षा हो सकती हैं और बाढ़ में उनका गांव बह सकता है। इसीलिए उनका आना

निश्चित नहीं हैं। जब वह आएंग,े तब की तब सोचेंग।े हो सकता है मैं उनके जाल में ही न फंस।ूं ' यद्दी ने अपनी भाग्यवादी बातें कहीं, 'भागने से कुछ नहीं होने का। मछुआरों को आना है तो वह आएंग।े हमें जाल में फंसना हैं तो हम फंसगें ।े किस्मत में मरना ही लिखा है तो क्या किया जा सकता हैं?' इस प्रकार अन्ना तो उसी समय वहां से चली गई। प्रत्यु और यद्दी जलाशय में ही रही। भोर हुई तो मछुआरे अपने जाल को लेकर आए और लगे जलाशय में जाल फेंकने और मछलियां पकड़ने। प्रत्यु ने संकट को आए देखा तो लगी जान बचाने के उपाय सोचने। उसका दिमाग तेजी से काम करने लगा। आस-पास छिपने के लिए कोई खोखली जगह भी नहीं थी। तभी उसे याद आया कि उस जलाशय में काफ़ी दिनों से एक मरे हुए ऊदबिलाव की लाश तैरती रही हैं। वह उसके बचाव के काम

भगवान हैं

आ सकती है। जल्दी ही उसे वह लाश मिल गई। लाश सड़ने लगी थी। प्रत्यु लाश के पेट में घुस गई और सड़ती लाश की सड़ांध अपने ऊपर लपेटकर बाहर निकली। कुछ ही देर में मछुआरे के जाल में प्रत्यु फंस गई। मछुआरे ने अपना जाल खींचा और मछलियों को किनारे पर जाल से उलट दिया। बाकी मछलियां तो तड़पने लगीं, परंतु प्रत्यु दम साधकर मरी हुई मछली की तरह पड़ी रही। मछुआरे को सडांध का भभका लगा तो मछलियों को देखने लगा। उसने निश्चल पड़ी प्रत्यु को उठाया और सूघं ा 'आक! यह तो कई दिनों की मरी मछली हैं। सड़ चुकी है।' ऐसे बड़बड़ाकर बुरा-सा मुहं बनाकर उस मछुआरे ने प्रत्यु को जलाशय में फेंक दिया। प्रत्यु अपनी बुद्धि का प्रयोग कर संकट से बच निकलने में सफल हो गई थी। पानी में गिरते ही उसने गोता लगाया और सुरक्षित गहराई में पहुंचकर जान की खैर मनाई। यद्दी भी दूसरे मछुआरे के जाल में फंस गई थी और एक टोकरे में डाल दी गई थी। भाग्य के भरोसे बैठी रहने वाली यद्दी ने उसी टोकरी में अन्य मछलियों की तरह तड़प-तड़पकर प्राण त्याग दिए। सीख- भाग्य के भरोसे हाथ पर हाथ धरकर बैठे रहने वाले का विनाश निश्चित है।

कविता

सुबह

चंद्र कुमार जैन दो रातों के बीच सुबह है दोष न उसको देना साथी दो सुबहों के बीच रात भी एक ही जीवन में है आती ! आगत का स्वागत करना है विगत क्लेश की करें विदाई, शाम बिखरकर, सुबह जो खिलीं कलियां कुछ कहतीं मुस्कातीं !

राहें

से झोपडी में सोने को मिलेगा । रात हुई ही थी कि अचानक मौसम बदला, बिजली जोर- जोर से कड़कने लगी। तभी अचानक एक बिजली उस झोपड़ी पर आ गिरी और झोपड़ी जलने लगी। यह देखकर वह आदमी टूट गया आसमान की तरफ देखकर बोला तू भगवान नहीं, राक्षस है। तुझमे दया जैसी कोई चीज नहीं है। तू बहुत क्रूर है। वह व्यक्ति हताश होकर सर पर हाथ रखकर रो रहा था कि अचानक एक नाव टापू के पास आई। नाव से उतरकर दो आदमी बाहर आए और बोले कि हम तुम्हें बचाने आए हैं। दूर से इस वीरान

टापू में जलती हुई आग देखी तो लगा कि कोई उस टापू पर मुसीबत में है। अगर तुम अपनी झोपड़ी नही जलाते तो हमे पता नहीं चलता कि टापू पर कोई है। उस आदमी की आंखो से आंसू गिरने लगे। उसने ईश्वर से माफी मांगी और बोला कि मुझे क्या पता कि आपने मुझे बचाने के लिए मेरी झोपड़ी जलाई थी। दिन चाहे सुख के हों या दुख के,भगवान अपने भक्तों के साथ हमेशा रहते हैं।

जिंदगी की राहें सड़कों की तरह कभी खत्म नहीं होती है, मंजिल की दूरी से ङरने से अच्छा है, एक -एक कदम उठा कर चलते जाना। जब लगे, सारे रास्ते बंद हैं, शून्य से भी शुरु करने में भी क्या हर्ज है? सफेद पन्ने पर फिर से जो चाहे लिखने का मौका मिला है। बस अपने अंदर की आग को जलते रहने देना है।


23 - 29 जुलाई 2018

आओ हंसें

बातूनी मरीज डॉक्टर : तबियत कैसी है? मरीज : पहले से ज्यादा खराब है। डॉक्टर : दवाई खा ली थी? मरीज : खाली नहीं थी भरी हुई थी। डॉक्टर : मेरा मतलब है दवाई ले ली थी? मरीज : जी आप ही से तो ली थी। डॉक्टर : बेवकूफ ! दवाई पी ली थी? मरीज : नहीं जी... दवाई नीली थी। डॉक्टर : अबे! दवाई को पी लिया था? मरीज : नहीं जी... पीलिया तो मुझे था। डॉक्टर :-दवाई को मुहं में रख लिया था? मरीद : आपने तो कहा था कि फ्रिज में रखना। डॉक्टर :-अबे! क्या मार खाएगा? मरीज : नहीं दवाई खाऊंगा। डॉक्टर : तू पागल कर देगा। मरीज :-जा रहा हूं... फिर कब आऊं? डॉक्टर : मरने के बाद। मरीज : मरने के कितने दिन बाद? डॉक्टर बेहोश।

31

इंद्रधनुष

सु

जीवन मंत्र

डोकू -32

ज्ञानी मनुष्य दूसरों की भूलों से अपनी भूलें सुधारता है

रंग भरो

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सुडोकू-31 का हल

महत्वपूर्ण तिथियां

• 23 जुलाई तिलक जयंती, चंद्रशेखर आजाद जयंती • 26 जुलाई विजय दिवस (कारगिल दिवस) • 27 जुलाई सीआरपीएफ स्थापना दिवस • 28 जुलाई विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस

बाएं से दाएं

1. बदलाव (5) 3. चिकित्सा, उपचार (3) 5. उनको (2) 6. वाक्यपटु (3,3) 8. मृतात्मा (2) 9. नाड़ी (2) 10. बाग, रास (3) 11. चार खाने वाली आकृति (3) 12. दो नदियों के बीच का भूखंड (3) 13. जो खुला न हो (2) 15. डूबा हुआ, छुपा हुआ, समाप्त (2) 16. यहाँ वहाँ (3,3) 18. प्रतिष्ठा, इज्जत (2) 19. उच्च स्तर का (3) 20. कसाईखाना (3,2)

विजेता का नाम सीमा चुग गुरुग्राम

वर्ग पहेली-31 का हल

ऊपर से नीचे

1. विकल्प, त्याग, समाधान (4) 2. वर्ष (3) 3. इनको (2) 4. समुदाय, कक्षा (3) 5. खौलना (4) 7. घनिष्ठ मित्र (2,3) 8. मुहब्बत, लगाव (3,2) 11. चौबे की पत्नी (4) 14. टूटना, दरार पड़ना (4) 15. आदी (3) 17. उघड़ा हुआ, खुला (3) 18. आवक, आमदनी (2)

कार्टून ः धीर

वर्ग पहेली - 32


32

न्यूजमेकर

रो

ही म ा न अ

23 - 29 जुलाई 2018

राजाराम

कमाल के मास्टरजी

बच्चे स्कूल न छोड़ें इसीलिए स्कूल बस तक चला रहे हैं प्राथमिक स्कूल के शिक्षक राजाराम

र्नाटक के उडूपि जिले के बाराली गांव में बच्चों में शिक्षा में दिलचस्पी बनाए रखने और बच्चे स्कूल आना न छोड़ें, इसके लिए प्राथमिक स्कूल के शिक्षक राजाराम स्कूल बस के ड्राइवर की भी जिम्मेदारी खुद ही निभा रहे हैं। हर सुबह राजाराम जल्दी उठकर घर से निकलते हैं और बस के चार चक्कर लगाकर बच्चों को उनके घरों से लाते हैं। स्कूल में राजाराम को मिलाकर सिर्फ तीन शिक्षक हैं। राजाराम ने बताया कि ज्यादा दूरी होने के चलते कई छात्रों ने स्कूल आना छोड़ दिया था। इसके बाद उन्होंने पूर्व छात्रों की मदद से बस खरीदी। राजाराम का कहना है कि बस से

स्कूल आने के कारण अब स्कूल में छात्रों की संख्या भी बढ़ गई है। पिछले साल बाराली गांव के आसपास के बच्चों ने स्कूल आना बंद कर दिया था। मालूम किया गया तो पता चला कि स्कूल से घर तक आने के लिए रास्ता बेहद खराब है और कोई वाहन भी नहीं चलता है। छात्रों को पांच से छह किमी की दूरी पैदल चलकर आना पड़ता था। अनहोनी के डर से गांव वालों ने अपनी बच्चियों को भी स्कूल भेजना बंद कर दिया था। राजाराम ने बताया कि अचानक एक दिन मुझे स्कूल का पुराना छात्र विजय हेगड़े मिला। वो बेंगलुरू में प्रॉपर्टी मैनजमेंट कंपनी चलाता

नानूराम राव

सफलता की नई ‘दृष्टि’

राजस्थान के नेत्रहीन युवा को आईएएस-प्री की परीक्षा में कामयाबी

वि

श्वास और मेहनत से कोई कार्य असंभव नहीं रह जाता है। राजस्थान में चुरू के लोढ़सर गांव के रहने वाले एक नेत्रहीन युवा ने आईएएस की प्री परीक्षा पास कर इस सबक को एक बार फिर सही साबित किया है। सार्वजनिक निर्माण विभाग में बेलदार पद पर कार्यरत टीकूराम के नेत्रहीन बेटे नानूराम राव अपनी सफलता पर तो खुश है, पर उसे जीवन में और आगे जाना है, और सफल होना है। राव ने बताया कि मन में विश्वास, मेहनत और लगन से ही कठिन से कठिन लक्ष्य को

है। उससे स्कूल को लेकर बातचीत हुई तो उसने बताया कि दूरी और खराब रास्ते की वजह से लोग बच्चों को स्कूल नहीं भेज रहे हैं। ऐसे ही चलता रहा तो स्कूल बंद करना पड़ेगा। हेगड़े ने मुझे बस खरीदने का आइडिया दिया ताकि बच्चों को घर से लाया जा सके। छह महीने में स्कूल के पुराने छात्र विजय, गनेश

न्यूजमेकर

प्राप्त किया जा सकता है। वह अपने पिता के सपने को पूरा करने के लिए आईएएस परीक्षा की तैयारी कर रहा है। नानूराम को पूरा भरोसा है कि वह इस बार आईएएस-मेंस परीक्षा पास करके अपने पिता के सपने का साकार करेगा। राव जब छठी कक्षा की पढ़ाई कर रहा था तब उनकी आखों की रोशनी चली गई थी। पर उसके बाद भी उसने पढ़ाई करना बंद नहीं किया। बातचीत के क्रम में उसने बताया, ‘मेरे जैसे नेत्रहीन व दिव्यांग देश में बहुत हैं, जिनमें पढ़, लिख कर कुछ करने की तमन्ना है। लेकिन उनके पास संसाधन नहीं हैं। मैं आईएएस बनकर उनके लिए मैं अलग से स्कूल, रिकॉर्डर जैसी व्यवस्थाएं करना चाहूंगा।’ राव ने अपने आईएएस बनने के सपने को साकार करने के लिए नियमित दो वर्ष तक सीकर अप-डाउन कर निजी कोचिंग में दो साल तक पढ़ाई की। पर उसे ज्यादा भरोसा खुद की गई पढ़ाई पर ही रहा। वह ब्रेललिपि की मदद से पढ़ाई करता था। वह अपनी बहनों से नोट्स रिकॉर्ड करवाकर उनको सुनता था।

शेट्टी ने बस खरीदने के लिए पैसे दिए जिससे बस खरीदी गई। ड्राइवर को कम से कम सात हजार रुपए वेतन देना पड़ता। इतनी बड़ी राशि को स्कूल नहीं वहन कर सकता था, इसीलिए मैंने खुद बस चलाने की जिम्मेदारी उठाई। अब स्कूल में बच्चों की संख्या 50 से 90 हो गई है।

हिमा दास

गोल्डन गर्ल हिमा

स्टार एथलीट हिमा दास असम का खेल दूत बनेंगीं

सम के मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल ने ऐलान किया है कि स्टार एथलीट हिमा दास को राज्य का खेल दूत नियुक्त किया जाएगा। फिनलैंड के टेंपेयर में आईएएएफ विश्व अंडर20 चैंपियनशिप में गोल्ड मेडल जीतकर इतिहास रचने वाली हिमा राज्य की पहली खेल दूत होंगी। हिमा 400 मीटर फाइनल में खिताब के साथ आईएएएफ विश्व अंडर 20 एथलेटिक्स चैंपियनशिप में स्वर्ण पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला हैं। 18 वर्षीय हिमा ने 51.46 सेकेंड के समय के साथ स्वर्ण पदक जीता था। इसके साथ ही वह भाला फेंक के स्टार खिलाड़ी नीरज चोपड़ा की सूची में शामिल हो गईं, जिन्होंने 2016 में पिछली प्रतियोगिता में विश्व रिकॉर्ड प्रयास के साथ स्वर्ण पदक जीता था। हालांकि वह इस प्रतियोगिता के इतिहास में स्वर्ण पदक जीतने

आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597; संयुक्त पुलिस कमिश्नर (लाइसेंसिंग) दिल्ली नं.-एफ. 2 (एस- 45) प्रेस/ 2016 वर्ष 2, अंक - 32

वाली पहली ट्रैक खिलाड़ी हैं। हिमा ने महज दो साल पहले ही रेसिंग ट्रैक पर कदम रखा था। इससे पहले उन्हें अच्छे जूते भी नसीब नहीं थे। जाहिर है कि असम के छोटे से गांव ढिंग की रहने वाली हिमा के लिए इस मुकाम तक पहुंचना आसान नहीं था। परिवार में 6 बच्चों में सबसे छोटी हिमा पहले लड़कों के साथ पिता के धान के खेतों में फुटबॉल खेलती थीं।


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